तुम्हारा माँ होना- कहानी
अंकिता रासुरी
तुम सच में माँ जैसी नहीं थीं, बल्कि तुमने मुझे ही माँ बना लिया था। मैं अक्सर गुस्सा हो जाती कि तुमने अब तक खाना क्यों नहीं बनाया और फिर खुद ही घर के सारे काम करने लग जाती। इस तरह मुझे घर के सारे काम करने आ गए।
सारे घरों की तरह हमारे घर में सब कुछ सामान्य क्यों नहीं रहता, हमेशा यही सोचती। बच्चों के तौर पर हम भाई-बहनों को कभी गाँव के बाकी घरों वाला एहसास नहीं मिल पाया। बचपन के अधिकांश हिस्से की यादें तुम्हारी बीमारी की यादें बनकर रह गईं, या मार खाई हुई, चोट से रोती-झगड़ती माँ के तौर पर।
मैं अक्सर खौफ में रहती कि तुम किसी दिन इसी तरह से मर जाओगी और फिर अकेले में बहुत रोती। मैं सपने देखती कि मैं बारहवीं के बाद की भी पढाई कर रही हूँ और घर से बाहर किसी बड़े शहर में अकेली हूँ। तब मुझे ये बहुत मुश्किल लगता कि मैं बारहवीं के बाद पढ पाऊंगी। मैं अपनी सहेलियों को अपनी इच्छाएँ बताती तो कहतीं, देख लेना, 10वीं, 12वीं के बाद तेरा बुबा (पिता) तुझे अपने घर में थोड़ी रखेगा, तेरा ब्यो कर देगा देख लेना।
तुम्हारी स्थिति को देखते हुए मैंने तब से ही फैसला कर लिया था कि मैं खूब पढूंगी माँ, घर से बाहर निकलूंगी। अपने हिस्से की जिंदगी अपने तरीके से जिऊंगी। क्योंकि तुम्हारी जैसी जिंदगी मेरे लिए खौफ का सबब होती।
एक बेटी के तौर पर मैं तुमसे जितनी अधिक जुड़ी हुई थी, उतना ही तुमसे गुस्सा भी हो जाती। मैं अक्सर तुम्हें दोष देती कि औरों की माँएं यह करती हैं, वह करती हैं, तुमने वह सब क्यों नहीं किया। उस वक्त तुम मेरे लिए सिर्फ माँ थीं और माँ का मतलब ही होता है हमारे समाज में मर-खप जाना। लेकिन तुम उस तरह से नहीं हो पातीं थीं। तुम किसी भी अन्य माँ से ज्यादा भावुक थीं, शायद क्योंकि तुम जानती थीं कि तुम अन्य माँओं की तरह उतनी ज्यादा कामकाजी नहीं थीं।
माना जाता है कि पहाड़ी समाज में औरतें मजबूत स्थिति में रहती हैं। हालांकि यह बात कुछ हद तक सही भी है लेकिन पूरी तरह नहीं। हमारे पहाड़ी समाज में भी स्त्रियाँ भले ही कितनी कामकाजी हों फिर भी पुरुष के मुकाबले उनकी स्थिति दोयम दर्जे की ही है। उसे सारे काम करके भी पति की मार पड़ती ही है लेकिन तुम्हें तो खेती और जंगल के काम आते भी नहीं थे, तुम तो पूरे गाँव-घर वालों की नजरों में दोषी थी- इसके बिना कोई बैठे-बैठे कैसे खा सकता है।
हमारे समाज में स्त्रियों से सिर्फ काम करते रहने की ख्वाहिश की जाती रही है। बस वह बैल की तरह खुद को काम में झोंक दें और वह ऐसा करती भी हैं। एक गढवाली गाने को उदाहण के तौर पर लिया जा सकता है जिसे लोग गाते हैं-
जैका पल्यां गल्या बल्द रिङ्वा जन्यानि
तैक होयूं ईं दुन्या में रोणु सदानी
(Story by Ankita Rasuri)
जिसने इस दुनिया में आलसी बैल और फालतू घूमने वाली स्त्री को पाल रखा हो, उसके लिए इस दुनिया में सिर्फ रोना ही लिखा है।
वास्तव में सभी समाजों की स्त्रियों की अपनी-अपनी दिक्कतें हैं। ठेठ पहाड़ी समाज में अगर कोई स्त्री ये सारे काम नहीं कर पाती है तो उसकी कीमत इस समाज में ठीक उतनी ही है, जितनी किसी बेकार बैल की होती है। मुझे तुमसे हमेशा से यही शिकायत रही कि तुम्हें खेती के काम क्यों नहीं आते, तुम्हें गोल-गोल रोटियाँ बनानी क्यों नहीं आतीं। मेहमानों के आने पर तुम काम में लगी रहने के बजाय उनसे बातें करने क्यों बैठ जाती हो। इन तमाम शिकायतों के साथ तुम्हें घर-गाँव भर में इंसान ही नहीं समझा गया, कितनी जिलल्तें झेलनी पड़ीं।
कितना बुरा लगता था जब कोई पूछता, तेरी माँ लुल्ली (चीख-चीख कर रोना) क्यों मार रही थी, तू समझाती क्यों नहीं अपनी माँ को। इन सब में गाँव के औरत-मर्द सभी शामिल होते। मैं शर्म से पानी-पानी हो जाती, गुस्सा भी आता, कभी तुम पर- कभी लोगों पर और सबसे ज्यादा पिता पर लेकिन ये हमारी संस्कृति है जिसमें महिलाओं से हर हाल में चुप रहने की उम्मीद की जाती है, पति पर हाथ उठाना पाप समझा जाता है। जबकि पति का तो धर्म होता है पीटना। घर-परिवार बच्चों के नजरिए से चाहे जो मर्जी रहा हो तुम्हारा प्रतिरोध लेकिन बदले में तुम्हारा हाथ उठाना एक स्त्री के तौर पर बिल्कुल सही था माँ। कितनी बार तुम कहतीं, तुम्हारे लिए जी रही हूँ वरना मर जाती। हम बच्चे कितना बाँध देते हैं तुम्हें, मुझे इस बात का अफसोस है।
मैं आज भी अलग तरीके से सोचने की कोशिश करती हूँ। लेकिन आखिरकार उसी ढर्रे पर आकर सोच अटक जाती है। खाना भले ही मैं बनाऊँ लेकिन उम्मीद करती हूँ तू भी खाली न बैठी रहे क्योंकि तू एक माँ है लेकिन ये अजीब नहीं है कि जिस तरह मैं तुम्हें घरेलू काम करते हुए देखना चाहती हूँ पिता से यह उम्मीद नहीं करती, उसी तरह तू भी सिर्फ मुझसे उम्मीद लगाकर रखती है, भाइयों को तो तू भी आराम देना चाहती है। हम बस आपस में ही उलझ कर रह जाती हैं।
हमारे समाज में हमेशा ये माना जाता है खाना बनाने का काम हमेशा माँओं का होता है। साथ ही यह भी माना जाता है कि हर लड़की को आखिरकार माँ ही बनना है।
पर माँ जो प्यार तुमने दिया है वह शायद आसपास के किसी बच्चे को नहीं मिल पाया। तुम्हें घर के काम बहुत पसंद नहीं थे उसमें तुम्हारा क्या कसूर था? तुम खेत और जंगल के काम कर ही नहीं पातीं थीं तो भी यह इतना बड़ा मसला नहीं है, शहरी पृष्ठभूमि से तुम्हारा होना तुम्हारे लिए सबसे बड़ा अभिशाप बना रहा।
मैं आज भी हैरान होती हूँ माँ जिस उम्र में और बच्चे माओं की गालियाँ खाया करते (हालांकि उसमें भी उन माओं का प्यार ही होता है), उस उम्र में तुम मुझे राखी, सोती सुंदरी, फ्यूंली, तीलू रौतेली, जैसी तमाम कहानियाँ सुनाती। सिर्फ कहानी के अन्त तक ही नहीं बल्कि उससे भी और आगे तुम कहानी को रच डालतीं, जब तक मैं कहानी को और आगे बढ़ाने की फरमाइश करती जाती। कविताएँ सुनातीं हिलांस वाली घुघूती वाली। घिंडुड़ि कि माँ घिंडुड़ि चा दूध पे (गोरेया की माँ और गौरेया ने चाय दूध पिया) कहते हुए चाय और दूध पिलाने का तरीका कितना खुशनुमा होता था।
(Story by Ankita Rasuri)
घिंडुड़ी (गौरेया) वाली कहानी से तुम अपनी आकांक्षाओं को ही तो दर्शा रही होती। जिस तरह तुम बहुत ही सहजता से कहानियाँ और कविताएँ मौखिक ही रच लेतीं, उसके लिए वाकई कल्पनाशीलता की जरूरत होती है। तमाम उम्रदराज लेखिकाओं को देखते हुए तुम्हारा चेहरा याद आता है लेकिन तुमने तो अपनी सारी रचनाएँ सिर्फ अपने बच्चों के लिए रचीं थीं। इससे ज्यादा तुम्हारी महत्वाकांक्षा क्यों नहीं थी मां! एक बेटी के तौर पर आज मैं यही कहना चाहती हूँ कि माँओं को सिर्फ बच्चों में नहीं खो जाना चाहिए।
जहाँ तुम्हारे ससुराल या मेरे घर-गाँव में मुझे आज भी साहित्यिक पत्रिकाएँ और किताबें नहीं मिल पाती हैं, तुम मुझ से एक पीढ़ी पहले ही धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, और ‘गुनाहों का देवता’ उपन्यास जैसे तमाम साहित्य से गुजर कर कुछ उसी तरह से हो गईं थी। उनका गहरा असर अभी भी जीवन के प्रति तुम्हारे नजरिए और कल्पनाशीलता में दिखता है। लेकिन माँ जीवन काल्पनिक साहित्य नहीं होता। आज भी तो अगर तुम्हारे हाथ में कोई किताब, पत्रिका या अखबार ही लग जाता है तो तुम खाना बनाने से लेकर धारे से पानी लाने तक के सारे काम मुल्तवी करके तल्लीनता से पढ़ने में लग जाती हो।
मेरे शहर में आ जाने के बाद तू खुश है कि मेरी जिन्दगी तुमसे बेहतर और अलग होगी। लेकिन माँ मुझे अफसोस है तू अब भी भीतरी तौर पर बहुत अकेली है और मैं अब भी तेरा साथ नहीं दे पा रही हूँ। शहरी जीवन की अपनी दिक्कतें हैं। मैं तेरी उम्मीदों को तोड़ना नहीं चाहती, मैं जिंदगी में बहुत बेहतर करना चाहती हूँ। मैं तुम्हारी बची हुई जिंदगी को भी बेहतर बनाना चाहती हूँ। मैं आपकी वाली पीढ़ी से आगे निकलना चाहती हूँ।
मैं जानती हूँ माँ तेरे सपने अभी भी मरे नहीं है। तेरी मंगायी गयी चूड़ियों के साथ-साथ मैं कविताओं की किताब भी लेती आऊंगी। कुछ बच्चों वाली किताबें भी जिनमें आज भी तेरा मन बसता है। हालांकि मुझे तेरा चूड़ी-बिंदी-सिंदूर से सजना बिल्कुल भी पसंद नहीं है, लेकिन तुम अभी तक वहाँ नहीं पहुँची हो कि इन चीजों का भी प्रतिरोध करो। हालांकि तू ही कहती है कि हम स्त्रियों को ये सब क्यों करना पड़ता है जबकि पुरुषों के लिए तो सुहाग की कोई निशानी नहीं होती। ये सब जानने-समझने के बावजूद तुम ऐसी नहीं हो पाई कि इन चीजों को छोड़ दो।
मुझे जितना याद हुर्रे का ठंडा पानी आता है, चांदनी रात में चमकता पार्य बण आते हैं उन सबसे ज्यादा तेरी याद आती है। इसलिए नहीं कि मुझे तेरी जरूरत है बल्कि इसलिए कि जीवन की गति को बनाये रखा जा सके। मैं चाहती हूँ कि तुझे मेरा कोई भी काम ना करना पड़े एक माँ के तौर पर, ना ही तुझे मेरी कोई चिंता करनी पड़े। एक स्त्री के तौर पर तुम मेरे साथ चलती रहो बस।
आज पाती हूँ तुझमें और मुझमें बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। तुम्हें भी तो कुल्टा जैसे कई संबोधन झेलने पड़ते थे। लेकिन तुम्हारा विरोध बहुत तीव्र होता था। मैं तुम्हारी ठीक अगली पीढ़ी, जो घर से बाहर निकलकर भी, क्या हूँ? मुझे भी ठीक इस तरह के संबोधन सुनने को मिलते रहे। इसके बावजूद मैं ठीक से विरोध तक नहीं कर पाई, बस अपने प्रेम का यकीन दिलाती रही। तुम्हारे हाथ में एक घर है जहाँ तुम तथाकथित रूप से खुश हो। मैं उस घर से या उस तरह के तमाम घरों से आजादी की ख्वाहिश रखते हुए गोल-गोल दुनिया में गोल-गोल घूम रही हूँ।
(Story by Ankita Rasuri)