कविताएँ : गढ़ती-बनती औरत

प्रीति आर्या

देखें वे लोग भी जरा
बदल के नजर का चश्मा
जिन्हें औरत दिखती है
कमाऊ
कामकाजी
आत्मनिर्भर
और…!
स्वतन्त्र
नहीं जानते
न ही मानते
उसे भी हो सकता है
कोई अभाव

दिखती ही नहीं उन्हें
कार्यभार से दबी औरत
के जीवन की
दु:ख, पीड़ा, संत्रास, कुण्ठा

कभी घर-परिवार कभी ऑफिस
के बीच पटती दाय की घुटन
इसके बावजूद
आशाओं के ऊँचे-ऊँचे महल
बनाती
सजाती
संवारती
और…!
संभालती
दिखाती नहीं कभी, स्वयं को
सामथ्र्यहीन..!
दोहरे दायित्व की चक्की में,
पिसती
खटती
आजादी के नाम पर
ठगी हुई सी,
समानता के पाखण्ड में,
लुटी हुई सी
स्त्रीत्व
सतीत्व
पावित्र्य
और….!
पातिव्रत्य
जैसे उलाहनों को
ठुकराती
उन्हें लगती है बस
महत्वाकांक्षी, मृगतृषित।
काश कि वे देख पाते
आकांक्षाओं की दृढ़ता
ओढ़ती
खिलखिलाती
लहलहाती
स्वयं में कुनमुनाती
औरत के भीतर
क्षण-क्षण टूटती-बिखरती औरत
Poems: The making woman

बहलाव

रश्मि बड़थ्वाल

अपने रक्तलाप चेहरे की क्षतिपूर्ति के लिए
उसने क्या-क्या नहीं किया!
बिंदी- सिंदूर  ही नहीं लिपिस्टिक तक की लाली सजायी
सोने-चाँदी की झिलमिल ही नहीं
गोटे सलमे-सितारों की चमक भी जुटायी
कामनाओं की कब्रगाह बने मन पर डालने के लिए पर्दा
उसने चूड़ियाँ छनकायीं पायल झनकाई
और रीति-रिवाजों का आडम्बर फैलाकर
अपनी नकली महत्ता जतलायी।

खुश न होना
माया गोला

अगर कहे तुम्हें कोई देवी
तो खुश न होना कतई
इंकार कर देना देवी होने से,
देवी के महिमामंडन से…..

हालांकि
तुम्हारी अंतश्चेतना के रेशे,
जो बुन दिये गए थे
तुम्हारे लिए जन्म लेने से पहले ही
तुम्हें अपने रेशमी आवरण से
ढकने की भरसक कोशिश करेंगे
लेकिन तुम
भटकना मत
भटकना मत
ये साजिश है तुम्हारे खिलाफ
ताकि तुम
घुट-घुट कर
मर-मर कर भी कल्याणी ही बनी रहो
गढ़ी गई है जो देवी की छवि
उसकी प्रतिर्पूित करती रहो…..
Poems: The making woman

हे स्त्री!
जो करे तुम्हें
देवी कह कर महिमामंडित
उससे पूछना बस एक ही सवाल-
मैं
यानी
स्त्री
देवी हूँ तो वो स्त्री क्या है?
जिसे तुमने कोख में ही मार डाला है
जिसे तुमने अपनी हवस का शिकार बना डाला है
जिसे तुमने दहेज के लिए जला डाला है
जिसे तुमने तंदूर में भून डाला है
जिसे तुमने वेश्या बना डाला है…..
तुम करोगी सवाल
और जवाब तुम्हें नहीं मिलेगा
हाँ,
तुम्हें भरमाने की एक और कोशिश हो सकती है
सावधान!

वाक्पटु
वह अचानक ही
घुस आयी थी विभाग में
किसी प्रकाशन का शब्दकोश बेचने
अति साधारण-सी, कृशकाय….
बेहद साधारण वस्त्र पहने
पर अत्यन्त वाक्पटु!
बिना किसी भूमिका के वह मुद्दे पर आ गई
और कई वजहें बता डालीं
उस शब्दकोश को खरीदने के लिए
सोचा मैंने देखकर उसे-
बचे शब्दकोशों को बेचने के लिए
भटकना पड़ेगा अभी इसे बहुत
इस पढ़ने-लिखने की उम्र में
जीवन ने कदाचित् बहुत जल्दी
लाद दिया है इसकी पीठ पर भार
और शायद कई और पेट भी
इसके परिवार के…..
वह विभाग से निकली तो
कई-कई बार धन्यवाद देकर
तब पता नहीं क्यों
देखकर उसे यही लगा
कि होगा नहीं
इसके पास कोई कंधा
दुख में रोने के लिए
हाँ, जब कभी
टूटकर रोती होगी वह एकांत में
तब उसे ही भिगोकर
कुछ और नमकीन बना देते होंगे उसके आँसू
और वह
हो जाती होगी
कुछ और अधिक
वाक्पटु…..
Poems: The making woman
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