आधुनिकता : कहानी

चन्द्रकला
सुचि और साहिल वर्तमान भागती-दौड़ती दुनिया में आधुनिक पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। जहाँ शुचि जरूरत से ज्यादा संवेदनशील है, वहीं, साहिल जो समय मिला उसको बिना किसी टेंशन के भरपूर जी लेने और अपने तक ही सीमित रहने वाला है। दोनों ही निजी कम्पनी के मुलाजिम हैं।….. साहिल छुट्टी के दिन कहीं निकलना पसंद नहीं करता और फिर जब से रिया उनके जीवन में आयी है, तब से तो वह उसके लिए समय निकालने की जुगत में लगा रहता है। वैसे भी ऑफिस के कामों से समय इतना कम मिल पाता है कि लगता है जो दिन छुट्टी मिले उसे अच्छे से बिता लिया जाय। यही कारण छुट्टी के दिन घर पर बाप-बेटी की धमा-चौकड़ी से शोर मचा रहता है। लेकिन शुचि के लिए तो इस दिन घर और बाहर के कितने काम इन्तजार कर रहे होते हैं। काम वाली बाई कितना भी घर सम्हालने वाली हो, साथ में लगना ही पड़ता है।
बचपन से ही अपने आसपास के माहौल के प्रति संवेदनशील होने के साथ ही शुचि स्वावलम्बी व स्वतंत्र जीवन जीने की तमन्ना रखती थी। पिता मामूली क्लर्क थे, तीन भाई-बहनों में वह बीच की थी। दीदी की शादी जल्द कर दी गई थी लेकिन उसके वैवाहिक जीवन की तकलीफों को देखकर उसने तभी तय कर लिया था कि जितना जल्दी हो सके उसे, आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना चाहिए। पिता ने उसकी जिद के आगे झुक कर किसी तरह उसको एम.बी.ए. तो करवा दिया था लेकिन भाई के भविष्य और उसकी शादी को लेकर चिन्ता पिता के माथे की लकीरों में और माँ की आँखों में साफ दिखाई देती थी। लेकिन अभावों व कष्टों को झेलते हुए उसने अपनी नौकरी हासिल कर ली थी तो उनको थोड़ा सकून मिला था।
(Story Adhunikta by Chandrakala)
कम्पनी की एक कान्फ्रेन्स के दौरान साहिल से उसकी मुलाकात हुई थी। उसकी बेबाक टिप्पणियों व आत्मविश्वास को देखकर साहिल प्रभावित हुआ था और उसने दोस्ती का प्रस्ताव दे डाला। शुचि ने भी ना नहीं की और यहीं से दोनों की नजदीकियां बढ़ने लगी थीं। साहिल को प्रमोशन मिलने वाला था इसलिए वह शादी की जल्दबाजी में नहीं था लेकिन शुचि के परिवार के दबाव को देखकर उन्होंने साथ रहने का फैसला कर लिया था। शादी के दूसरे दिन ही तो वे घूमने निकल गये थे, मात्र पन्द्रह दिन की ही स्वीकृत हुई छुट्टी में भी दोनों के दिमाग में कम्पनी का टारगेट ही हावी रहा था। हनीमून से लौटकर दोनों गृहस्थी को बसाने के साथ ही अपने कम्पनी के कामों में व्यस्त हो गए। अधिक से अधिक काम करना ही प्राथमिकता बन गई थी। फिर निजी कम्पनी का क्या भरोसा? कब निकाल दिया जाय या निकलने को मजबूर होना पड़े। यह दोनों जानते थे कि यहाँ पर तभी तक टिके रहा जा सकता है जब तक आप में ऊर्जा मौजूद है। महीने का कुछ समय ही होता जब दोनों ही मुक्त होकर आपस में समय बिता पाते। आज भी स्थितियाँ बहुत ज्यादा नहीं बदलीं। साहिल का अधिक समय कम्पनी टूअर में ही बीतता है तो शुचि के पास भी कम जिम्मेदारियां नहीं हैं कम्पनी की। लेकिन दोनों आपसी सामंजस्य बनाकर समय साथ गुजारने और रिया को सम्हालने के लिए किसी तरह समय निकाल ही लेते हैं। फिर निजी कम्पनी में स्वयं को टिकाए रखने के लिए तो जरूरी होता ही है काम! सिर्फ काम! ज्यादा छुट्टी लेने और अपने निजी जीवन में ज्यादा समय देने का मतलब होता है प्रतिस्पद्र्घा में पिछड़ जाना। अब तो शुचि का रोज का रूटीन ही है सुबह से शाम तक ऑफिस की थकान के साथ घर आना, रमा बाई का बनाया खाना गरम करके खाना और सो जाना। रमा ने ही तो उनका पूरा घर सम्हाला हुआ है।
आज रविवार का दिन है। शुचि ने पहले ही तय कर लिया था कि आज वह अपने कुछ बाहरी कामों को निपटायेगी जिसमें सबसे जरूरी बीमार शालिनी आन्टी से मिलना था। सुबह वह रिया व साहिल के साथ नाश्ता करने के बाद रमा बाई को दोपहर में साहिल की पसन्द का खाना बनाने की हिदायत देकर जल्दी ही घर से निकल गई।
शालिनी आन्टी कई दिनों से बीमार हैं, उनके पति कई वर्ष पहले गुजर गए। दोनों लड़के विदेश में बस गये हैं, एक लड़की है पर वह ससुराल में इतनी व्यस्त है कि माँ के लिए कुछ कर पाने का सोचती भी नहीं है। लड़के भारत आना नहीं चाहते और आन्टी भारत छोड़कर जाना नहीं चाहतीं, इसलिए वह सालों से अकेले ही जी रही हैं। हालांकि बच्चों ने उनके आरामदायक जीवन की पर्याप्त व्यवस्था की है लेकिन इस उम्र में जिस भावनात्मक साथ की आवश्यकता उनको है, वह देने वाला कोई नहीं है। शालिनी आन्टी पति के जिन्दा रहने तक सभी की मदद करती रहती थीं तो लोगों का भी उनके घर पर आना-जाना लगा रहता था। लेकिन उनके जाने के बाद और अब बुढ़ापे में वह बेहद अकेली हो गईं हैं। आज उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। शुचि और साहिल जब शहर में आये थे, तब उनके घर पर ही किराये में रहे। कितना कुछ सिखाया था आन्टी ने उनको इस शहर को समझने के लिए। अपने फ्लैट में जाने के बाद तो आन्टी के पास आना कम ही हो गया था। ऑफिस के बाद इतनी ऊर्जा बच ही नहीं पाती कि कहीं जाया जाय। फिर इतने काम सामने होते हैं कि दूसरों के लिए सोचने का वक्त ही कम मिल पाता है। आज भी बड़ी मुश्किल से ही समय निकाल पायी थी वह।
(Story Adhunikta by Chandrakala)
शुचि को देखकर शालिनी आन्टी बहुत खुश हुईं थीं। कुछ देर सुख-दुख की बातें करके शुचि ने जाने की इजाज़त मांगी। हालांकि आन्टी की आँखें उसको रोकना चाह रही थीं लेकिन वह आन्टी की स्थिति देखकर और दुखी नहीं होना चाहती थी। वह समझ रही थी कि अब आन्टी की हालत खराब ही होती जानी है लेकिन अभी तक कोई बच्चा उनके पास नहीं पहुँचा था फिर कभी आने का वादा करके उसने आन्टी से विदा ली और बाहर निकल कर ऑटो ले लिया। वहाँ से निकलकर उसने बाजार में सामान लाने के लिए अनावश्यक भटकने से बेहतर सीधे मॉल में जाने का फैसला कर लिया। वह कुछ समय एकान्त चाहती थी। शापिंग मॉल के भीतर आकर वह सुकून महसूस कर रही थी। बाहर की तेज गर्मी के बरक्स उसको मॉल का वतानुकूलित वातावरण भला लग रहा था। आज कई दिन बाद वह छुट्टी के दिन घर से बाहर निकल पाई थी। ऑफिस और घर को समेटने में इतना समय ही नहीं बचता कि कुछ और सोचा जाय। शारीरिक- मानसिक थकान के तिरोहण की ख्वाहिश में ही औरत की पूरी जिन्दगी गुजर जाती है।
लिफ्ट लेने के बजाय उसने सीढ़ियों से ही तृतीय तल में जाने का फैसला किया जहाँ से उसको अपनी जरूरत का सामान खरीदना था। चलते-चलते शुचि का ध्यान शीशे के भीतर मौजूद डमी पर गया। वहाँ एक नहीं कई परिधानों और विभिन्न रंग-रूप और कद-काठी की डमी सजी हुईं थीं। शीशे के भीतर जीवन्त-सी दिखती ये डमी न केवल ग्राहकों का मुआयना करती हैं बल्कि उनको आकर्षित करने की कला भी होती है इनके पास। आज छुट्टी का दिन होने के कारण भीड़ भी बहुत थी। शुचि सामान खरीद कर घर जाने के बजाय कॉफी लेकर कोने वाली बैंच में बैठ गई थी। मॉल के भीतर ही पूरी दुनिया सिमटती मालूम पड़ रही थी। कहीं ट्रेड फेयर लगा हुआ था तो कहीं ग्रुप में कुछ लोग करतब दिखा रहे थे। एक ओर गीत- संगीत चल रहा था तो दूसरी ओर पार्टी चल रही थी, कई लोग आँखें गड़ाये टी़ वी. पर मैच देख रहे थे। मॉल की हर मंजिल पर अधिकांश काउन्टरों में खरीदार बिखरे हुए थे। विभिन्न कम्पनियों के सामान व उनको बेचने वाले विज्ञापनों की भरमार थी। कहीं सेल तो कहीं एक के साथ एक फ्री, कहीं डिस्काउन्ट के बोर्ड लगे हुए थे तो कहीं कम्पनी के ब्रांड से ही ग्राहक आकर्षित हो रहे थे। शुचि सोच रही थी कि प्रत्येक बाजार की तो यही स्थिति है, जरूरी वस्तुओं के दाम निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं जबकि गैर जरूरी वस्तुओं से बाजार भरता जा रहा है।
वह उठकर चलती जा रही थी और उसके दिमाग में विचारों की गडमड हावी होने लगी। वह अपने कस्बे के बाजार में पहुँच गयी जहाँ कभी अपनी दीदी और कभी सहेलियों के साथ जाती थी। वह देख रही है वहाँ हर जरूरत का सामान मौजूद है, दुकानदार बड़ी आत्मीयता से उन्हें दुकान में बिठा कर घर का हाल-चाल पूछते हुए उनके अनुसार सामान निकालता जा रहा है। सामान लेने के बाद मन को झूठी ही सही, तसल्ली हो गयी कि कम दाम में अच्छा माल मिल गया है। दुकानदार नकद का तकादा भी नहीं करता और उधार भी देने को तैयार है कि बिटिया पैसा तो आ ही जाएगा़.़। वह न जाने कितने समय तक अपने अतीत में खोई रहती यदि टी़ वी़ पर मैच देख रहे कुछ लोग किसी खिलाड़ी के छक्का लगाने पर चिल्ला न उठते। अचनाक शुचि का ध्यान भटका और उसकी चेतना लौटी तो खुद को एक ब्रान्डेड दुकान के भीतर पाया। उसके मोहल्ले की दुकान कहीं खो गयी थी। वह समझ नहीं पायी कि वह दुकान कहाँ गयी। वह रैक में सजे हुए सामान के पीछे भागती जा रही थी। शापिंग बैग उसके हाथ में झूल रहा था वह आगे बढ़ती जा रही थी। कुछ देर बाद उसका ध्यान भटका, इतना सारा सामान देख कर वह तय नहीं कर पायी कि आधुनिक वेशभूषा में स्मार्ट चुस्त-दुरुस्त सैल्स ब्वॉय उसके सामने आ खड़ा हुआ। वह बोले जा रहा था…. मैडम कुछ तो सामान लीजिए, हम 12 घन्टे से भी ज्यादा यूं ही थोड़ी खड़े रहते हैं…. सामान बेचना ही तो हमारा काम है। हम इन्सान तो हैं नहीं, ग्राहकों से या फिर बॉस से अपमानित होना तो हमारी नियति है। कुछ भी हो, हमें तो मुस्कुराते हुए सर-मैडम कहते हुए अपने उत्पादों की खूबियों पर धारा प्रवाह बोलना होता है क्योंकि हमारी नौकरी बने रहने की यही शर्त होती है। यह सुनकर वह कुछ परेशान हो गयी उसको लगने लगा कि उसके काम की शर्त भी तो यही है। तभी तक कम्पनी में बने रह सकते हैं जब तक मालिक अथवा बॉस को खुश रखने के लिए अपने टारगेट पूरे कर सकें।
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शुचि उस दुकान से बिना कुछ सामान लिए बाहर आ गयी, कितनी दुकानों में गयी, यह भी याद नहीं। आखिर वह शीशे की खिड़की के पास आ गई जिसके पार बाहर का नजारा दिख रहा था। चारों ओर बड़ी-बड़ी इमारतों के अलावा कुछ भी नहीं था। उसको याद आ रहा था कि जब वह शालिनी आन्टी के घर से अपार्टमैन्ट में आए थे तो वहाँ पर आस-पास दूर तक कुछ झुग्गी, झोपडियों के बीच हरियाली दिखाई देती थी। वह बालकनी में आकर कई बार सुबह-शाम को इस ओर देखती थी तो मन को सुकून मिलता था। मिट्टी में खेलते बच्चे, पानी व अन्य दिक्कतों के लिए बाहर बैठकर आपस में लड़ती या बतियाती महिलाएं, शराब के नशे में झूमते व जोर-जोर से हल्ला मचाते या गाली-गलौज करते पुरुष, दुकानों या फड़ों के इर्द-गिर्द काम से वापस आए मजदूर व अन्य मेहनतकशों की भीड़ में वह पाती कि कष्टों व अभावों के बीच जीवन को जी लेने का सलीका है यहाँ पर। उसकी तुलना में शुचि को अपने अपार्टमैन्ट का जीवन बनावटी व उबाऊ लगता, जहाँ किसी का किसी से कोई वास्ता नहीं था।
शुचि के देखते-देखते ही तो यह सब धीरे-धीरे उजड़ गया था। वह अक्सर सोचती कि मेहनत-मजदूरी करके किसी तरह खपरैल के घरों, टाट-पटिट्यों व झोपड़ियों में जीवन गुजारने वाले इतने सारे परिवार कहाँ चले गये। भविष्य का सपना मन में सजाए, भूखे या आधे पेट गुल्ली डंडा खेलते, टूटी लकड़ी के बैट और प्लास्टिक की बॉल से चौक्का-छक्का लगाने वाले वे बच्चे जाने किस दुनिया में खो गए। बुलडोजर व आधुनिक मशीनों ने जिस निर्दयता से जीवन के अवशेषों को नष्ट किया था, वह मंजर आज भी नहीं भूल पाती है वह!
कैसे-कैसे बदलता गया था सबकुछ! देश के कोने-कोने से जत्थे के जत्थे मजदूर पहुँचने लगे थे यहाँ। गर्मी की तीव्रता व सर्दी की कठोरता को सहते हुए उनकी यह आमद काले प्लास्टिक के खोलों में बस जाती और कई मंजिला इमारतों का निर्माण कर कस्बे को आधुनिक शहर में बनाने में लग जाती। कुछ बीमारी की भेंट चढ़ जाते तो कुछ इमारतों को बनाते हुए गिर कर या दब कर मर जाते। चुपचाप बिना किसी हो-हल्ले के पुन: नई खेप आ जाती। ठेकेदार की गिनती पूरी हो जाती और काम चलता रहता। एक बार इमारत बनकर पूरी हो जाती तो इसके बाद वे मजदूर वहाँ नहीं रह पाते और अपनी जिन्दगी समेट कर फिर नई जगह को आबाद करने चल पडते और पुरानी इमारत की तरफ आँख उठाकर देखना उनके लिए अपराध बन जाता।
(Story Adhunikta by Chandrakala)
शुचि अभी जिस इमारत में बैठी है, इसको बने हुए भी तो अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है। कुछ दिन पहले की ही तो बात है जब शुचि और साहिल रिया के दादा-दादी के पास गए थे। पन्द्रह दिन बाद वापस आये तो देखा कि उनके अपार्टमैन्ट से कुछ ही दूरी पर जो नई बहुमंजिला इमारत बनी थी, उसमें शापिंग मॉल खुल चुका था। इस मॉल को देखते ही शुचि ने साहिल से कह दिया था….. देखना, अब हमारे आसपास के इक्के-दुक्के दुकानदार भी जल्द ही अपनी दुकान समेटने को मजबूर होंगे और इसके साथ ही हमारे इलाके का माहौल भी बदल जायेगा़…. साहिल इन बातों में ज्यादा ध्यान नहीं देता था, उसका मानना था कि सामान कही से भी खरीदें, पैसा तो हर जगह देना ही होता है। शुचि की आशंका सही निकली थी, धीर-धीरे महिलाएं, युवक-युवतियां मॉल संस्कृति से प्रभावित होने लगे। जब भी खाली समय होता, मॉल में ही अपना समय व्यतीत करते। गर्मी में ठण्डक का और सर्दी में गर्मी का एहसास कराती यह जगह बड़ी जालिम है। आधुनिक बनाने के सारे साधन- प्रसाधन व तौर-तरीकों से लाभ लेते हुए सभी का जीवनस्तर बढ़ता हुआ दिखने लगता है। शुचि के घर में ही नहीं, बल्कि पड़ोसियों के घरों में भी विज्ञापनों वाले सामानों ने खामोशी से अपनी जगह बनानी शुरू कर दी। पुरानी वस्तुएं जाने कब बाहर साईकिल में चक्कर लगाते कबाड़ी की आय का साधन बनने लगी, किसी को गुमान ही नहीं हुआ। प्रेम के लिए एकान्त ढूँढने वाले जोड़े भी शहर के पार्कों की बन्दिशों को ठुकराकर मॉल के अन्दर ज्यादा कम्फर्ट महसूस करने लगे।
अभी शुचि अपने विचारों के भंवर में घिरी थी कि उसको सामने से उसकी पुरानी सहेली गीता आती दिखी। वह इसी शहर में किसी बड़े बिजनेस मैन को ब्याही थी, दो बच्चों की माँ गीता ने नौकरी छोड़ दी थी और अधिकांश समय पति और बच्चों की देख-रेख में ही लगा दिया था। उसके पति का मानना था कि उनके पास दौलत की कमी नहीं, फिर औरतों को पैसा कमाने के बजाय घर को सम्हालना चाहिए। गीता की भी अपने पति की इच्छा पर सहमति थी। शुचि को वहाँ पाकर वह आत्मीयता से गले मिलते हुए बोली थी ‘‘आज तुमने कैसे समय निकाल लिया, तुम तो हमेशा अपने और पराये कामों में घिरी रहती हो और एक हमें देखो, सब जिम्मेदारियों से मुक्त!’’ शुचि को गीता का इस तरह बोलना थोड़ा अटपटा लगा लेकिन वह कुछ बोली नहीं। गीता का हाल-चाल पूछते हुए दोनों रैस्टोरेन्ट की कुर्सियों में आ बैठीं। दो कॉफी का आर्डर करके जैसे ही शुचि गीता की ओर मुखातिब हुई तो उसने देखा उसकी आँखों में आंसू थे। इससे पहले कि शुचि उससे कुछ पूछती उसने स्वयं ही बताया कि सामने वाले हिस्से में जो लड़के-लड़कियों की पार्टी चल रही है उसमें उसकी बेटी भी मौजूद है। लेकिन उसको माँ से कुछ लेना-देना नहीं है। वह रोते हुए यह भी बताने लगी कि लड़का तो पिता की ही बात नहीं मानता, उसकी तो बात ही क्या है। गीता के पति का बिजनेस इतना ज्यादा फैला हुआ है कि वह कभी घर आते भी हैं तो परिवार को समय नहीं दे पाते हैं। बच्चों से नहीं मिले तो महीनों हो जाते हैं। गीता कभी उलाहना करती भी है तो यही कह देते हैं कि घर में क्या कमी है और काम नहीं करेंगे तो खर्चे कैसे चलेंगे। गीता ने शुचि से यही कहा़…. ज़ानती हो जिस पति और बच्चों की खातिर मैंने अपनी दुनिया समेट ली थी, आज उनमें ही मेरे लिए कोई भावना नहीं है। जब घर वालों को ही मेरे लिए फुर्सत नहीं है तो बाहर किसी से क्या उम्मीद की जा सकती है। पुरानी सभी सहेलियां अपनी नौकरी या घर-गृहस्थी में व्यस्त हैं जैसे कि तुम। आगे उसने जो कहा उस पर शुचि को विश्वास ही नहीं हुआ कि कैसे वह अपना जीवन बिताने लगी है। कृष्णनाथ की लेखनी में जो चीज मुझे हमेशा से प्रभावित करती रही है, वह है हमारे तीर्थ स्थानों का हमारी तात्कालिक स्मृति में पुरस्र्थापन। यदि कृष्णनाथ ने वे यात्रा वृत्तांत ना लिखे होते तो न हमें पंडरपुर के बारे में पता चलता, न चित्रकूट के, न यह कि यमुना के साथ सम्वाद में उन्होंंने क्या कहा- सह यात्री यात्रा के दौरान स्वयं से बातें करते हैं, लेकिन कृष्णनाथ कभी-कभी अपने समय से बातें करने लग जाते हैं। यमुना से उनका सम्वाद अनूठा है। काल को टूकर उससे पार जाता हुआ। हिमालय की यात्रा वाली पुस्तकों में भी कई जगह ऐसा होता है। रास्ते में पत्थर आ गिरा है, उफनती नदी बह रही है, पानी में पेड़ के तने पर पांव रखकर पुल पार करना है, कृष्णनाथ बीच भंवर में लग गये हैं अपन से बातें करने! यह कैसा व्यक्ति है? कैसा मस्तिष्क? कौन सी सदियां पार कर यह आया है? इस मॉल में आना उसकी जरूरत हो गयी है, यहाँ आकर कुछ देर एक दुकान से दुसरी दुकान घूमती है कुछ खरीदारी करती है, कभी फिल्म देखती है और कभी यूं ही सामानों के बीच जीवन के अवशेष ढूँढती है और कुछ न मिले तो वापस चली जाती है। गीता बोले जा रही थी कि इस इमारत की चकाचौंध में सब भूल जाती है कुछ समय के लिए वह। शुचि उससे पूछना चाहती थी बहुत कुछ लेकिन गीता के हालात देखकर उसे लगा कि जबाव तो वह जानती है। वह बस, गीता को सुन रही थी शायद यही उसको तसल्ली देने का सही तरीका था़….
बहुत देर बाद जब शुचि का ध्यान घड़ी की तरफ गया तो रात के 8 बज चुके थे। माल के अन्दर तो रात-दिन का फर्क ही पता नहीं चलता कहते हुए उसने गीता से जाने की इजाजत मांगी और कभी छुट्टी के दिन घर आने का प्रस्ताव दे दिया। वह तेजी से सीढ़ियां उतरने लगी। उसको घबराहट-सी महसूस हो रही थी। गीता भी उसके साथ ही नीचे उतर आयी। शुचि के हाथ में पर्स के अलावा कुछ नहीं था। अब वह इस स्थिति में भी नहीं थी कि कुछ खरीदे। वह जल्द से जल्द इस रहस्यमयी इमारत से बाहर निकलना चाहती थी। बाहर आकर भी उसके दिमाग में भीतर की चकाचौंध हावी थी। बाहर निकलकर उसने वापस मॉल की तरफ देखा तो पाया कि गीता एक शोरूम की तरफ जा रही थी। घर पर कोई इन्तजार करने वाला न हो तो कितनी पीड़ा होती है, वह एहसास मात्र से सिहर गयी। उसने पास में खड़े रिक्शा को बुलाया और उस पर बैठ गयी। कोई और वक्त होता तो वह पैदल ही चल पड़ती लेकिन आज वह जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहती थी। दस मिनट में वह अपार्टमैन्ट के गेट पर पहुँच गई, उसने लगभग भागते हुए ही सीढ़ियां चढ़ीं, उसकी सांस फूल रही थी। ज्योंही बेल बजाई तो दरवाजा खुल गया। रिया और साहिल उसका इन्तजार कर रहे थे। रिया ने मां को खाली हाथ देखा तो उसका चेहरा रुंआसा-सा हो गया। साहिल शुचि का चेहरा देखकर समझ गया था कि वह कुछ परेशान है। उसने रिया को शुचि की गोद में दे दिया और सोफे में बैठने का इशारा किया, स्वयं पानी का गिलास लाकर शुचि को दिया और सामने बैठ गया़….।
(Story Adhunikta by Chandrakala)
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