माँ

सुरेन्द्र पुण्डीर

हर दिन-
  नया सोचती है माँ
जैसा-
माँ सोचती है
वैसा-
  हम क्यों नहीं सोचते
बादलों के-
  कुहासे
  और-
भरी दुपहरी में
  फाँदती रहती है
  उन पहाड़ों को
दिनभर किसी न किसी
उधेड़बुन में लगी रहती है माँ
घर पर रोटी सेकती है
और-
बच्चों के रोने पर
पुचकारती है माँ
मैंने कभी
थकते नहीं देखा है माँ को
उसकी
आँखों में-
रहते हैं-
हमेशा- कुछ सपने
जिन्हें सँवारती
ढूँढती है-
अपने मजबूत
हाथों के लिए काम
मेलों-
ठेलों-
उत्सवों में-
ढूँढ लेती है काम
और-
सजजात है दुकान
गोड़ती है समय पर क्यारियाँ
उगाती है-
सपनों की फसल
गाँव के साथ-साथ
चलती है-
उसकी हथेलियाँ
उसके मन में
रहता है एक सपना
पिता की मजबूरी
बेटी का ईख की तरह
बढ़ना
चीन की दीवार की तरह
खड़ा रहता है हर समय
उसे-
फिकर है तो बदलते जमाने से
और-
बड़ी होती बेटी के फैशन से
जो-
फैशन की चकाचौध से
ढक रही है-
अपनी देह
poems of Surendra Pundir

कविता: दो
अलगोजे की तरह

            वज रहा हूँ
त्योहारों में
उत्सवों में
या फिर
            किसी शुभकामना के
                        अवसर पर
छोड़ देती है
   घसियारिनें
     पैनी धार वाली दरातियाँ
            बाजे को सुनकर
देखती है
दूर के बादलों को
   फसादों से लिपटे मेघों को
फसल पक जाने पर
            साठी माड़ते हुए
दब जाती है
      अलगोजे की आवाज
जैसे-
नेताओं के वादे
     दब जाते हैं आश्वासनों के बीच
बैलों के पैरों तले
       दबे बीज खिल उठते हैं
उन सूखे चेहरों में
    उजाती उमस और मुस्कानकुठारों
घरों
आंगनों में
रखी फसलें
जब कभी सुगबुगाती हैं,
पेट की आग
थम जाती है
उसके उजास से
प्यार करना-
गुनाह नहीं है दोस्त
बस-
उसे सहेजकर
रखना पड़ता है,
खलियानों में रखी
            फसलों की तरह
सुखाना पड़ता है
माड़ना पड़ता है
दम्भ के पैरों से
कभी उसे
पकाना पड़ता है-
     धैर्य और धीमी आँच में
फिर-
एक साँचे में ढालकर
    उठाना पड़ता है
     दिलों के बोझ से
लगाई जाती है
अनेक पाबन्दियाँ
  रखे जाते हैं सवाल
तोले जाते हैं शब्द
रेगिस्तान के मरीचिकाओं की तरह
लगाए जाते हैं कयास
पीट दी जाती है मुनादियाँ
सूखी फसलों को-
बचाने के लिए
हो जाती है तैयार परियोजनाएँ
परन्तु-
प्यार को-
रखना पड़ता है
सम्भालकर-
कुठारों में-
रिश्तों- आस्थाओं का पाउडर
प्यार-
उतना ही-
पवित्र और निर्मल होता है
जितना-
निर्मल बहता पानी
पानी पर चलो
पर,
पानी का दाग न लगे
मेरे दोस्त
प्यार भी
सूखी फसलों की तरह
पवित्र होता है-
एक से-
ताकत बढ़ती है-
दूसरे से-
बुद्धि
poems of Surendra Pundir
उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika
पत्रिका की आर्थिक सहायता के लिये : यहाँ क्लिक करें