दलित और महिला आन्दोलन की सशक्त हस्ताक्षर रजनी तिलक
गंगोत्री त्रिपाठी
प्रसिद्ध दलित लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता, दलित नारीवादी आन्दोलन की एक सशक्त आवाज, कर्मठ संगठनकर्ता रजनी तिलक (1958-2018) नहीं रही। पुरानी दिल्ली के एक गरीब परिवार में जन्मी रजनी तिलक ने 1975 में हायर सेकेंडरी की परीक्षा देने के बाद कटिंग, टेलरिंग व स्टेनोग्राफी सीखी। अपने बड़े भाई की प्रेरणा से उन्होंने प्रेमचंद की सेवासदन पढ़ी, उनके भाई ने ही उन्हें साहित्य से परिचित कराया। रजनी ने अपना पूरा जीवन सेवा में लगा दिया, न घर की फिक्र की और न परिवार की। याद रहा तो सिर्फ समाज, उसमें भी महिलाओं का यातनापूर्ण जीवन। जिस बारे में एक बार नहीं अनेक बार बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि महिलाओं को हर हालत में शिक्षा लेनी है, तभी दलित समाज जागृत होगा। नयी पीढ़ी में चेतना आयेगी। रजनी ने बाबा साहब की इसी बात को स्वीकार किया और चुनौती के रूप में आगे बढ़ी। कितना बड़ा उसका निर्णय था वह भी एक दलित परिवार की लड़की के लिये। परिवार भी ऐसा जो र्आिथक तौर पर समृद्ध नहीं था। यह निर्णय उसने तब लिया जब उसकी उम्र केवल 16 वर्ष की थी। उसका कारण यह भी था कि उसका परिवार अम्बेडकरवादी था जिसका मान-सम्मान था। उन दिनों उसके परिवार में उसकी माँ और पिता के अलावा बड़े भाई मनोहर और अशोक भारती के साथ छोटी बहिनें अनीता भारती तथा पुष्पा भारती थे। वैसे दो भाई रजनी से छोटे भी थे जो सभी सामाजिक कार्यों में रुचि लेते थे। लम्बे समय तक रजनी एक्टिविस्ट के रूप में दिल्ली में कार्य करती रही। दिल्ली के बाहर विशेष रूप से नागपुर, बम्बई, पुणे, जयपुर, लखनऊ, गाजियाबाद, मेरठ, आगरा, अलीगढ़, भोपाल, हैदराबाद, फरीदाबाद आदि जगहों पर भी जाती थी, जहाँ उसे विभिन्न कार्यक्रमों में सम्मिलित होना होता था।
(Rajnitilak and Dalit women movement)
अधिकांश महिलाओं को जीवन में पति, बच्चे और उस घर के अन्य सदस्यों का भार गृहिणी के रूप में सहन करना होता है, जहाँ विवाह के बाद वे जिम्मेदारी उठाना सीख जाती हैं पर यह सब रजनी को स्वीकार न था। उसके भीतर तो बाबा साहब के सपनों को पूरा करने की चाह थी। हालांकि उसके पति आनन्द स्वयं भी एक्टीविस्ट थे। पर उनका विवाह लम्बे समय तक नहीं चल पाया, कुछ सालों बाद ही उनमें तलाक हो गया। इस बीच एक बेटी भी हुई। पति से अलगाव के उपरान्त अपनी पुत्री के अभिभावक के रूप में पालन-पोषण की जिम्मेदारी के अतिरिक्त वृद्धावस्था में अपनी माता की देखभाल की जिम्मेदारी भी उन्होंने उठाई। जाति तथा लिंग पर उनके विचार बहुत स्पष्ट थे, वे युवा महिलाओं तथा समाज के पिछड़े वर्ग के नेतृत्व की चाह रखती थी। रजनी ने भारत सरकार की नौकरी में रहते हुए बामसेफ और डीएस 4 के लिये भी अपना समय दिया। करोल बाग के बामसेफ आफिस में रजनी जाती थीं। अपने साथियों के साथ कांशीराम जी के नेतृत्व में दिल्ली, शाहदरा, गाजियाबाद, मेरठ, फरीदाबाद में होने वाले कार्यक्रमों में शामिल होती थीं। साथ ही कैडर कैंप भी अटैंड करती थीं। उन्होंने बीएसपी से चुनाव भी लड़ा था। इस तरह रजनी की सामाजिक गतिविधियाँ बढ़ने लगी थीं। लम्बे सांगठनिक अनुभव रजनी तिलक ने अर्जित किये और वे दलित आन्दोलन और दलित महिला आन्दोलन के कई धड़ों के बीच संवाद की डोर भी रहीं। उस दौर में वह भारतीय दलित पैंथर में भी रहीं। आंगनबाड़ी के साथ नेशनल फेडरेशन आफ दलित वीमेन, नैरूडोर वल्र्ड डिग्निटी फोरम, दलित लेखक संघ और राष्ट्रीय दलित महिला आन्दोलन आदि के साथ उनका गहरा जुड़ाव रहा। उसमें से कुछ संगठन 70 के दशक, कुछ 80 के दशक तथा कुछ 90 के दशक के थे। रजनी तिलक ने धार्मिक व पितृसत्तात्मक आडम्बर से न सिर्फ खुद को दूर रखा बल्कि अपने साथियों को भी तार्किक जीवन जीने और पितृसत्ता और जाति की जकड़नों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया।
इसके उपरान्त वे लेखन से जुड़ी। उत्तरी भारत में उन्होंने महिलाओं में चेतना तो भरी ही साथ ही साहित्य के माध्यम से संवाद भी जारी रखा। वे ऐसी लेखिका थीं जो साथिनों के घर जाकर अपनी बात कहती थीं। उन्हें हिन्दू धर्म की बेड़ियों से मुक्त होने को प्रेरित करती थीं। छोटी-छोटी किताबें उन्हें बिना मूल्य पढ़ने को देती थीं। हर माह वह कभी नागपुर, कभी मुम्बई तथा कभी पूना आदि जाती थीं। इस तरह से उन्होंने मराठी तथा हिन्दी दलित महिलाओं के बीच संवाद जारी किया। मराठी भाषा भी सीखनी शुरू की।
(Rajnitilak and Dalit women movement)
उनके द्वारा लिखित अनूदित तथा सम्पादित पुस्तकों में भारत की ‘प्रथम शिक्षिका सावित्री बाई फुले’, कविता संग्रह ‘पदचाप’, ‘बुद्ध ने घर क्यों छोड़ा’, ‘डॉ. अम्बेडकर और महिलाएँ’, ‘समकालीन दलित महिला लेखन’ तथा नामदेव ढसाल की कविताओं का संग्रह ‘गोल पीढ़ा’ का अनुवाद करने में अन्य लेखकों के साथ कार्य किया। हिन्दी को ‘अपनी जमीं अपना आस्मां’ जैसी आत्मकथा और पदचाप और हवा सी बेचैन युवतियां, अनकही कहानियां जैसे कविता संग्रह देने वाली रजनी तिलक भारत के उत्पीड़ित तबकों की अग्रणी बुद्धिजीवी थीं। उनका नया कहानी संग्रह ‘बैस्ट ऑफ करवाचौथ’ काफी विचारोत्तेजक है। इसमें उन्होंने पूरी बेबाकी से अपने अनुभवों को खासतौर से पितृसत्ता से टकराने वाले जीवन संघर्षों को चित्रित किया है और सामाजिक आन्दोलनों की भी पड़ताल की है। इस संग्रह से स्पष्ट होता है कि वह सिर्फ अंबेडकरवादी विमर्श तक ही सीमित नहीं थीं, इससे बाहर समाज के बड़े बदलावों से जुड़ी हुई थीं। उनके कविता संग्रहों ‘पदचाप’ और ‘हवा सी बेचैन युवतियों’ से पता चलता है कि वह हर समय नया जोखिम उठाने को तैयार रहती थीं। दलितों, स्त्रियों और दलित स्त्रियों के रोजमर्रा के संघर्षों में शामिल रहते हुए अपने इन्हीं अनुभवों को दर्ज करने के लिये वे विभिन्न विधाओं में लेखन करती थीं। हिन्दी की दुनिया को सावित्री बाई फुले के महत्व से परिचित कराने में भी उनकी अग्रणी भूमिका रही। मराठी में आम्ही भी इतिहास धडविला, जिसे मीनाक्षी मून तथा उर्मिला पवार ने लिखा और सम्पादित किया था उसे वह प्रकाशित कराना चाहती थी। यह महाराष्ट्र के दलित समाज की लगभग पचास महिलाओं के जीवन संघर्ष से जुड़ा दस्तावेज है। इनमें से अधिकांश महिलाओं ने बाबा साहेब के साथ कार्य किया था।
इसी पुस्तक का हिन्दी रूपान्तर ‘हमने भी इतिहास रचा है’ पर रजनी ने बहुत मेहनत की लेकिन उनके जीते जी यह छप नहीं सका। नामदेव ढसाल के एक और कविता संग्रह ‘तुम्हारी योग्यता क्या है’ का सम्पादन वह कर रही थीं। इसके अलावा रमाबाई, ज्योति राव फुले, सावित्रीबाई फुले तथा बाबा साहब के जीवन संघर्ष पर लिखी कविताओं का संकलन करना चाहती थीं।
रजनी तिलक ने सहेली के साथ मिलकर महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव के खिलाफ संघर्ष किया। आंगनबाड़ी कार्यकर्ता व हेल्पर्स यूनियन बनाकर दिल्ली में चार हजार औरतों का संगठन बनाया। 50 से अधिक अत्याचारों की फैक्ट फाइंडिंग टीम की सदस्य रहीं।
राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा दो बार अनुसूचित जाति की एक्सपर्ट कमेटी के सदस्य के रूप में मनोनीत किया एवं आउटस्टैंडिंग वीमेन अचीवर अवार्ड से उन्हें सम्मानित किया गया।
(Rajnitilak and Dalit women movement)
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