झुग्गियों से निकलकर बनी वैज्ञानिक
-शालिनी आर्या
जानवरों के उद्विकास पर लिखी पुस्तक कांख में दबाए मैं सीढ़ी चढ़कर अपनी झुग्गी की छत पर चली आई। तब मैं केवल 10 साल की थी और मैंने थोड़ी देर पहले ही पूरे परिवार के लिए खाना तैयार किया था। यह काम मेरी रोज की जिम्मेदारियों में एक था। अपनी छत से मैं झुग्गी बस्ती को देखा करती थी, महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर की झुग्गी में मैं रहती थी। लेकिन छत पर आने का कारण यह नजारा बिलकुल नहीं था। दरअसल हमारे घर में बिजली नहीं थी, इसलिए मुझे पढ़ने के लिए सूरज की रोशनी में आना पड़ता था। तब मुझे पता नहीं था लेकिन पढ़ाई की उस दिनचर्या ने मेरे वैज्ञानिक बनने की राह तैयार की थी। (Scientist Shalini Arya emerged out of slums)
मेरे पिता मजदूरी करते थे और शुरू में मुझे स्कूल भेजने के पक्ष में नहीं थे। हम पांच भाई-बहन थे। मुझे अपने भाई से जलन होती थी, जब रोज सुबह वह स्कूल के लिए निकलता था। शायद इसीलिए एक दिन, जब मैं महज 5 साल की थी, उसके पीछे-पीछे स्कूल पहुंच गयी और टीचर की मेज के नीचे छुप गयी। उन्होंने मुझे देख लिया, मुझसे बात की और दुलार के साथ घर भेज दिया। लेकिन अगले ही दिन उन्होंने मेरे पिता को बुलाया और कहा कि बेटी को स्कूल भेजना चाहिए। मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा जब पिता जी मुझे स्कूल भेजने के लिए राजी हो गए।
सीखने के लिए मेरे मन में जैसे एक जुनून था और भूख की वेदना के बावजूद मैं लगभग हमेशा स्कूल पहुंच जाती थी। जल्दी ही मैं अपनी कक्षा में अव्वल आने लगी। जब मैं 10 साल की हुई तो पिता जी ने मुझे घर से दूर अच्छे कहे जाने वाले स्कूल में डाल दिया। मैं करीब 10 किमी. पैदल चलकर स्कूल पहुंचती थी। इस स्कूल में ज्यादातर संपन्न परिवारों के बच्चे आते थे। मैं यहां भी अपनी कक्षा में अव्वल आने लगी। लेकिन मेरे झुग्गी बस्ती वाली होने के कारण सहपाठी मुझसे अच्छा व्यवहार नहीं करते थे। छोटे कद के कारण जीवविज्ञान की प्रयोगशाला में भी मेरा मजाक उड़ता था क्योंकि माइक्रोस्कोप तक पहुंचने के लिए मुझे स्टूल में खड़ा होना पड़ता था। मेरा खयाल है कि बचपन में कुपोषण के कारण मेरा कद पूरा नहीं बढ़ पाया था।
हाईस्कूल के बाद मैंने सोचा था कि मैं एक इंजीनियर बनूंगी। लेकिन पिता जी मुझे विश्वविद्यालय भेजने के लिए उतावले थे। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं इंजीनियरिंग नहीं पढ़ सकती क्योंकि यह विषय लड़कों के लिए है। उनका विचार था कि मुझे इसके बजाय फूड साइंस पढ़ना चाहिए। तब फूड साइंस मेरी पसंद के विषयों में आखिरी स्थान पर था। बचपन से मुझे पूरे परिवार के लिए खाना बनाना पड़ा था, इसलिए खाना बनाने से ज्यादा नफरत मैं किसी और चीज से नहीं कर सकती थी।
आखिरकार मुझे फूड साइंस में ही दाखिला लेना पड़ा और बहुत जल्द मैंने जान लिया कि यह विषय उतना भी बुरा नहीं है। यह वास्तविक विज्ञान है- ऐसी चीज जो रसायन विज्ञान के करीब है- जिसमें किसी अवधारणा की परीक्षा और प्रयोग होते हैं। जल्दी ही मैं इसकी दीवानी हो गई।
यूनिवर्सिटी में पढ़ने के दौरान मैं कैम्पस के पास एक हॉस्टल में रहती थी। कॉलेज की फीस व रहने-खाने का खर्च मुझे अपने स्टूडेंट लोन और रिसर्च असिस्टेंट की अंशकालिक नौकरी से भरना पड़ता था। अब मेरे कमरे में बिजली थी और मैं हर रात धन्यवाद देती थी कि पढ़ने के लिए अब मेरे पास रोशनी है- यह एक सबक था कि किसी चीज को हल्के में नहीं लेना चाहिए।
आने वाले वर्षों में मैंने मुंबई के इंस्टीटयूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी से फूड इन्जीनियरिंग में पीएच.डी.की डिग्री हासिल की और यहीं मुझे फैकल्टी में जगह मिल गयी। यह एक ऐसा पड़ाव था जो मेरे बचपन की झुग्गी से बहुत दूर था। लेकिन जल्दी ही मैं एक साझेदारी के जरिये अपनी जड़ों तक वापस पहुंच सकी। मैंने एक कम्पनी के साथ काम करना शुरू किया जो भारत की झुग्गियों में व्याप्त कुपोषण को खत्म करना चाहती थी। जब कम्पनी के प्रतिनिधि पहली बार मुझसे मिलने आए तो उन्होंने कहा, आपको इस काम के सिलसिले में झुग्गियों तक जाना पड़ेगा और वहां लोगों से बात करनी पड़ेगी। वह सोच रहे थे कि मैंने पहले ऐसा काम नहीं किया होगा। मैंने जवाब दिया, इसमें क्या समस्या है! मैं झुग्गियों में ही पली-बढ़ी हूं।
कंपनी की साझेदारी में किए गए इस काम के तहत मैंने भारत की उस परम्परागत चपाती के घटकों में फेरबदल किए, जिसे मैं बचपन से बनाती आई थी। मैंने महसूस किया कि गरीब लोगों की खुराक को और पोषक बनाने का सबसे अच्छा उपाय हो सकता है। क्योंकि गरीब से गरीब आदमी भी रोटी खाता है। मैंने कई घटकों पर प्रयोग किए और अंतत: ऐसे विकल्प पर पहुंची जिसमें मैंने गेहूं की जगह स्थानीय सस्ते किन्तु ज्यादा खनिज, प्रोटीन और रेशों वाले अनाज का इस्तेमाल किया था।
जब मैंने चपातियों पर काम करना शुरू किया तो दूसरे शोधकर्ता मेरा मजाक उड़ाते थे क्योंकि उनके मुताबिक इस शोध में विज्ञान या नवोन्मेष जैसा कुछ नहीं है। लेकिन मैंने अंतत: उन्हें गलत साबित किया। मेरे काम को अनेक राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया और कई कम्पनियों, गैर-सरकारी संस्थाओं और सरकारी विभागों में मेरी विशेषज्ञता की मांग बढ़ने लगी।
अपने जीवन में मैंने गरीबी, भूख और भेदभाव का सामना किया लेकिन मैंने अपने कदम पीछे नहीं जाने दिए। मैं बाधाओं को पार करती रही और उनसे सीख लेकर आगे बढ़ती रही। मुझे उम्मीद है कि मेरी कहानी से दूसरे लोग प्रेरणा ले सकते हैं और महसूस कर सकते हैं कि मुश्किल से मुश्किल चुनौतियों के बावजूद वे भी मैदान में डटे रह सकते हैं।
(शालिनी आर्या मुंबई के इंस्टीटयूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और ग्लोबल यंग एकेडमी की एक्जेक्युटिव कमिटी की सदस्य हैं, इस लेख का अनुवाद आशुतोष उपाध्याय ने https://www.scienceZag.org से साभार किया है)
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