विद्यालयी शिक्षा: जीवन कथा- सात

Schooling Memoir by Radha Bhatt
फोटो: सुधीर कुमार

-राधा भट्ट

इन दो वर्षों में मेरी शक्तियों का विकास तीव्रता से हुआ। मैं घर में अधिक जिम्मेदारी वहन करने लगी। पहले से उठा रही जिम्मेदारियों के साथ मैं नौ-दस लोगों के पूरे परिवार के लिए शाम का भोजन बनाने लगी थी। परिवार की सबसे बड़ी बेटी होने के कारण छोटी बहनों को मदद देना, सम्भालना और अतिथियों की व्यवस्था रखना, सहज ही मेरे जिम्मे आ गये थे। विद्यालय में मैं अच्छे वक्ताओं में से एक थी और मेरी रची कविताएं पसन्द की जाती थीं। पढ़ाई में अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पर रहती थी, मुझे अन्य वक्ता विद्यार्थियों के समूह में वाक प्रतियोगिताओं में भाग लेने सीतापुर, भीमताल और अल्मोड़ा आदि स्थानों में भेजा गया था।
(Schooling Memoir by Radha Bhatt)

अल्मोड़ा का स्मरण मुझे बहुत स्पष्टता से है। जहां हम रात को रुके थे, वहां सुबह उठकर मैंने खूब गहरी सांसें लीं, जो मेरे शिक्षक ने मुझे बताया था, ताकि मैं विशाल जन समूह के सामने बोलने में घबराऊं नहीं। शाम को मंच पर बैठे वक्तागण और सभाध्यक्ष तथा अन्य गणमान्य जनों के साथ मैं भी एक कोने पर अपनी साड़ी का पल्लू सिर पर सम्भाले हुए बैठी थी। पूरी आस्तीन के ब्लाउज से मैं एक अनगढ़ गांववासी ही लग रही थी व नागरिक महिलाओं के बीच तो एक अजूबा ही लग रही हूंगी। कभी-कभी मेरी नजर में मेरी ओर उठी उनकी उंगलियां भी आई थीं। शायद मेरे बारे में ही कुछ कह रही हैं, यह मुझे लगता था। इससे मेरा मन घबरा रहा था पर सभा में मेरे पूर्व छात्र वक्ता जब बोलने लगे तो मेरा आत्मविश्वास धीरे-धीरे बढ़ने लगा। मुझे लगा उनके तर्क कमजोर थे और कृतत्व शैली प्रभावी नहीं थी और शायद कुछों का आत्मविश्वास भी कुछ कम रहा हो। अत: जब मैं बोलने को उठी तो मेरा आत्मविश्वास जागृत था।

खड़ी होकर मैंने एक नजर सभा में बैठे जन समाज पर डाली तो मेरे शिक्षक की बताई हिदायत याद आ गई। ‘‘जब बोलना प्रारम्भ करो तो सोचो सभा में बैठे इन सारे लागों को वह सब बिल्कुल नहीं आता जो मैं कहने जा रही हूं।’’ पूरे आत्मविश्वास से मैं धाराप्रवाह बोलती गई। मुझे द्वितीय पुरस्कार मिला, प्रथम स्थान तो आयोजक कॉलेज के छात्र को ही दिया जाना था। हमारे साथ जो शिक्षक आये थे, उन्होंने मुझे खूब शाबासी दी तथा उन्होंने ही वापस हमारे विद्यालय में आकर मेरी वेशभूषा से हतोत्साहित तथा बाद में मेरी वक्तृता से चकित सभाजनों का वर्णन भी छात्र-छात्राओं, प्रधानाचार्य तथा शिक्षकों के बीच किया। कुछ समय तक मेरा मन इस उपलब्धि पर उत्साहित रहा।
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ये वे ही दिन थे, जब मेरे घर में शादी बनाम समाज सेवा का संघर्ष चल रहा था। अत: घर पहुंचकर मन नीचे उतर आता था। यद्यपि मेरे बाबूजी मेरी सहमति के बिना किसी भी प्रत्याशी को ‘हां’ कहने वाले नहीं थे, पर मुझे डर लगा रहता कि कहीं किसी को स्वीकृति न दे दें। आखिर उनकी बेटी अब पन्द्रहवें साल में प्रवेश कर रही थी।

अपने गुस्से की और गलत बात को न सहन करने की एक घटना मेरी स्मृति में अभी-अभी कौंध गई है। जाड़ों के दिन थे, शायद दिसम्बर का प्रथम पक्ष रहा होगा। हमारी कक्षाएं बाहर धूप में लगती थीं। हम सभी छात्र-छात्राएं बैठे बतिया रहे थे, क्योंकि हमारे शिक्षक अभी पढ़ाने पहुंचे नहीं थे। लड़कियां एक छोर पर अपनी गप्पें हाँक रही थीं और दूसरी ओर लड़कों की बातें चल रही थीं।

एक लड़के ने पूछा, ‘‘अरे भीम! कल तुम कहां गये थे? स्कूल नहीं आये? भीम बोला, मैं बारात में गया था। खूब स्वादिष्ट भोजन किया, मिठाइयां, पूरी, कचौड़ी़…’’  उसने चटकारे लेकर वर्णन किया। दूसरे लड़के ने टीका की, ‘‘खाना तो खाया ही होगा, क्या दुल्हन को भी देखा या यूं ही बुद्घू लौट के घर को आया?’’ उसके कटाक्ष को सुनकर भीम को भी जोश आ गया। वह तेजी से बोला, ‘‘क्यों नहीं देखी दुल्हन, खूब देखी, जेवरों से लदी, सजी-धजी बिल्कुल इन्द्र की जैसी परी सब लड़के हंस रहे थे और हम लड़कियां सकुचाकर अपनी किताबों में नजर गड़ा रही थीं। भीम रुका नहीं, अपने वाक्य को पूरा करते हुए बोला,.. परन्तु राधा प्यारी से ज्यादा सुन्दर तो नहीं थी,’’ लड़के और जोर से हंस पड़े।

इस ‘प्यारी’ शब्द पर और मेरी सुन्दरता का उल्लेख करने पर मेरे सारे तन-बदन में मानो आग भड़क उठी। मैं अपनी जगह से उठी और सीधे भीम के पास गई, उसके चेहरे पर मैंने अपने मजबूत पंजे से कसकर दो थप्पड़ जड़ दिये। उसने अवाक् होकर अपना सिर पकड़ लिया। मैं रुकी नहीं, तमतमाये चेहरे और डबडबाई आंखों सहित मैं दौड़ी, सीढ़ियां चढ़ी और प्रधानाचार्य के कमरे में पहुंच गई। ‘‘उसने मुझे गाली दी, मैंने गुस्से से तमतमाते हुए कहा, प्रधानाचार्य कुछ देर हक्के-बक्के से रहे, तब बोले क्या गाली दी?’’

‘‘उसने मेरे लिए प्यारी शब्द क्यों कहा?’’ उसे मारिये, उसे सजा दीजिए मैं कहती गई। भीम को प्रधानाचार्य ने बुला लिया, यह भी स्वयं में एक सजा ही थी। लड़कों का आधा खून बुलाने पर ही सूख जाता था। प्रधानाचार्य जी ने उसे खूब डांटा, लड़कियों से बदतमीजी करता है, गाली देता है। शायद दो-चार बेंत भी उसकी कमर में लगाये हों। अन्त में कहा, मैं तुम्हारा रिस्टिकेशन कर देता हूं। उसको डांट और डंडे लग जाने से मेरी त्वरा कुछ धीमी पड़ गई होगी तो रिस्टिकेशन का शब्द सुनकर मैं चौंक पड़ी और कहने लगी, ‘‘नहीं, नहीं, रिस्टिकेशन मत कीजिए। केवल इसको डंडे लगाइये।’’ भीम का रिस्टिकेशन नहीं हुआ। वह प्रतिभावान व बुद्धिशाली था। उसने निश्चित ही एक अच्छा जीवन पाया होगा।
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हमारे उस काल में विद्यालय में आर्यसमाजी संस्कृति का प्रचलन भरपूर जीवित था। धीरे-धीरे वे परम्पराएं क्षीण हो गईं। आर्य समाज महिलाओं को शिक्षित, विदुषी के साथ-साथ आत्मनिर्भर और बहादुर भी बनाना चाहता था। अत: उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए लाठी चलाने के गुर भी सिखाता था। हमें भी कुछ समय तक लाठी चलाना सिखाया गया, परन्तु साड़ी या दुपट्टे का पल्ला सिर पर रखकर उसे सिर पर टिकाना और कूद कर लाठी भांजना एक साथ नहीं हो पाते थे। यह मुश्किल हमारे उस समय के प्रधानाचार्य ने समझी तो उन्होंने ठुड्डी के नीचे पल्लू में सेफ्टी पिन लगा दी तो भी कुछ समय के लिए सिर खुला रहे, यह उन्हें मंजूर न था। मुझे तो हर समय लगता था कि कुछ अदृश्य आंखें मुझे देख रही हैं कि सिर ढका है या नहीं। यह गांव-घर की महिलाओं के सिर ढकने जैसा सहज नहीं था तो भी मैं खुश थी कि आठवीं तक पढ़ने का एक मौका मिल गया था।

एक ओर ये शर्तें थीं, तो भी अपनी बन्दरवृत्ति को प्रमाणित करने हम अपनी शैतानियों को जैसे-तैसे अंजाम दे ही देती थीं। कभी-कभार मध्याह्न अवकाश में हम स्कूल परिसर से बाहर नदी के कछार में दाड़िम के जंगली पेड़ों तक पहुंच जातीं। इन पेड़ों पर जंगली दाड़िम के फल पके होते थे। कुछ फल तो पककर फट भी जाते थे। ऐसे फलों को पाने के लिए हम पेड़ की शाखाओं के कांटों की परवाह न करके भी पेड़ पर चढ़ती थीं। पेड़ की ऊंची शाखाओं तक चढ़ना मैं ही कर पाती थी। मेरी सहेलियां तो पेड़ की निचली शाखाओं में भी डरती-डरती ही चढ़ती थीं।

एक दिन मैं पेड़ की सबसे ऊंची टहनी पर चढ़ गई थी और वहां से सुन्दर लाल दानों वाले फट गये दाड़िम अपनी सहेलियों के दुपट्टों में फेंक रही थी। तभी मध्याह्न अवकाश के पूरे होने की घंटी बज गई। मैं तेजी से उतरने लगी तो पांव फिसला और मैं तो गिर ही गई परन्तु मेरी सलवार फटी और उसका मजबूत पहुंचा एक खूंटे पर अटक गया। मैं उल्टी लटक गई, पर हाथ तो मुक्त थे उनको इधर-उधर फेंककर मैं स्वयं ही सीधी भी हो गई और पेड़ से उतर भी गई। मेरी दाड़िम लोभी सहेलियां कब के भाग गई थीं। मैं दुपट्टे से सिर ढककर और फटी सलवार को छिपाते हुए अपनी कक्षा में जाकर अपनी जगह पर बैठ गई। किसी को पता नहीं लगा कि हमने क्या दुस्साहस किया था।
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पेड़ पर चढ़ने की एक और घटना है। विद्यालय से घर पहुंचने पर शाम को मैं और मेरी बहन कान्ति रोज ही बांज की पत्तियों का चारा काटने जाती थीं। उस दिन मुक्तेश्वर-रामगढ़-भवाली की पैदल सड़क से कुछ दूर हटकर एक पतले-लम्बे बांज वृक्ष पर चढ़कर मैं बांज काटने लगी थी, तभी अपने संध्या भ्रमण पर निकले हमारे कक्षा शिक्षक उस सड़क पर से गुजरे और उनकी नजर मेरे उस हिलोरें लेते हुए पेड़ पर पड़ी जिसकी ऊँची शाखा से मैं बांज की पत्तियां काट रही थी। उन्होंने रुककर देखा और मुझे पुकारा। पर मैं संकोच से गड़ गई। हाथ भी थम गये और बोलती भी। उन्होंने कहा, ‘‘हम सोचते हैं, तुम्हें पढ़ने-लिखने में होशियार हमने बनाया? पर पेड़ों में चढ़ने मेें इतना होशियार तुम्हें किसने बनाया?’’ वे चले गये, और पत्तियां समेटकर गट्ठर सिर पर उठाये हम भी घर को चली  गईं, पर दूसरे दिन व कई दिनों तक स्कूल में उन मास्साब के सामने जाने में मेरा संकोच बना रहा कि मैंने उनके पुकारने पर उनको उत्तर नहीं दिया था।

एक कटु स्मृति भी है, उस विद्यालयी जीवन की। मुझे याद नहीं कि स्कूल या आते-जाते किसी लड़के ने मुझसे कभी कोई छेड़-छाड़ की होगी, केवल याद आती है प्रायमरी पाठशाला पढ़ते समय की एक घटना। मैं तब तीसरी कक्षा में पढ़ती हूंगी और वह सब विद्यार्थियों से कई वर्ष बड़ा एक लड़का चौथी कक्षा में पढ़ता था। उसने एक बार अश्लील हरकत करके हम लड़कियों को इस कदर डरा दिया कि हम रोती हुई अपने-अपने घरों को भाग गईं थीं। पर हाईस्कूल में पढ़ते हुए यह सब कुछ तो न था पर न जाने कौन से लड़के चौक से पैदल मार्ग के किनारे के पत्थरों में हम लड़कियों के नाम लिख देते और हर लड़की के नाम के साथ किसी एक लड़के का नाम लिख देते। यह आम रास्ता था। पूरी रामगढ़ के लोग और हमारे परिवारजन भी इस रास्ते से आया-जाया करते। हमारे लिए यह बड़ी शर्म की बात होती थी। एक बार संकोच के साथ हमने अपने शिक्षक को शिकायत की तो शिक्षक ने प्रार्थना के बाद संक्षेप में हिदायत दी कि सड़कों पर कुछ न लिखा जाय, अन्यथा सजा मिलेगी? उन दिनों इतना कहने का भी असर होता था। उन अनाम छात्रों पर भी असर पड़ा।
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श्री नारायण स्वामी हाईस्कूल में विश्वेश्वर प्रसाद ही हमारे विद्यालय के प्रधानाचार्य थे। दीक्षित जी का जाना अपने साथ वातावरण की वह विशिष्टता भी ले जा चुका था। प्रसाद जी भी प्रमेल व्यक्ति थे परन्तु रौब-दाब वाले न थे। मुझे याद है कि उनके कार्यकाल में एक बार छात्रों ने हड़ताल कर दी थी। कारण क्या था, आज तो मुझे याद नहीं है। हमारी हड़ताल का नेता 10वीं कक्षा का एक मुखर व तेज-तर्रार छात्र प्रताप सिंह था। हम कुछ अवसरों पर एक साथ वाक् प्रतियोगिताओं में भाग लेने विभिन्न स्थानों पर गये थे। तभी हम लड़कियों ने उनको प्रताप भय्या कहकर पुकारना प्रारम्भ कर दिया। वे अपने भावी राजनीतिक जीवन में भी प्रताप भइया के नाम से ही प्रसिद्घ हुए। वे एक समय उत्तर प्रदेश सरकार की विधानसभा में स्वास्थ्य मंत्री भी रहे थे।

प्रताप भइया और उनके समूह की आवाज पर सभी लड़के अपनी कक्षाओं के कक्षों से बाहर निकल आये। प्रधानाचार्य अपने कार्यालय के बाहर ऊपरी मंजिल के बरामदे से पुकारते रहे, ‘‘अरे ये बंदर कहां जा रहे हैं?’’ वे बालकों को बन्दर कहते थे और बालिकाओं को बिल्ली। हमारी कक्षाओं से एक-एक छात्र बाहर निकल आये तो हम लड़कियां भी बाहर निकल पड़ीं और थोड़ा एक दूसरे से खुसफुसा कर लड़कों के पीछे ही चल दीं। अब तो प्रधानाचार्य जी और भी परेशान हो गये और बोले, ‘‘कोई इन बिल्लियों को रोको। ये वहां क्यों जा रही हैं? इन्हें रोको।’’

पर हमें न किसी ने रोका, न हम स्वयं ही रुकीं। हम सब माने सारा स्कूल नदी के पार खाली पड़े खेतों में चला गया। बाकायदा कक्षाएं लग गईं। हम कुछ लड़के व लड़कियों को पढ़ाने के लिए चयनित कर लिया गया। मैं भी पढ़ाने वालों में एक थी। मध्याह्न अवकाश तक पढ़ाई की गई। उसके बाद छुट्टी कर दी गई और सब छात्र-छात्राएं अपने घरों को चले गये। मुझे याद नहीं कि हड़ताल दूसरे रोज भी चालू रही हो। शायद नेता छात्रों के साथ समझौता हो गया हो।

इस विद्यालयी जीवन में सबसे दुखद क्षण था, जब हमें जानकारी दी गई कि हम आगे से अगली कक्षा में पढ़ने इस विद्यालय में नहीं आ सकतीं। मेरे हाथों में आठवीं के परीक्षा परिणाम की अंक तालिका थी। प्रथम श्रेणी के अंक थे। अपनी कक्षा में प्रथम स्थान था और उसके ऊपर रिमार्क दिया था, ‘‘होनहार बालिका (A promising girl) मेरा हृदय उत्साह से छलक रहा था। पर इस सब को एक किनारे रखकर मैं आगे क्या होगा, की चिन्ता में पड़ गई। इस प्रतिभा और विशेष योग्यता को आगे अवसर देने को न विद्यालय का प्रबन्धन तैयार था, न ही परिवार। एक दिन आया जब उस विद्यालय के जीवन में से हम सभी लड़कियां बिना किसी हलचल के चुपचाप गुम हो गईं। इस ओर शायद ही किसी का ध्यान गया हो कि एक दिन तेजस्वी विद्यार्थी समूह उस विद्यालय में आने से रोक दिया गया।’’
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वे दिन मेरे लिए कठिन ही नहीं, अत्यन्त कठिन थे। मैं सुनती थी मेरी सहपाठियों को आगे की शिक्षा प्राप्त करने नैनीताल के कन्या छात्रावास में अथवा किसी रिश्तेदार के पास भेज दिया गया है। पर मैं कहीं भी नहीं जा सकती थी। एक घुटन थी, एक रिक्तता भरा ठहराव था जो असह्य होता जा रहा था। इसी छटपटाहट में मैं महादेवी वर्मा के पास निवेदन करने गई थी, जिसका उल्लेख मैंने पिछले अध्याय में किया है।

बाद में एक वर्ष में विद्या विनोदिनी एडवान्स अंग्रेजी भाषा से पास होने पर मैंने एक वर्ष में दो कक्षाएं लांघ ली थीं और एक बार पुन: उसी विद्यालय की 11 वीं कक्षा में प्रविष्ट होने का अवसर पा लिया था। अब मैं एक कक्षा आगे के छात्रों व छात्राओं के साथ बैठती थी। लगा, जैसे मुझे फिर से नवजीवन ही मिल गया था। सौभाग्य छ: माह से अधिक नहीं टिका, एक दिन उसी तरह मैं पुन: विद्यालय के उन सैकड़ों छात्र-छात्राओं के समूह में गुम हो गई, जैसे आठवीं के बाद हुई थी। मेरे विद्यालयी जीवन की सम्पूर्ण इतिश्री मेरी उम्र के 16 वर्ष 3 माह में हो गई। अब जीवन को एक नयी अनजानी राह पर चलना था। यह नई राह भले ही मैंने अपने आग्रह और पसन्दगी के साथ प्राप्त की थी किन्तु उच्च शिक्षा न पा सकने की एक कसक तो उस समय रह ही गई थी। बाद में मैंने उच्च शिक्षा के उस अभाव को वरदान माना और नई राह तो मानो मेरे लिए ईजा-बाबूजी का अशीर्वाद ही साबित हुई।
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क्रमश: …

-राधा भट्ट, लक्ष्मी आश्रम, कौसानी

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