बांयेन : कहानी

महाश्वेता

भगरीरथ जब खूब छोटा था, तभी उसकी माँ चण्डी को बांयेन ने धर लिया था। बांयेन के धरने के बाद लोगों ने चण्डी को गाँव के बाहर कर दिया। बांयेन को मारा नहीं जाता, क्योंकि बांयेन के मरने से गाँव के बच्चे जिन्दा नहीं बचते। अगर किसी को डाइन धर ले तो उसे जलाकर मार देते हैं, पर बांयेन के धरने पर उसे जिन्दा रखना होता है।

इसीलिए चण्डी को गाँव के बाहर करके रेल लाइन के किनारे उसके लिए झोंपड़ी बना दी गयी।

भगीरथ दूसरी माँ के पास रह कर बड़ा हुआ, उसका आदर-अनादर झेलता हुआ। अपनी माँ किसे कहते हैं, यह भगीरथ नहीं जानता। उसने मैदान के उस पार छातिम के पेड़ के नीचे एक झोपड़ी देखी है और सुना है वहाँ चण्डी बांयेन अकेली रहती है।

उसने कभी सोचा भी नहीं कि चण्डी बांयेन किसी की माँ हो सकती है। उसने दूर से देखा है, झोपड़ी के ऊपर लाल लत्ते की ध्वजा। बीच-बीच में उसने देखा है, पागलों की तरह धानखेत की मेड़ पकड़कर चैत्र मास की तेज धूप वाली दोपहरी में लाल कपड़े पहने पता नहीं कौन एक लकड़ी से टिन बजाते-बजाते पोखरे की दिशा में जा रही है और उसके पीछे-पीछे एक कुत्ता दौड़ रहा है।

बांयेन जब कहीं जाती है तो टिन बजा कर लोगों को सचेत करती जाती है। बांयेन अगर किसी छोटे बच्चे अथवा युवक को देखती है तो तत्काल अपनी आँखों से उसके शरीर का सारा खून चूस ले सकती है।

इसीलिए बांयेन को अकेली रहना पड़ता है। बांयेन को जाते देख कर बच्चे-बूढ़े सभी रास्ता छोड़ कर हट जाते हैं।
एक दिन, केवल एक दिन भगीरथ ने अपने पिता मलिन्दर को बांयेन के साथ बात करते देखा था।
‘‘आँखें नीचे कर भगीरथ,’’ उसके पिता ने धमकाया था।
बांयेन पाँव दबाये आकर पोखरे के किनारे खड़ी थी।
भगीरथ ने एक पलक देखा था, पोखरे के जल में लाल कपड़ा, तांबई चेहरा और सिर पर जटा।
उसने देखा था बांयेन की आँखों में कैसी तो एक भूख थी, जो भगीरथ को आँखों से निगल जायेगी।
नहीं, भगीरथ की तरफ नहीं देखा था बांयेन ने। भगीरथ ने जैसे काले पानी में बांयेन की लाल छाया देखी थी, ठीक वैसे ही बांयेन ने भी भगीरथ की छाया देखी थी। भगीरथ ने सिहर का आँखें मूंद ली थीं और अपने पिता की धोती मुट्ठी में जोर से पकड़ ली थी।
‘‘क्यों आयी है?’’ भगीरथ के पिता ने धीमे से फुफकार कर पूछा था।
‘‘मेरे पास सिर का तेल नहीं है, गंगापुत्र। घर में कैरोसिन नहीं है। मुझे अकेले डर लगता है, जी।’’
बांयेन रो रही थी। पानी के ऊपर चण्डी बांयेन की छाया की आँखों से आँसू चू रहे थे।
‘‘क्यों? इस शनिवार को वार का डाला नहीं दिया?’’

हर शनिवार को डोमपाड़ा का एक आदमी वार का डाला लेकर चंडी बांयेन के वहाँ जाता है। उस डाले में चावल, दाल, नमक और तेल आदि होते हैं। डाला ले जाकर डोम छातिम के पेड़ के नीचे रख देता है। फिर छातिम के पेड़ को साक्षी बनाकर कहता है, ‘‘बांयेन  के लिए वार का डाला दिए जा रहा हूँ।’’ इसके बार वह तेजी से भागकर अपने घर चला जाता है।

‘‘डाला का सामान कुत्ता खा गया।’’
‘‘पैसे लेंगी? ले।’’
‘‘मैं खरीद दूंगा, तू अब जा।’’
‘‘मैं अकेली नहीं रह सकती।’’
‘‘तो बांयेन क्यों हुई? जो कहता हूँ, कर।’’
भगीरथ के पिता ने पोखरे के किनारे से बहुत सी कीचड़ हाथ में उठा ली।
‘‘गंगापुत्र। यह बच्चा क्या…’’
एक घिनौनी गाली देकर भगीरथ के बाप ने कीचड़ फेंककर उसे मारा। चण्डी बांयेन भाग गयी थी।
‘‘बापू, तुमने बांयेन के साथ बात की?’’
(Bayen story by Mahasweta Devi)

भगीरथ बुरी तरह डर गया। जो बांयेन के साथ बातचीत करता है वह निश्चित रूप से मर जाता है। भगीरथ को लगा कि उसका पिता भी मर जायेगा। और पिता के मरने की बात सोचते ही भगीरथ को लगता जैसे उसके सिर पर गाज गिरी हो। बाप के मरने पर उसकी सौतेली माँ निश्चय ही उसे मार कर भगा देगी।

‘‘इस समय बांयेन हो गई है जरूर, मगर वह तेरी माँ है।’’

भगीरथ के पिता ने आश्चर्यजनक रूप से गंभीर स्वर में यह बात कही। भगीरथ के गले में जैसे एक ढेला अटक गया हो। माँ। कहीं बांयेन भी किसी की माँ होती है? बांयेन भी क्या आदमी होती है? बांयेन तो मिट्टी खोद कर मरे बच्चे को निकाल लेती है, उसका दुलार करती है, उसे दूध पिलाती है। बांयेन की नजर पड़ जाये, तो खड़ा पेड़ मिनटों में सूख जाता है। भगीरथ तो एक जिन्दा बच्चा है। वह कैसे बांयेन की कोख से पैदा हुआ? भगीरथ की समझ में कुछ नहीं आ रहा  था।

‘‘पहले वह आदमी थी, तेरी माँ थी।’’ भगीरथ के पिता ने कहा।
‘‘तुम्हारी बहू थी?’’
‘‘हाँ? मेरी बहू थी।’’

पता नहीं क्या सोच कर मलिन्दर ने गहरी साँस ली और कहा, ‘‘मैं तुझे सब बता दूंगा भगीरथ। तुझे कोई डर नहीं है।’’

अवाक् होकर भगीरथ भी अपने पिता की ओर देखता हुआ बगल में चल रहा था। मलिन्दर गंगापुत्र के गले से ऐसा स्वर भगीरथ ने कभी नहीं सुना था। केवल डोम नहीं, वे श्मशान के डोम हैं। आजकल म्युनिसिपल्टी श्मशान में सिर्फ एक डोम रहने देती है। भगीरथ के घर वाले बाँस और बेंत का काम करते हैं। सरकारी मुर्गी फार्म पर काम करते हैं। मैला ढोकर ले जाते हैं और उसकी खाद बनाते हैं। अकेले मलिन्दर को छोड़कर उस अंचल में कोई डोम अपना नाम भी नहीं लिखना जानता था। इसी कारण कुछ दिन पहले मलिन्दर को सदर के लाशघर में काम मिल गया था।

वह सरकारी काम था। मलिन्दर गंगापुत्र लिखकर हर महीने 42 रु. प्राप्त करता था। भगीरथ जानता है, उसका बाप बीच-बीच में लावारिश लाश को चूना और ब्र्लींचग पाउडर में गला कर कंकाल निकालता है। अगर पूरे आदमी का कंकाल हो तो बड़े काम का होता है। डॉक्टरी के लिए आदमी र्का ंपजरा बहुत काम का होता है।

सरकार बाबू कलकत्ता के डॉक्टरों को ये कंकाल महंगे दाम पर बेच देते हैं। भगीरथ के पिता को 10-15 रुपए वे जो भी दे देते हैं, वह उसी में खुश रहता है। इस ऊपरी आमदनी को सूद पर चलाकर भगीरथ के पिता ने कुछ सुअर खरीद लिए हैं।

मलिन्दर कपड़े पहनकर और पाँव में जूते डालकर सदर जाता है। मोहल्ले में भी उसे लोग मान देते हैं।

वहीं मलिन्दर आँखें लाल किए चण्डी बांयेन की झोपड़ी के ऊपर गेरूए रंग के आकाश में, किसी औरत के माथे पर लगे हुए सिन्दूर की तरह उस लाल कपड़े के ध्वज को देर तक देखता रहा। फिर फुसफुसा कर बोला, ‘‘अंधेरे से डरती है। ऐसी औरत को विधाता ने बांयेन बना दिया। मर जाती तो उसे शान्ति मिलती, मगर बांयेन अपने-आप न मरे तो कौन उसकी जान ले सकता है? जानते हो बेटा?’’

बहुत दुखी न होता तो मलिन्दर इतना बोलने वाला आदमी नहीं।
‘‘बापू, आदमी को बांयेन कौन बनाता है?’’
‘‘विधाता।’’

मलिन्दर ने अच्छी तरह देख लिया था कि भगीरथ के आस-पास दोपहर की धूप में कोई छाया चल रही है या नहीं? बांयेन तरह-तरह के रूप धर सकती है। हाट-बाजार में फूल और मक्खन बेचने वालों की तरह वह कई तरह के छल-प्रपंच जानती है। मान लो किसी छोटे बच्चे को बांयेन लेना चाहती है। अब वह चलता है तो चारों ओर धूप पड़ने पर भी उसके चेहरे पर छाया रहती है। अदृश्य होकर बांयेन अपने आंचल की छाया बच्चे के सिर पर डालकर चलती है। बच्चे के मर जाने पर अगर कोई जोर देता है तो बांयेन मुस्करा कर कहती है, ‘‘मैं क्या जानूं? उसे धूप में आते देखकर मैं तो सिर्फ छाया देने गयी थी। तुम्हारा बच्चा कोई नमक का पुतला था कि हाथ लगाते ही गल गया?’’

भगीरथ के आस-पास कोई मैला, दुर्गन्धयुक्त लाल आंचल अथवा उसकी छाया न देखकर मलिन्दर जैसे निश्चिंत हो गया। उसने भगीरथ से कहा, ‘‘तुझे क्या डर, मेरे बाप? तेरा कोई अनिष्ट वह नहीं करेगी।’’

फिर भी भगीरथ को भरोसा नहीं हुआ।
(Bayen story by Mahasweta Devi)

उसका मन उधर ही लगा रहता था। वह धान के खेत में जाता अथवा गाय चराने जाता तो बार-बार उसका मन करता कि वह रेल लाइन पकड़कर दौड़ता हुआ वहाँ चला जाये। जाकर देख आये कि अकेली रहकर बांयेन कैसे डरती है, कैसे वह अपने सिर पर तेल चुपड़कर चैत्र की हवा में अपने बालों का पानी सुखाती है।

मगर भगीरथ जा नहीं पाता था, उसे डर लगता था।
उसे डर लगता था कि एक बार जाकर कहीं वह फिर लौट ही न सके। कहीं बांयेन भगीरथ को पेड़ या पत्थर बनाकर वहाँ न रख ले। कई दिन तक भगीरथ दूर से देखता रहा।

उसे छातिम के पेड़ और झोपड़ी के बीच आकाश जैसे किसी के कपाल जैसा दिखता था। उस कपाल पर सिन्दूर की छोटी-सी बिन्दी की तरह लाल लत्ते का निशान कभी स्थिर रहता, तो कभी हवा में डोलने लगता। उसका मन करता कि एक बार वह वहाँ जाये, मगर वह डरता भी था। शायद उसी डर के कारण उलटे पाँव भागकर वह घर चला जाता।

आश्चर्य की बात है कि बांयेन का लड़का होने पर भी कोई उसकी उपेक्षा नहीं करता था, वरन् उसकी ज्यादा ही खातिर होती थी। बांयेन के लड़के की खातिरदारी करने से बांयेन को यह बात मालूम हो जाती है। इसलिए वह भी लोगों को अच्छी निगाह से देखती है।

उनके बच्चे-कच्चे ठीक रहते हैं, जो लोग ऐसा नहीं करते उनके घर बच्चे मरते ही रहते हैं।

भगीरथ की नयी माँ कुछ नहीं कहती। सौत के बच्चे से उसको प्रेम है या घृणा, अनुराग है या विराग कुछ भी वह कभी नहीं बताती। उसका कारण यह है कि उसका अपना कोई बेटा नहीं। गैरबी और सैरभी नामक दो लड़कियाँ है सिर्फ। पुत्र न हो तो स्त्री का पति पर जोर नहीं चलता। इसके अलावा भगीरथ की नयी माँ का ऊपर का ओंठ कटा हुआ है। मसूड़े दिखाई देते हैं। इसलिए वह घर से निकलना नहीं चाहती। कहती है, ‘‘बताओ तो कौन-सा मुँह दिखाने जाऊँ? मेरा मुँह बंद ही नहीं होता। हँसती नहीं हूँ, तो भी लोग समझते हैं, यह औरत हंस रही है। देखो गंगापुत्र, मेरे मरने पर मेरा मुँह गमछे से ढक देना, समझे? नहीं तो लोग कहेंगे दांती डोमिन चल बसी।’’

यशी सिर्फ काम करती रहती है। घर बुहारती है, खाना पकाती है, लकड़ियाँ इकट्ठा करती है, गोबर पाथती है, सुअर चराती है और लड़कियों के सिर से जूं बीनती है। भगीरथ को ‘‘बाप’’ कह कर पुकारती है। कहती है, ‘‘खाने आओ, बाप’’, ‘‘नहाने जाओ, बाप’’ जैसे उन दोनों के बीच कोई दूर की रिश्तेदारी हो। बांयेन के लड़के को अगर ठीक से नहीं रखेगी तो बांयेन उसकी दोनों लड़कियों को बाण मार देगी। यशी यह बात जानती है और यह भी जानती है कि एक दिन भगीरथ के ऊपर उन लोगों को निर्भर होना होगा।

कभी-कभी वह डर कर गालों पर हाथ रखे बैठी सोचती रहती है। कौन जाने भर-दोपहर बांयेन उसकी दोनों लड़कियों को याद करके मिट्टी से पुतलियाँ बना रही हो। और बान से उसे छेद रही हो। ऐसे समय यशी जितनी कुरूप है उससे भी अधिक कुरूप दिखती है। बड़े दुख के साथ मलिन्दर ने डोमपाड़ा की सबसे बदसूरत औरत से ब्याह किया था। कई गाँवों में डोमपाड़ा की सबसे सुन्दर लड़कियाँ बांयेन हो गयी। तब से मलिन्दर सुन्दर लड़कियों को भर-आँख देखता भी न था।

मलिन्दर अपनी पहली पत्नी को बहुत चाहता था।

शायद वही प्यार की बात सोच कर एक दिन उसने भगीरथ से चण्डी बांयेन के बारे में बातचीत की थी। दोनों बाप-बेटे रेल लाइन के पास से जा रहे थे। मलिन्दर के हाथ में माँस की एक पोटली थी। मलिन्दर की एक आश्चर्यजनक दुर्बलता है। अपने हाथों पाले सुअरों को वह काट नहीं पाता। सुअर जब बड़े हो जाते हैं और उनकी काटने लायक उम्र हो जाती है, तो वह पूरा सुअर किसी को बेच देता है। जो खरीदता है वह मलिन्दर को भी थोड़ा माँस दे देता है।

‘‘चलो, इस पेड़ की छाया में थोड़ी देर बैठते हैं?’’

जैसे अपने तेरह साल के लड़के से मलिन्दर ने अनुमति माँगी और बरगद के पेड़ की एक जटा से टिक कर बैठ गया। भगीरथ ने पूछा, ‘‘इधर से होकर डाकू लोग जाते हैं, है न बाप?’’

भगीरथ उन दिनों प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाता था। सरकारी स्कूल की दीवार पर उनके मास्टर साहब ने एक बार लड़कों से दीवार पत्रिका लिखवाई थी। खुद ही वे अक्षर लिख कर लाये थे। भगीरथ ने उन अक्षरों को स्याही से भरा था। उस लेख को पढ़कर भगीरथ ने जाना था कि 1955 के अछूत कानून के बाद से वे लोग अछूत नहीं रह गये थे।

उसने जाना था कि संविधान नाम की एक चीज होती है और उसके शुरू में ही मौलिक अधिकारों के बारे में स्पष्ट रूप से लिखा है कि सभी समान होते हैं।

वह दीवार-पत्रिका अभी भी टंगी हुई है, मगर भगीरथ और उसकी जाति के दूसरे बच्चे जानते हैं कि उनके सहपाठी और मास्टर लोग उन्हें अपने से थोड़ी दूर बैठाना ही पसंद करते हैं। इस स्कूल में ऊँची जाति के लड़के, अगर बहुत गरीब या असमर्थ न हों तो नहीं आते, आयें भी क्यों? आजकल चारों ओर स्कूल ही स्कूल हैं।
(Bayen story by Mahasweta Devi)

जो भी हो, भगीरथ आजकल थोड़ी अलग किस्म की भाषा में बात करता है। मलिन्दर को उसकी बातें अच्छी लगती हैं और अक्सर वह खुद को भगीरथ की तुलना में एक अयोग्य बाप समझता है।

भगीरथ ने डाकुओं के बारे में प्रश्न किया था। उन दिनों सोनाडांगा, पलाशी और धुबुलिया के इलाकों में जगह-जगह शाम के बाद की रेलगाड़ियों में डकैतियों की संख्या बहुत बढ़ गयी थी। एक तरह से सभी लोग डकैती करते हैं। भद्रजन, गरीब, छात्र, कालोनियों में रहने वाले, पक्के मकानोें के मालिक तरह-तरह का परिचय देकर वे ट्रेन के डिब्बे में चढ़ते हैं। इसके बाद ठीक समय पर चेन खींचकर गाड़ी को अंधेरे मैदान में रोक देते हैं। अंधेरे में से उनके साथी आ जाते हैं। इसके बाद सब मिलकर जिसे जो मिलता है लेकर चंपत हो जाते हैं। विशेषकर यह बरगद का पेड़ अंधेरा होने के बाद बड़ा डरावना हो उठता है।

इसीलिए भगीरथ ने डाकुओं के बारे में पूछा था, मगर मलिन्दर ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। सूने मैदान की तरफ देखते हुए आकाश और मैदान में जाने क्या खोजता रहा। फिर बोला, ‘‘मैं पहले बड़ा निर्दयी था, समझे बाप। तेरी माँ चुपचाप भूसी की आग की तरह सुलगती और रोती रहती थी। विधाता की इच्छा।’’

एकदिन जैसे भगवान ने खुद डोमपाड़ा आकर पासा पलट दिया। चण्डी बांयेन हो गयी, निष्ठुर, निर्दय शिशुहंता और मलिन्दर हो गया भूसी की अंगीठी। होना ही पड़ता है।

एक आदमी अगर अमानुष जो जाये, मनुष्य की पकड़ के बाहर, अलौकिक जगत के अदृश्य दरवाजे खोलकर उसमें प्रवेश कर जाये, तो दूसरे आदमी को और आदमियों जैसा होना ही पड़ता है।

भगीरथ को अब लगा कि उसका बाप उससे कुछ कहना चाहता है। भगीरथ को थोड़ा आश्चर्य हुआ। बहुत पहले, एक दिन उसके पिता ने बांयेन के साथ बातचीत की थी। उसके बाद फिर कभी नहीं की। आज फिर वह बांयेन की बात क्यों कर रहा है? मलिन्दर ने भगीरथ का हाथ जोर से पकड़कर कहा, ‘‘डर क्या है? सभी तो जानते हैं, तो तू ही अपनी माँ की कहानी से क्यों अनजान रहे?’’

वे गंगापुत्र हैं, डोम हैं। मलिन्दर बांस ढोता था, लकड़ी काटता था और चण्डी लाश उठाने का काम करती थी।

उसका वंशगत उत्तराधिकार था इस गाँव के उत्तर में बावड़ी के किनारे स्थित बरगद के पेड़ के नीचे के कच्चे मुर्दघट्टे पर। पाँच वर्ष से कम उम्र का बच्चा मरे तो आजकल उसे जलाना पड़ता है। उन दिनों सभी जमीन में गाड़ देते थे। इसी मुर्दाघट्टे में चंडी का पिता खंती से गड्ढा खोदता, गड्ढे को कांटों के झाड़-झांखड़ से ढक देता और सियारों को भगाता। हई…हई…हइया… उसकी मदहोश आवाज रात-बेरात हरदम सुनाई पड़ती थी। उसकी यह पुकार बड़ी भयंकर होती थी।

चण्डी का बाप गांजा और शराब पीता रहता था और शनिवार के दिन एक डाला हाथ में लेकर गाँव में निकलता था। कहता, ‘‘मैं आप लोगों का सेवक हूँ, गंगापुत्र हूँ, मेरा डाला दे दीजिए।’’

सभी लोग उससे डरते थे। छोटे बच्चों को उसकी नजर से दूर रखते थे। बिना एक भी शब्द बोले लोग उसे भीख देकर वापस हो जाते थे।

एक दिन एक कटीली आँखों और लाल बालों वाली एक गोरी लड़की आकर खड़ी हो गयी और बोली, ‘‘मेरा नाम चण्डी है, मैं अमुक गंगापुत्र की बेटी हूँ। मेरा बाप मर गया। बाप का डाला अब मुझे दीजिए।’’

‘‘बाप का काम अब तू करेगी?’’
‘‘हाँ, करूंगी।’’
‘‘तुझे भय-डर नहीं लगता?’’

डर-भय की बात चण्डी नहीं समझती थी। बाल-बच्चों के मरने पर माँ-बाप रोते हैं तो शोक का अर्थ समझ में आता है। मगर लाश को भला कोई घर में रख सकता है, या रखना चाहता है? मरे हुए व्यक्ति का अन्तिम संस्कार करना ही चण्डी का काम है, उसकी जीविका है। इसमें डरने की या निष्ठुरता की क्या बात है? अगर हो भी तो उससे क्या? क्या यही विधाता का नियम नहीं है? यह नियम गंगापुत्रों ने तो नहीं बनाया। तो फिर उनसे इतनी घृणा आदमी क्यों करता है, क्यों इतना डरता है?

इसी चण्डी से मलिन्दर ने ब्याह किया था। उन दिनों भी मलिन्दर सरकार बाबू के साथ मिलकर हड्डियाँ बेचने का काम करता था। गाय और बैलों की हड्डियों से खाद बनती है, उसका भी अच्छा दाम मिलता है। मलिन्दर के हाथ में पैसे थे, दिल में हिम्मत थी। रात को मैदान में गुजरते हुए वह जोर से कहता था…. ‘‘किसी से नहीं डरता, हम आग खाता, किसी से नहीं डरता।’’

शाम के समय लालटेन हाथ में लेकर बरगद के पेड़ के नीचे घूमते हुए चण्डी को देखकर उसने कहा था, ‘‘ऐ। तू अंधेरे में डरती नहीं?’’
(Bayen story by Mahasweta Devi)

‘‘नहीं। हम भी आग खाता, जानता है?’’ चण्डी की हँसी देखकर मलिन्दर अवाक् रह गया। उसी वैशाख में उसने चण्डी से ब्याह कर लिया। दूसरे वैशाख में चण्डी की गोद में भगीरथ आ गया।

भगीरथ को गोद में लिए चण्डी एक दिन रोती-रोती वापस आयी थी और कहा था, ‘‘गंगापुत्र। मुझे उन्होंने ढेला मारा। कहा तुम्हारी नजर बद है।’’

‘‘किसने ढेला मारा?’’
‘‘क्यों जी। तुम क्या उसे मारोगे?’’
‘‘ढेला मारा क्यों?’’

मलिन्दर मारे गुस्से के प्राय: आंगन में नाचने लगा था। गालियां बकते हुए उसने चिल्ला कर कहा था- ‘‘किसकी इतनी हिम्मत, जो मेरी औरत को ढेला मारे?’’

चण्डी उसकी ओर कुछ पल निर्निमेष देखती रही, फिर बोली, ‘‘गंगापुत्र। मेरा मन खंती पकड़ने को नहीं करता। मन नहीं करता, पर विधाता मुझसे वह काम कराये तो मैं क्या करूंगी, बोलो?’’

चण्डी ने गर्दन हिलायी थी और आश्चर्य से अपने हाथों और पाँवों को निहारा था। उसके कुल में भाई-चाचा-दादा कोई होता तो कुल का काम करता, मगर कोई नहीं है। वे लोग आदिम काल से श्मशान में काम करते आये हैं। जब राजा हरिश्चन्द्र चाण्डाल हुए थे तो चण्डी के एक पूर्वज ने ही उन्हें काम सिखाया था। दुबारा जब हरिश्चन्द्र राजा हुए, तब सागर पर्यन्त पृथ्वी उनके राज में थी। वे अपनी सम्पत्ति खुले हाथों दान करने लगे।

‘‘हम लोगों के लिए क्या व्यवस्था है?’’ उसी आदिम गंगापुत्र ने राजसभा को गुंजाते हुए पूछा।

उन लोगों के कानों में रावण की चिता जलने की धू-धू आवाज गूंजती रहती थी, इसलिए वे हर बात चीख कर कहते थे। धीरे से बोलने पर सुन नहीं पाते थे।

‘‘किस चीज की व्यवस्था?’’ राजा ने पूछा।
‘‘बामन गाय-बैल पायेगा, संन्यासी के लिए नित्य भिक्षा, हमारे लिए क्या व्यवस्था है? हमें आपने क्या दिया?’’
‘‘पृथ्वी के सारे श्मशान तुम्हें दिये।’’ राजा ने कहा।
‘‘क्या दिया?’’
‘‘सागर पर्यन्त पृथ्वी के सारे श्मशान मैं तुम्हें देता हूँ।’’ राजा ने जोर से कहा।
‘‘सच?’’

‘‘हाँ। दिया, दिया, दिया।’’

तब वह आदिम गंगापुत्र हाथ उठाकर खुशी से नाच उठा था और उल्लास से बोला था, ‘‘हाँ। हमें सारे श्मशान मिल गये, सारे श्मशान मिल गये। इस पृथ्वी पर जितने श्मशान हैं सब हमारे।’’

उसी आदि गंगापुत्र के वंश की बेटी होकर चण्डी कैसे अपने वंश को लात मार दे? लात मारने पर वह देवता का कोपभाजन नहीं बनेगी, इसका क्या ठिकाना? फिर भी चण्डी को बहुत डर लगता। खंती से गड्ढा खोदते समय वह मुँह फिरा लेती। उसे झाड़-झंखार से ढकने के बाद भी उसका डर न जाता। उसे लगता, किसी भी समय मुँह से आग उगलते हुए एक सियार बरगद जैसे बड़े-बड़े पंजों से मिट्टी खोदना शुरू कर देगा।

‘‘भगवान… भगवान… भगवान…’’ चण्डी बुदबुदाती और रोती। और भागकर घर आ जाती। घर में बत्ती जलाकर भगीरथ की ओर टकटकी लगाये बैठी रहती और ईश्वर को पुकारती। उस समय चण्डी कामना करती कि गाँव का प्रत्येक शिशु चिरंजीवी हो, सुखी और प्रसन्न रहे। पहले जो दुर्बलता उसके अन्दर न थी वह अब जाग उठी थी।
(Bayen story by Mahasweta Devi)

भगीरथ को याद करके, उसके मन में प्रत्येक शिशु के लिए दुख होता, भयंकर दुख होता। अगर बरगद के पेड़ के नीचे ज्यादा समय रुकना पड़ता तो उसकी छातियों में इतना दूध भर जाता कि दर्द होने लगता। मुँह नीचा किए गड्ढा खोदते हुए वह मन ही मन अपने बाप को दोष देती कि क्यों वह ऐसा निष्ठुर काम करने के लिए उसे कसम धरा गया?

‘‘आप लोग कोई और आदमी देख लीजिये, मेरा मन नहीं करता।’’ चण्डी ने एक दिन कह दिया।

मगर किसी ने उसकी बात पर कान नहीं दिया। मलिन्दर उसकी बातें ज्यादा नहीं समझता था, क्योेंकि दूसरा आदमी जिस चीज को देखकर डर जाता है, घृणा करता है, उसी अपवित्र शव, हड्डी और चमड़े से उसकी जीविका चलती थी। चण्डी की बातें सुनकर वह कहता, ‘‘धत्। तू बेकार डरती है।’’ चण्डी ज्यादा रोना-धोना करती तो वह कहता, ‘‘तेरे वंश का तो और कोई है ही नहीं। तू ही बता, कौन आयेगा यह काम करने?’’

उन्हीं दिनों वह भयानक घटना घटी थी। मलिन्दर की एक रिश्ते की बहन उसके गाँव आयी थी। उसकी लड़की दो-चार दिन में ही चण्डी से बहुत हिल-मिल गई थी। गाँव में उस समय बहुत जोरों से चेचक फैला था। ननद की बेटी को गोद में लेकर ननद के साथ, चण्डी शीतला देवी के मन्दिर में पूजा चढ़ा आई थी। रेल लाइन के किनारे जिन दिनों बिहारी कुली काम कर रहे थे, उन दिनों उन्होंने वहाँ शीतला मइया का एक स्थान बनाया था। वहाँ पर एक बिहारी पुरोहित स्थायी रूप से रहते थे।

आश्चर्य की बात है कि दो-चार दिन बाद ही वह शिशु शीतला माता के प्रसाद से मर गया। चण्डी के घर नहीं, कहीं और, मगर उस लड़की के माँ-बाप, चाचा-ताऊ सभी कहने लगे कि चण्डी ने ही उसकी जान ली है।

‘‘मैंने?’’
‘‘हाँ रे। तूने।’’
‘‘मैंने नहीं। मैंने नहीं ली उसकी जान।’’ चण्डी ने उन लोगों से बड़े कातर स्वर में कहा।
‘‘हाँ। तुम्हीं ने।’’
‘‘कभी नहीं।’’

चण्डी ने साँप की तरह फुफकारते हुए कहा था, ‘‘मुझसे किसी का बुरा हो ही नहीं सकता। जानते हो मैं किस वंश की हूँ।’’

भीरु तथा कुसंस्कारग्रस्त उन अंधे लोगों ने नजरें नीची करके फुसफुसाते हुए कहा था, ‘‘तो फिर टुकनी को कबर देते समय कल तेरी छाती से दूद क्यों गिरा था मिट्टी में?’’

‘‘हाय रे। मूरख समाज।’’

चण्डी कुछ पल घृणा और विस्मय से उन सभी को देखती रही और फिर कहा, ‘‘ठीक है। पितरों का श्राप मुझे लगे, तो लगे। आज से यह काम मैंने छोड़ दिया।’’

‘‘काम छोड़ दिया? ’’

‘‘हाँ छोड़ दिया। जाओ, जिसकी छाती में दम हो, जाकर पहरा दो। बहुत दिनों से मेरा मन इस काम में नहीं लग रहा था। गंगापुत्र गौर्रंमट के घर काम पाने वाले हैं। फिर मैं इस काम में जान क्यों खपाऊँ?’’

समाज के सभी लोगों का मुँह बन्द करके चण्डी अपने कमरे में चली गई थी। मलिन्दर से उसने कहा, ‘‘जहाँ काम करते हो, वहाँ कमरा नहीं मिलेगा क्या? चलो, हम वहाँ चले जायेंगे। जानते हो, वे लोग मुझे क्या कहते हैं?’’

मलिन्दर ने हँसी करके चण्डी को सहज बनाने के लिए अपनी स्वाभाविक ऊँची आवाज में हँस करके कहा, ‘‘क्या बोलते हैं तो लोग? तू बांयेन हो गयी है?’’

कहते ही मलिन्दर चुप हो गया था। यह क्या कह दिया उसने! ऐसी भयानक बात उसके मुख से निकली कैसे?

बाँस की खूटी पकड़कर चण्डी कांपने लगी थी। उत्तेजना, दुख, क्रोध के मारे उससे चौगुनी आवाज में उसने चीख कर कहा था, ‘‘घर में वंशधर के रहते, भला कोई यह बात मुँह पर लाता है? मैं बांयेन हूँ? मैं घर का बच्चा छोड़कर मरे हुए बच्चों को दूध पिलाती हूँ। मरे हुए बच्चों को दुलारती हूँ, बोलो मैं बायेन हूँ?’’
(Bayen story by Mahasweta Devi)

‘‘चुप हो जा।’’

मलिन्दर ने उसे धमकाया था, क्योंकि दोपहर का वक्त था। ऐसे समय आदमी के मुँह से निकली कोई भी बुरी बात हवा पर सवार होकर चारों दिशाओं में फैल जाती है। ऐसे समय जिनके सिर पर तेल और पेट में भात नहीं होता उनके मन में भयंकर ईष्र्या-द्वेष और आक्रोश धुधुवाते रहते हैं। मलिन्दर अपने समाज के लोगों के स्वभाव और चरित्र से परिचित था।

‘‘मैं बांयेन नहीं हूँ, जी। मैं बांयेन नहीं हूँ।’’

चण्डी की रुलाई और बातों को चील की तरह झपटा मारकर हवा ऊपर उठा ले गयी थी और पलभर में ईशान से लेकर अग्नि कोण तक सभी दिशाओं में इसे फैला दिया था।

यही एक बात कहकर रो-धोकर चण्डी चुप हो गयी थी। उसने फिर कोई बात नहीं की। काफी देर बाद मलिन्दर से कहा था, ‘‘चलो हम लोग अंधेरे में कहीं चले जायें।’’

‘‘कहाँ जायेगी?’’
‘‘कहीं भाग जायेंगे।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘मालूम नहीं।’’

चण्डी भगीरथ को गोद में लेकर मलिन्दर के पास आयी थी और कहा था, ‘‘जरा पास आओ तुम्हारे सीने पर सिर रख लूँ।’’

फिर एक पल बाद कहा, ‘‘मुझे बहुत डर लग रहा है। पितरों का काम नहीं करूंगी, उनसे कह आयी… इस कारण भी डर लग रहा है। इतने दिन तो कभी डर नहीं लगा! आज ऐसा डर क्यों लग रहा है? क्यों लग रहा है कि अब मैं तुम्हें देख नहीं पाऊंगी। भगीरथ को लोग मुझे देखने नहीं देंगे।’’

‘‘हे भगवान।’’ इतना कहकर मलिन्दर ने आँखें पोंछी।

फिर एक पल बाद बोला, ‘‘अब लगता है भगवान ने उसके मुँह से यह बात कहलवायी थी, समझे?’’

‘‘इसके बाद?’’

इस घटना के बाद कई दिन तक चण्डी बुत बनी रही। थोड़ा-बहुत काम करती और भगीरथ को गोद में लिए बैठी रहती। कभी-कभी गाना भी गाती। कमरे में धूप और दीप जलाकर कभी-कभी कान लगाकर कुछ सुनती।

दो महीने बड़े आराम से कट गये। चण्डी को कोई बुलाने नहीं आया। जरूरत भी नहीं पड़ी वे कुछ दिन उनके लिए बड़ी शान्ति के दिन थे। चण्डी भी बहुत शान्त और स्थिर हो गयी थी। उसने एक दिन कहा था, ‘‘इन बच्चों-कच्चों की कोई और व्यवस्था होनी ही चाहिए। यह व्यवस्था ठीक नहीं है।’’

‘‘होगी, होगी। चारों ओर हो रही है।’’
चण्डी ने कहा, ‘‘कौन बताये कि मैंने ठीक किया या खराब किया। देखो, कभी-कभी सुनती हूँ जैसे मेरा बाप जोर से पुकार रहा है।’’
‘‘क्या तूने अपने कान से सुना?’’

मन कहता है, जैसे हई-हई-हइया करके मेरा बाप सियार भगा रहा है।

‘‘चुपकर, चण्डी।’’

मलिन्दर को डर लगा। कभी-कभी क्या उसको भी नहीं लगता कि चण्डी बांयेन हो गयी है? चण्डी रात में चौंक उठती है और कहती है बरगद के नीचे पता नहीं कौन रो रहा है। शायद समाज जो कह रहा है, वही सच है। उसे लगता, इससे अच्छा है वह गाँव छोड़कर शहर चला जाये।

उधर समाज भी चण्डी को भूला न था। चण्डी पर उसकी नजर थी। चण्डी यह बात समझ नहीं रही थी। समाज जब चाहता है तब प्रकट रूप से निगरानी करता है और जब नहीं चाहता तब गुप्त रूप से निगाह रखता है। समाज के लिए कोई भी काम असाध्य नहीं है।

इसीलिए एक रात जब आंधी-वर्षा का प्रकोप चल रहा था, और जब मलिन्दर शराब के नशे में डूबा गहरी नींद सोया था, उसकी दालान आदमियों भर गई थी। उसे केतन ने पुकार कर उठाया था। वह रिश्ते में चण्डी का मौसा लगता था। उसने कहा था, ‘‘चल, देख ले, तेरी औरत बांयेन है कि नहीं।’’

अचानक नींद टूटने से मलिन्दर की समझ में कुछ नहीं आया। कुछ देर वह बेवकूफ की तरह ताकता रहा।

तब केतन ने फिर कहा, ‘‘देख ले साले, चल के देख। घर में बांयेन पोस कर इतने दिनों से हमारे बच्चों की जान मरावा रहा था।’’

मलिन्दर देखने गया। उसने देखा था- बरगद के पेड़ के नीचे मशाल जल रही है। गाँव के मर्द उसे घेर कर गोलाई में खड़े हैं। कोई कुछ बोल नहीं रहा।
(Bayen story by Mahasweta Devi)

‘‘चण्डी रे।’’
मलिन्दर की आत्र्त पुकार को जैसे निस्तबधता की छुरी से किसी ने काट फेंका हो। सभी स्तब्ध थे। देख रहे थे कि अब क्या होता है।
‘‘चण्डी।’’
चण्डी खड़ी थी। उसके एक हाथ में दाव था और पास ही लालटेन रखी थी। एक किनारे पेड़ की डालों का एक गट्ठर खड़ा करके रखा था।

‘‘डालियां और झाड़-झंखाड़ लाकर मैं गड्डे ढक रही थी, जी।’’
‘‘क्यों? तू उठ कर आयी क्यों?’’

‘‘सियार एकाएक चीखते-चीखते जिस तरह चुप हो गये, उससे मेरे मन में हुआ कि वे गड्ढों की मिट्टी खोद रहे हैं मुर्दे निकालने के लिए।’’

‘‘तू बांयेन है।’’ गाँव के लोगों ने डर कर मंत्रोच्चार की तरह कहा।

‘‘कोई पहरा नहीं दे रहा था।’’ चण्डी ने कहा।

‘‘तू बांयेन है।’’

‘‘ये मेरे पितरों का काम है। ये लोग क्या जानें?’’

‘‘तू बांयेन है।’’

‘‘मैं बांयेन नहीं हूँ, भाई। मेरी गोद में छोटा बच्चा है, मेरी छातियाँ दूध से फटी जा रही हैं। बांयेन मैं नहीं हूँ। गंगापुत्र तुम बोलो न, तुम तो सब जानते हो?’’

लालटेन के प्रकाश में वर्षा के कारण चण्डी की छाती से चिपके हुए आंचल को मंत्रमुग्ध की तरह मलिन्दर देख रहा था। उसकी छाती दुख से फटी जा रही थी। पता नहीं कौन उसके भीतर कह रहा था-ओ मलिन्दर! तू तो साँप देखकर भी उसके पास जाता है… आग में जाकर हाथा घुसा देता है। अब जाता क्यों नहीं! तुम दोनों में कितना प्यार है। इतनी सुख-शान्ति भरी तेरी गृहस्थी है। तू चला गया तो सर्वनाश हो जायेगा।

मलिन्दर चण्डी के पास गया था और लाल-लाल आँखों से चण्डी को अच्छी तरह देखते हुए अचानक जानवर की तरह चीख पड़ा था, ‘‘तू बांयेन है। बरगद के नीचे आकर किसे दूध पिला रही थी।’’

‘‘गंगापुत्र! हाय! तुम ऐसा कह रहे हो?’’

चण्डी रोने लगी। रुलाई उसकी छाती को जैसे फाड़ देना चाहती थी। उसकी भयंकर रुलाई से मिट्टी के नीचे सोये मृत शिशु, चण्डी के पिता की अशांत आत्मा, यहाँ तक कि उसका आदि पुरुष वह आदिम डोम भी डर गया था। मनुष्य के जगत से अलौकिक जगत में निर्वासन के समय मनुष्य की आत्मा शायद ऐसे ही कलपती है; ऐसे ही आकाश, पाताल और धरती को कँपाती हुई।

किन्तु मलिन्दर दौड़ कर घर आया और अपने ससुर की शनि पूजा का ढोल लेकर फिर बरगद के नीचे दौड़ गया। ढोल को लकड़ी से पीट-पीट कर पूरे गाँव को कँपाते हुए वह चिल्लाया था, ‘‘मैं मलिन्दर गंगापुत्र मुनादी करता हूँ कि मेरी औरत बांयेन हो गयी है।’’

‘‘इसके बाद क्या हुआ? भगीरथ ने जानना चाहा।’’

‘‘इसके बाद समाज उसे बेलतला ले गया, बाप। अकेले रहने से जिसे डर लगता था, वह अब एकदम अकेली हो गयी। सुन-सुन। बांयेन गा रही है।’’

बहुत दूर से टिन के कटोरे का शब्द और एक अद्भुत गीत के स्वर तैर कर आ रहे थे लगता था, उस गीत में कोई शब्द नहीं है, मगर धीरे-धीरे कुछ शब्द स्पष्ट होने लगे:

सो जा, सो जा रे सोना
आ रे  नंदिया जादू कर…
(Bayen story by Mahasweta Devi)

इस गीत को भगीरथ जानता है। उसकी सौतेली माँ अपनी बेटियों गैरबी, सैरभी को यही गाकर सुलाती है।

‘‘चल, घर चलें, बाप।’’

मलिन्दर अभिभूत भगीरथ को लेकर घर लौट आया। भगीरथ को लग रहा था, जैसे बांयेन का गीत उसकी आत्मा में प्रवेश कर गया, उसके खून में मिल गया और एक दुर्बोध वेदना की तरह उसके कानों में देर तक बजता रहा।

इसके कई दिनों बाद भगीरथ दोपहर में अकेला बांयेन की झोपड़ी में गया। उसने बहुत दूर से टिन की आवाज सुनी थी और सुनते ही दौड़ा-दौड़ा चला आया था।

बांयेन उस समय मिट्टी के घडे़ में पोखरे से पानी भर रही थी। वह उसकी ओर देख नहीं रही थी। पानी में बांयेन की छाया पड़ रही थी।

भगीरथ ने पूछा, ‘‘तुम्हारे पास और कपड़े नहीं हैं?’’
बांयेन चुप, मुँह फिराए रही। भगीरथ की ओर नहीं देखा।
‘‘तुम अच्छे कपड़े पहनोगी?’’
अब बांयेन के मुँह से बोल फूटे, ‘‘गंगापुत्र के बेटे, घर जाओ।’’
‘‘मैं …मैं अब स्कूल में पढ़ने जाता हूँ। मैं अच्छा लड़का बन गया हूँ।’’
‘‘मेरे साथ बात नहीं करते। मैं बांयेन हूँ।’’
‘‘मैं छाया से बोल रहा हूँ।’’
‘‘मेरी छाया में भी पाप है, यह बात गंगापुत्र का बेटा नहीं जानता क्या?’’
‘‘मुझे पाप का डर नहीं है।’’
‘‘अभी घर जाओ। अभी बहुत धूप है। इस बेला दूध पीने वाला लड़का बाहर नहीं घूमता।’’
‘‘तुम्हें… तुम्हें… अकेले डर लगता है न?’’
‘‘अकेली? ना रे ना। मुझे कोई डर नहीं। भला बांयेन अकेली रहने से डरती है?’’
‘‘तो तुम रोती क्यों हो?’’
‘‘कौन कहता है?’’
‘‘मैंने सुना है।’’
‘‘गंगापुत्र के बेटे ने सुना है कि मैं रोती हूँ?’’

पानी में लाल छाया काँप रही है। बांयेन की आँखों में आँसू थे। बांयेन ने आँखें पोंछी और कहा, ‘‘गंगापुत्र के बेटे को घर में रहना चाहिए। बांयेन के पास कभी नहीं आना चाहिए। नहीं तो… नहीं तो मैं गंगापुत्र को बोल दूंगी।’’

भगीरथ ने देखा मेड़ पकड़ बांयेन चली जा रही है। बालों के गुच्छे हवा में उड़ रहे हैं। उसका लाल कपड़ा चमक रहा है। भगीरथ बहुत देर तक पोखरे के पास बैठा रहा। तब तक बैठा रहा जब तक कि पोखरे का पानी स्थिर नहीं हो गया, मगर किसी ने फिर वह गीत नहीं गाया- ‘‘सो जा, सो जा रे सोना, आ रे  नंदिया जादू कर।’’

अपनी झोपड़ी में लौटकर बांयेन भी काफी देर तक स्तब्ध बैठी रही।

बैठे-बैठे आकाश-पाताल की बातें सोचती रही। सोचते-सोचते बहुत देर बाद उठी और एक टूटी आरसी कहीं से निकाली।

‘‘चेहरे में कुछ भी नहीं है।’’ वह बड़बड़ाई। उसने बालों को एक बार उंगलियों से सीधा करने की कोशिश की, मगर नहीं, बालों में भयानक जड़ें पट गयी थीं।

वह सोचने लगी- लड़के ने कपड़े की बात क्यों की? उसे तो कुछ भी याद नहीं होना चाहिए, कितना छोटा था वह। साफ कपड़े और सुन्दर चेहरे की बात उसे कैसे मालूम हुई? भौहें सिकोड़ देर तक सोचती रही बांयेन। बहुत दिनों से आदमी की तरह ठीक ढंग से सोचने का उसे अभ्यास नहीं था। सोचने के लिए उसके पास था भी क्या! केवल बरगद के पत्तों के हिलने का शब्द, हवा की हरहराहट और पास की रेल लाइन से गुजरती रेलों की आवाज को लेकर कोई कितना सोच सकता है!

मगर आज उसे लगा कि लड़के का सर्वनाश हो जायेगा। अचानक एक पत्नी की तरह अपने विवेकहीन पति मलिन्दर के ऊपर उसे गुस्सा आया। लड़के को संभालकर रखना किसका काम है? बांयेन की नजर से इसे दूर रखना किसकी जिम्मेवारी है?

उसने उठकर लालटेन जलायी और दनदनाती हुई रेल लाइन पकड़े आगे बढ़ती गयी। चलते-चलते वह गुमटी और लेबिल क्र्रांसग पार कर गयी। वहीं से मलिन्दर आता है। फिर मेढ़ों के रास्ते घर जाता है। लाइन पकड़कर जाते-जाते उसने कुछ लोगों को देखा। वे लोग लाइन से कुछ हटा रहे थे।

नहीं, नहीं, लाइन के ऊपर ला-ला कर बांसों का ढेर लगा रहे हैं।

आज बुधवार है। रात में फाइव अप से लाल गोला का मेल-बैग आयेगा। उसमें ढेर सारे रुपए होंगे। बहुत दिनों से लोग इसी की तैयारी कर रहे थे।

‘‘कौन हो तुम लोग?’’

बांयेन ने पूछा और लालटेन को उठाकर अपने मुँह के पास लहराया। उस आदमी ने मुँह ऊपर किया। बांयेन को देखकर उसका चेहरा पीला पड़ गया और आँखें डर से फैल गयी। बांयेन ने कभी अपने समाज के किसी आदमी के चेहरे पर इतना डर नहीं देखा था।

‘‘बांयेन?’’
(Story by Mahasweta Devi)

‘‘तुम लोग गाड़ी के सामने बाँस डाल रहे हो, गाड़ी को गिराना है क्या? और फिर भागे जा रहे हो? क्यों? मेरे डर से? पहले ये बाँस परे फेंको, नहीं तो सर्वनाश हो जायेगा।’’

वे लोग रेल लाइन पर से सारे बाँस नहीं हटा पाये। अब सर्वनाश को रोक पाना संभव न था। समाज हमेशा से यही करता आया है। इन्हीं में से एक दिन एक आदमी ने ढोल लहराकर उसे बांयेन बना दिया था। बारिश शुरू हो गयी थी। हवा से बूंदें लहरा कर गिर रही थीं। हाथ में लालटेन लिए चण्डी असहाय भाव से खड़ी थी। उधर से गाड़ी दौड़ी चली आ रही थी। उसने सोचा-अगर वह सचमुच बांयेन है, तो उसके पाले हुए भूत प्रेत आकर इस ट्रेन को रोकते क्यों नहीं? समाज तो यह कर सकता है। मगर वह तो यह भी नहीं कर सकती। कितनी असहाय है चण्डी! अब क्या करे?

लालटेन एक हाथों में उठाये चण्डी लाइन पर दौड़ने लगी और दूसरे हाथ से गाड़ी को रोकने का इशारा करने लगी। वह चीखी, ‘‘आना मत, और आगे मत आना, यहाँ पहाड़ जैसा बाँसों का टीला…’’

ट्रेन रुक नहीं रही है। किसी दुर्दान्त बालक की तरह कोई बाधा न मानती हुई, वह आकर एकदम से चण्डी के ऊपर चढ़ गई।

प्राण देकर ट्रेन को दुर्घटना से बचाने के लिए चण्डी का नाम बहुत दूर तक पहुँचा, सरकार के पास तक भी।

लाशघर से वे जब चण्डी को लेकर चले गये तब दरोगा साहेब मलिन्दर के गाँव आये। उनके साथ बी.डी.ओ. भी थे।

‘‘रेल कम्पनी चण्डी गंगादासी को मैडल देगी, मलिन्दर। तुम लोगों की कहानी तो मुझे मालूम है। उसका कोई न था फिर भी सरकार ने पता लगाने के लिए बी.डी.ओ. साहब को भेजा है।’’

‘‘बड़े साहस का काम है। उसने बड़े साहस का काम किया। हमारे महकमे के सभी लोग उसकी तारीफ कर रहे हैं। वह तुम लोगों को परिवार से थी?’’

सभी चुप रहे। समाज का हर आदमी एक-दूसरे का मुँह ताक रहा था। सिर नीचा किये जमीन में आँखें गड़ाये किसी ने कहा, ‘‘जी। हमारी ही जात की थी।’’

भगीरथ अवाक् रह गया। वह सभी के चेहरे एक-एक कर देखने लगा। चण्डी को इन लोगों ने अपनी जाति का माना? इसका मतलब है, चण्डी को उन्होंने स्वीकार कर लिया?

‘‘तुम सभी लोगों को तो सरकार मैडल नहीं देगी।’’
‘‘सर। मुझे दीजिये।’’ भगीरथ आगे आया।
‘‘तू कौन है?’’
‘‘वे मेरी माँ थीं।’’
‘‘अच्छा। तेरा नाम क्या है? क्या करता है?’’

बी.डी.ओ. ने कागज और कलम निकाल ली। भगीरथ की आँखों से आँसू गिरने लगे थे। उसने अपना गला साफ करके किसी तरह कहा, ‘‘जी। मेरा नाम भगीरथ गंगापुत्र है। बाप का नाम पूजा मलिन्दर गंगापुत्र। निवास-डोमपाड़ा। माँ का नाम ईश्वर चण्डी गंगादासी…’’ भगीरथ अपना वंश परिचय देने लगा।

महाश्वेता देवी की श्रेष्ठ कहानियों से साभार
(Story by Mahasweta Devi)

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