व्यक्तित्व : गरीबों की सेवा करना ही हमारा उद्देश्य था
भगवती जोशी रामनगर में अपने परिवार के साथ रहती हैं। उनके पति स्व़ श्री रामदत्त जोशी 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय रहे। आजादी के बाद वे सोशलिस्ट पार्टी में रहे तथा दो बार अपने क्षेत्र से विधायक रहे। भगवती जोशी की उम्र इस समय 80 वर्ष या उससे भी कुछ अधिक होगी। उनकी स्मरणशक्ति अब कुछ कम हो गयी है। इसलिए वे क्रमपूर्वक सारी बातें बता नहीं पाईं। 25 फरवरी 2014 को रामनगर में उनके आवास पर जो बातचीत हुई, उसमें सर्वश्री मथुरादत्त मठपाल, शेखर पाठक, पुष्पा गैड़ा, उमा भट्ट, भगवती जोशी के तीनों पुत्र एवं पुत्रवधू शामिल थे। उनसे हुई बातचीत के आधार पर यह लेख लिखा गया है, जो दर्शाता है कि किस प्रकार उन्होंने अपने पति के कामों का पूरा समर्थन करते हुए अपने लिए भी काम करने की स्थितियाँ बनाईं।
श्रीमती भगवती जोशी के पिता श्री गोवर्धन सती तथा माँ गंगा देवी अल्मोड़ा जिले की रानीखेत तहसील में चौखुटिया के पास कालनौं के निवासी थे। पिता हलद्वानी में सिंगर मशीन कम्पनी में मैनेजर थे। माँ देखने में बहुत सुन्दर थीं। भगवती कहती हैं, मैं तो कुछ नहीं हुई उसके सामने। पिताजी की रुचि संगीत में थी। तबला हारमोनियम बजाकर गाना गाते थे। उनके गाँव से स्कूल नजदीक ही था। उन्होंने कक्षा 7 या 8 तक पढ़ाई की (यहाँ पर भगवती जी का स्वर निश्चयात्मक नहीं था)। उनके गाँव की अन्य लड़कियाँ भी पाठशाला जाती थीं। वे दो बहिनें और एक भाई थे। अठारहवां साल लगते लगते उनकी शादी हो गई।
शादी के समय जोशी जी नैनीताल बैंक में नौकरी करते थे। वे भी पति के साथ हलद्वानी आ गईं थीं। हलद्वानी में बाजार में किराये के मकान में परिवार रहता था। पति शुरू से ही राजनीतिक-सामाजिक कार्यों में सक्रिय थे। शादी से पहले भी वे जेल जा चुके थे परन्तु भगवती को इस बात से कोई परेशानी नहीं हुई। उन्हें संगीत का शौक था। तबला हारमोनियम बजाते थे।
विवाह के बाद जब भगवती ससुराल आईं तो सास ने बहू को बहुत लाड़-प्यार से रखा। सास बहुत कर्मठ थीं। न ज्यादा लम्बी थीं, न छोटी। मुझसे कहती थी – बहू, तू काम मत कर, तेरे पाँव सूज जायेंगे। भगवती कहती हैं- मैं भी बिना सास के कुछ खाती नहीं थी। घर में मिठाई भी आयेगी तो कहती थी, ज्यू (सास) आयेंगी तब खाऊंगी। सास भी बहुत ख्याल करती थीं मेरा। बच्चे छोटे थे तो काम नहीं करने देती थीं। बच्चे होने के बाद तो एक प्रकार से सास ने मुझे कैदखाने में रख दिया कि बाहर कैसे जाएगी, बच्चे छोटे हैं। पति खूब हँसमुख और खुले स्वभाव के थे। बाद में अन्होंने नौकरी छोड़ दी तो भी भगवती ने धैर्यपूर्वक सहन किया। वे कहती हैं, वे तो देवता हुए मेरे। ऐसा पति तो कभी मिलेगा नहीं। वे तो मेरे लिए बिस्तर भी लगा देते थे। पैर ठण्डे हों तो गरम पानी की बोतल रख देते थे। बार-बार भगवती कहती हैं -रामायण खतम हो जायेगी, मेरी कहानी ख्त्म नहीं होगी। क्या करोगे मेरी कहानी सुनकर। कहानियाँ ही कहानियाँ हैं – हंसने वाली भी और रोने वाली भी। क्या क्या सुनाऊँ।
उन्हें एकदम ठीक से याद नहीं आता कि उनके पति कितनी बार और कब-कब जेल गये। पर वे कई घटनाएं बीच-बीच में बताती जाती हैं। एक बार काशीपुर में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अब मेरे घर में बहुत भीड़ लग गई। क्या हुआ जोशी जी को। क्या चोरी कीं। मैंने कहा – तुम्हारा सिर फूट जाय। चोरी क्यों की। कितनी बार जेल गये, यह बात वे साफ-साफ नहीं बता पाईं। पर वे कहती हैं- जेल चले जाते थे तो घर में मैं छोटे-छोटे बच्चों के साथ रह जाती थी। साझी (बटाईदार) की पत्नी को बुला लेती थी, रात को साथ के लिए। पहले बच्चे बहुत छोटे थे फिर बड़े हो गये। बाद में पढ़ने के लिए बच्चे काशीपुर रहते थे, मैं रामनगर रहती थी। तब हमारे घर में चौबीसों घण्टे भीड़ रहती थी। वे बाहर गये तो सब बाहर। वे अन्दर आये तो सब अन्दर आ गये। लोगों को खिलाना भी पड़ता था। हम भी काम करते थे, उनके आदमी भी होते थे।ज्यादा घर में कहाँ रहते थे। आज आये, कल चले गये।
Our aim was to serve the poor
हमारा कभी लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ। मेरे तो वे भगवान हुए, ऐसी ही शिक्षा मिली हमें बचपन से। ओछेपन या अहंकार से वे बहुत चिढ़ते थे। कहते थे- जो हमारे पास है, वही खाओ, वही पहनो। यह नहीं कि दूसरों को देखकर वैसा करो। मेरी बात मानते भी थे। एक बार पार्टी में कुछ घपला हुआ तो कहने लगे, पार्टी छोड़ देता हूँ। लखनऊ जाकर अखबार निकालूंगा। मैंने कहा, अखबार नहीं चला तो क्या करोगे तो चुप हो गए। फिर नहीं गये। कभी डांट भी देते थे पर बात बाहर नहीं जाती थी। इस तरह मैंने घर की इज्जत रखी। रामनगर में हमारी खेती थी। गाय-भैंस भी पाली हुई थीं। काम भी सभी मिलजुल कर करते थे। काम भी करते थे और आराम भी करते थे। बाद में खेतों में बाग लगा दिया- आम, लीची और कटहल का। गाय-भैंस भी कम हो गये। अब तो सिर्फ एक गाय है। पहले दूध भी बेचते थे और अनाज भी। जब बाग लगाया तो कन्धे में पेड़ रख-रखकर मैं ले जाती थी।
यह पूछने पर कि तब तो रामनगर बहुत छोटा रहा होगा, वे कहती हैं- हाँ, चार आदमी, दो दुकान थीं तब यहाँ। अब तो रामनगर की हवा, बस पूछो मत। हम तो जैसे हैं ही नहीं यहाँ, ऐसे रह रहे हैं। कहाँ-कहाँ के लोग आ गये हैं। खैर अभी तक तो हम लोगों से व्यवहार हो ही रहा है। आगे की देखी जायेगी।
उन दिनों घर में अपनी पार्टी के सभी बड़े नेता आते थे। श्रीनाथ पै, मधु लिमये, मधु दण्डवते, प्रमिला दण्डवते, अशोक मेहता, जयप्रकाश नारायण, प्रभावती जी सभी आते थे। यह पूछने पर कि आपको झिझक नहीं होती थी उन लोगों के बीच, वे कहती हैं वे तो सब मेरे भाई जैसे थे। जो उम्र में छोटे थे, वे मुझसे माताजी कहते थे। जयप्रकाश नारायण और प्रभावती जी जब आये तो मेरी सास ने जयप्रकाश जी को माला पहनाई ओर मैंने प्रभावती जी को माला पहनाई। प्रभावती जी ने नीली किनारी की खादी की सफेद धोती पहनी थी। नारायण दत्त तिवाड़ी भी आते थे। भगवती जी कहती हैं, तिवाड़ी जी का तो घर ही हुआ यहाँ। उनको राजनीति में भी जोशी जी ही ले गये। प्रताप भय्या तो ‘ओ भौजी, मडुवे की रोटी पका रखी है क्या’ कहते हुए आते थे।
भगवती जी जेल जाने के सवाल पर हाँ कहती हैं। रामनगर में जब रेलवे की बड़ी लाइन लाने का आन्दोलन चल रहा था तब वे जेल गई थीं। काशीपुर तथा रामनगर दोनों स्थानों में बड़ी लाइन लाने के लिए आन्दोलन चल रहा था। अन्तत: रामनगर को सफलता मिली। तब बहुत सारी महिलाओं के साथ भगवती भी धरने पर बैठीं। उन लोगों को पकड़कर नैनीताल ले गये पर वहाँ से छोड़ दिया।
यह पूछने पर कि जोशी जी तो घूमते रहते थे। आप भी कहीं बाहर गईं। वे कहती हैं- मैं एक अमरीका नही गई। बाकी तो हिन्दुस्तान में खूब घूमी। जोशी जी के साथ ही जाती थी। जोशी जी कहते थे, खूब घूमो, खूब जाओ, वे मजाक भी करते थे कि घर में तो यह नहीं खाना, वह नहीं खाना, पर बाहर जाकर मटर की दाल भी खा रही हो। जगह-जगह कैम्प लगते थे या बैठकें होती थीं। एक बार हम चण्डीगढ़ गये। चार दिन रहे। बैठक खत्म होने पर शिमला गये, वहाँ बारिश हो गई तो लौट आये। लखनऊ तो कई बार जाती थी। जोशी जी मजदूर संघ के नेता थे। मजदूर संघ की बैठकों में तराई में बाजपुर, काशीपुर सब जगह मैं भी जाती थी। एक बार दिल्ली में लाल किला से संसद भवन तक पैदल गये जुलूस में। सब जगह से लोग आये थे। औरतें भी बहुत आई थीं। एक बार पटना भी गई थी। जब वे जाते थे तो मेरी भी इच्छा होती थी जाने की। मेरे पूछने पर वे कहते थे चलो। बैठक में मैं सब जगह जाती थी। मैं भाषण तो नहीं देती थी लेकिन बैठकर सुनती थी। मैं रानीखेत से अपनी माँ को बुला लेती थी। बच्चों की देखभाल के लिये। बाद में बच्चे बड़े हो गये। मैं खाने-पीने का कोई परहेज नहीं करती थी। न मैंने अपनी बहुओं से परहेज कराया।
Our aim was to serve the poor
1972 के बांग्लादेश के मुक्ति युद्घ में भी भारतीय दल के साथ जोशी जी गये तो मैं भी गई थी। लोग कहते थे, मत जाओ, मार देंगे। 35 दिन हम वहाँ रहे। मैं तो बॉर्डर पर ही रही। जोशी जी के पास कैमरा था वे जाते थे लोगों के साथ युद्घ की रिपोर्टिंग के लिये। हवाई जहाज में भी बैठी मैं। पुरी, कोणार्क बम्बई सब जगह गई। इमरजैन्सी में इन्दिरा गाँधी ने सबको जेल में डाल दिया। जोशी जी भी ग्यारह महीना जेल में रहे। तब तो आपको बहुत परेशानी हुई होगी, कहती हैं, जिस औरत का पति घर में नहीं होगा, उसे तो परेशानी ही परेशानी हुई। आने-जाने वाले रिश्तेदारों की खातिरदारी, टीका-पिठ्या सब मैंने करना हुआ। चुनाव के दिनों घर में बहुत भीड़-भाड़ हो जाती थी। दो बार चुनाव जीते पर हर चुनाव में काम करने वाले हुए। कहते थे, खुशी से काम करो।
जोशी जी की सक्रियता से परेशानी जैसी कोई नहीं थी। थी भी तो जताती नहीं थी। मैं काम में ही व्यस्त रहती। काम की ही चिन्ता रहती थी। घर का पूरा दायित्व पहले सास पर था फिर मुझ पर आ गया।
भगवती जोशी के बड़े पुत्र ने उनके विषय में कई बातें बताईं जो वे भूल जा रही थीं। उनका कहना था, दादी के मरने के बाद सब-कुछ माँ ने ही सम्भाला। कई बार महीनों तक हम पिताजी की शक्ल नहीं देख पाते थे। हम बच्चे सुबह उठते थे तो वे जा चुके होते थे। शाम को हमारे सोने के बाद पिताजी आते थे। कभी-कभी दो-दो, तीन-तीन महीने तक पिताजी घर नहीं आते थे। 1976 तक तो यह घर पर ही रहती थी पर बाद में इधर-उधर जाने लगी। 1980 के बाद तो यह बहुत सक्रिय हो गई थी। सामाजिक-राजनीतिक कार्यों में। हम लोग बड़े हो गये थे। घर में गाय-भैंस, खेती सब कुछ था। घर की ओर से बोझ कम हुआ तो इसका बाहर जाना बढ़ गया। बाद-बाद में तो घर रामभरोसे और ये दोनों बाहर। जब पिताजी विधायक थे और लखनऊ में विधायक निवास में रहते थे, वहाँ हमेशा भीड़-भाड़ रहती थी। रसोई भी थी। माँ वहाँ दिनभर आने-जाने वालों के लिए खाना बनाने में लगी रहती थी। जो मिला पकाकर लोगों को खिला दिया। काशीपुर से लोग वहाँ आटा-चावल पहुँचा देते थे। यहाँ घर में भी जब हम छोटे थे, देखते थे कि लंगर चलता रहता था। मजदूर नेता भी बहुत आते थे। उनके लिये टिकट की व्यवस्था भी की जाती थी। मुझे कोई दिन ऐसा याद नहीं आता जब घर में लोग भरे हुए न हों। हमारी देखभाल तो अन्तिम प्राथमिकता (least priority) होती थी। जब सब काम खत्म हो गये, तब देखते थे कि बच्चे कहाँ हैं। जब मैं कुछ बड़ा हुआ तो एक बार पिताजी से मैंने कहा कि नेता लोग कहाँ से कहाँ पहुँच गये हैं, आप केवल घर फूँक तमाशा देख रहे हो। क्या मिलता है आपको इससे? वे बोले, ‘मुझे जो मिलता है, वह मुझे महसूस होता है, तुमको महसूस नहीं होगा। जो शान्ति और सुकून मुझे इन कामों में मिलता है, वही मेरे जीवन की सबसे बड़ी प्राप्ति है।’मैंने उन्हें हमेशा पाजामा-कुर्ता और चप्पलों में देखा। पैदल ही चलते थे। साइकिल भी बहुत बाद में आई। जब विधायक नहीं थे तो घर का फोन भी कटवा दिया। पिताजी कभी हमें बाहार नहीं ले गये। घर में क्या हो रहा है, खाने को कुछ है या नहीं। कभी पिताजी ने नहीं देखा। हम किस कक्षा में पढ़ रहे हैं, फीस जा रही है या नहीं, यह भी उन्हें पता नहीं होता था। सब दादी और माँ ही देखते थे। बाद में हम खुद करने लगे। एक बार मैंने बाजार में कुछ खुराफात कर दी। तो मुझसे इतना ही कहा, तू मेरा नाम बढ़ा नहीं सकता, तो घटा भी मत। उन्होंने विधानसभा में एक निजी बिल भी पेश किया था कि विधायकों को पेंशन नहीं मिलनी चाहिए। भगवती जोशी बताती हैं कि हमारे जोशी जी ने पेंशन नहीं ली। यह पूछने पर कि आपने ली बोलीं, जब उन्होंने नहीं ली तो मैं कैसे ले सकती थी। उनकी पुत्रवधू बताती हैं, माताजी बहुत सक्रिय थीं समाज में। सुबह से ही लोग आ जाते थे। उनके काम करवाने के लिये उनके साथ जाती रहती थीं। कभी अस्पताल, कभी नगरपालिका, कभी स्कूलों-दफ्तरों में। दूसरों की बहुत मदद करती थीं। घर में कम ही रहती थीं। एक न एक मरीज को रोज अस्पताल में दिखाना है या किसी को पेंशन दिलवानी है या राशनकार्ड बनवाना है। इधर एक डेढ़ साल से आना-जाना कम हो गया है। सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी लोग बुलाते थे इन्हें। अखबार बराबर पढ़ती थीं पर अब आँखों की रोशनी कम हो गई है। पुराने किस्से कहानियाँ वे ही हमें सुनाती थीं कि कब कौन आया, क्या हुआ, कहाँ-कहाँ गये।
भगवती जी बीच-बीच में बातें जोड़ती जाती हैं। कहती हैं- रामनगर की महिलाएँ मुझे बहुत मानती हैं। मेरे पास आती रहती हैं। राजनीति में गरीबों की सेवा करना ही हमारा उद्देश्य था।
प्रस्तुति: उमा भट्ट
Our aim was to serve the poor
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