जो पृथ्वी थी
रमेश चन्द्र पन्त
वह तब्दील हो गई है कंकाल में
अपने फटे-पुराने वस्त्रों के साथ
घिसटती रहती है इधर से उधर
जैसे चल रही हो काँच के टुकड़ों पर
अपने लहूलुहान पैरों और आत्मा के साथ
कोई नहीं है साथ
छोड़ आई पीछे सभी-कुछ
या फिर छोड़ दी गई अपनों के द्वारा
अकेली सहने के लिए थपेड़े-झंझावात
मुश्किलों के
उसे कुछ भी याद नहीं
शुरू-शुरू में कौंधती रहती थी
स्मृतियाँ स्वजनों की
लेकिन फिर समय के साथ-साथ
डूब गया सभी कुछ विस्मृति के गह्वर में
टूटती रही रोज़ ही रोज थोड़ा-थोड़ा
तोड़ते रहे लोग
वह कुछ भी नहीं कर पाई
कैसी दुनिया है यह
और लोग भी कैसे
नहीं संभाल पाए एक स्त्री को जो पृथ्वी थी
सब व्यर्थ रहा वह अकेली रह गई
शुरू-शुरू में आ जाते थे आंखों में आंसू
लेकिन कब सूख गए कुछ पता ही नहीं चला
सपने तो रहे ही होंगे कुछ
जिन्हें वह संभाल नहीं पाई
और चुकती गई धीरे-धीरे
बस यूं ही घिसटते जाने के लिए।
(Poem Ramesh Chandra Pant)
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