तू खुद की खोज में निकल तू किस लिए हताश है
बृजेश जोशी
16 दिसम्बर 2012 के दामिनी हत्याकाण्ड के बाद हुए जनान्दोलन से लगने लगा था कि अब देश में एक नयी चेतना व विमर्श का आगाज होगा तथा महिलाओं की आजादी, अधिकारों आदि को लेकर जो संशय के बादल हैं, कम से कम वे छँटेंगे। लेकिन 2012 से लेकर 2017 (यानी दामिनी से लेकर गुरमेहर कौर) तक महिलाओं/लड़कियों के हालातों में अन्तर क्या है? जहाँ दामिनी को ‘न’ बोलने की सजा नृशंस हत्या के रूप में मिली, वहीं गुरमेहर कौर को स्वयं को अभिव्यक्त करने की सजा रेप की धमकी व गालियों के रूप में मिली। 2012 से 2017 तक जबकि हमने विश्व का सबसे बड़ा चुनाव भी करवा लिया है, 104 सेटेलाइट अंतरिक्ष में छोड़कर नया कीर्तिमान भी स्थापित कर लिया है, तब भी ‘भ्रूण हत्या’, बलात्कार, सामाजिक क्षेत्रों में महिला बहिष्कार जैसी चीजों में इजाफा ही हुआ है। भारत माता को आराध्य मानने वाले लोग भी इन माताओं को रक्षित करने में क्यों सफल नहीं हैं। यह भी एक गम्भीर विषय है। आज जब देश में खाने, पहनने, बोलने जैसे तमाम विषयों पर जहरीली संस्थाओं/संस्थानों/राजनीतिज्ञों द्वारा प्रतिबंध लगाने की साजिशें रची जा रही हैं तो महिला मुक्ति/आजादी की कल्पना करना थोड़ा आभासी-सा लगता है, इन्हीं महिला मुद्दों व अधिकारों को लेकर सन् (2016) में एक फिल्म आयी ‘पिंक’। शूजित की यह फिल्म शायद पिछले कई वर्षों में महिला मुद्दों के आधार पर बनी एक बेहतरीन फिल्म है। जिसमें आधुनिक युग में महिलाओं के प्रति पनप रही समाज के जहरीले सोच को बिलकुल सटीक रूप में प्रस्तुत किया गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें सिनेमा के मुख्य धारा के कलाकारों ने अभिनय किया है तथा खूबसूरत तरीके से अपनी अदायगी और संवादों से समाज को जानने का प्रयास भी। फिल्म उस पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ है जिसमें महिला और पुरुष को अलग-अलग पैमाने पर रखा जाता है। फिल्म की कहानी बताती है कि यदि कोई पुरुष ताकतवर परिवार से है तो वह किसी भी तरह से पीड़ित महिला को लड़ाई लड़ने से रोकता है। फिल्म समाज की उस सोच पर सवाल खड़े करती है जो लड़कियों के कपड़े पहनने (जींस, स्कर्ट) और पुरुषों के साथ उनके बोलने, ड्रिंक करने आदि पर उनके चरित्र को खराब बताती है। फिल्म यह भी बताती है कि भले ही कोई महिला पत्नी हो या वेश्यावृत्ति में लिप्त महिला यदि वह ‘ना’ कहती है तो किसी भी पुरुष को उसे छूने और उसके साथ जबर्दस्ती करने का अधिकार नहीं है। फिल्म तीन सहेलियों के जो कि कामकाजी महिला हैं, दिल्ली शहर में रहती हैं और देर रात तक अपने घर पर पहुँचती हैं, इर्द-गिर्द घूमती है। लड़कियाँ कम्पनी में काम करती हैं और सप्ताह के अन्त में एक बार मनोरंजन के लिए निकल पड़ती हैं। वे एक पार्टी में हैं जहाँ उन्हें लगता है कि कुछ लड़के उन्हें गलत तरीके से छूने की कोशिश कर रहे हैं। इसी बीच आत्मरक्षा करते हुए मीनल (तापसी मनु) एक बोतल से एक लड़के (राजवीर) पर हमला कर देती है। जो राजबीर की आँख में लगती है और खून बहने लगता है। तीनों लड़कियाँ आनन-फानन में घर लौट आती हैं लेकिन यहीं से उनकी जिन्दगी का कठिन दौर सामने आ जाता है। ताकतवर राजवीर पैसों के दम पर ताकत का इस्तेमाल कर इन लड़कियों पर वेश्यावृत्ति का आरोप लगाते हुए (एफ.आई.आर.) दर्ज करा लेता है और मामला कोर्ट पहुँचता है। कोर्ट में शुरूआत होती है तीखी बहस व विमर्श की। मुख्य धारा के सिनेमा में इन विषयों को एक अर्से बाद बेहतरीन तरीके से पेश किया है निर्देशक अनिरुद्ध चौधरी ने दो वकीलों के बीच बहस के द्वारा। बचाव पक्ष के वकील प्रशांत (पीयूष मिश्रा)कहते हैं कि ये लड़कियाँ छोटे कपड़े पहनकर ड्रिंक करने के बाद शरीफ लोगों को फंसाती हैं, उत्तेजित करती हैं और फिर पैसों के लिए ब्लैकमेल करती हैं।
इन लड़कियों के हावभाव, स्माइल (हँसना) देना, साथ में बैठकर खाना, शराब पीना आदि ग्रीन सिग्नल देता है कि ये लड़कियाँ चरित्रहीन हैं। नहीं तो इन्हें रात में घूमने पार्टी में जाने की क्या जरूरत है।
ये दलीलें और दुहाइयाँ आज 10 में से 8 लोग जरूर देते हैं क्योंकि सभी ने महिला अधिकारों/का ठेका लिया है लेकिन लड़कियों की पैरवी कर रहे वकील दीपक (अमिताभ बच्चन) ने जिस तरीके से समाज द्वारा महिलाओं के लिए नियम गढ़ने वालों की धज्जियाँ उड़ाई हैं, वह बेमिशाल है, मसलन- वे कहते हैं-
1. यदि लड़कियाँ घर लेट आती हैं तो वे चरित्रहीन क्यों? लड़के भी तो लेट आते हैं उनका क्या?
2. यदि कोई लड़की पार्टी में जाती है, शराब पी लेती है तो उससे प्रश्न क्यों?
3. शहर में लड़कों को ही रहना चाहिए, लड़कियों को नहीं। यदि रहना भी है तो सलीके के कपड़े पहनने चाहिए? क्या लड़कों को सलीके में नहीं रहना चाहिए?
4. जब कोई लड़की ‘नो’ बोलती है तो उसे ‘नो’ ही समझा जाय, उसकी अदा नहीं।
ये घटनाएँ उन शहरों में हो रही हैं जहाँ रात कभी होती ही नहीं। यह तय कौन करेगा कि क्या मर्यादित है और क्या नहीं? सुरक्षा की बात कौन तय करेगा? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो इस फिल्म में छोड़े गये हैं तथा 21वीं शताब्दी के (अच्छे दिन वाले) भारत की कलई भी खोली है। अंत में तनवीर गाजी की कविता- अनुवाद अमिताभ बच्चन।
तू खुद की खोज में निकल, तू किसलिए हताश है,
तू चल तेरे वजूद की समय को भी तलाश है।
चरित्र जब पवित्र है तो क्यों है ये दशा तेरी
ये पापियों को हक नहीं कि लें परीक्षा तेरी
ये तुझ से लिपटी बेड़ियाँ समझ न इनको वस्त्र तू
ये बेड़ियाँ पिघला के बना ले इनको शस्त्र तू
चूनर उड़ा के ध्वज बना गगन भी कँपकँपाएगा
अगर तेरी चूनर उड़ी तो एक भूकम्प आयेगा
तू खुद की खोज में निकल, तू किसलिए हताश है,
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