कुँए में कूद-कहानी
रश्मि बड़थ्वाल
यशी बेटा, वह घर तुम्हारे योग्य नहीं है। मैं एक हफ्ते से लगातार उन लोगों के बारे में जानकारी जुटाने में ही लगा हूं। बिल्कुल असभ्य गंवार किस्म का परिवार है।
डैडी, मुझे घर-परिवार से कोई मतलब नहीं है। मुझे विकास से ही शादी करनी है बस! कह दिया तो कह दिया।
बेटा, घर-परिवार से अलग रहने के लिए शादी थोड़े ही होती है। तुम जिस वातावरण में पली-बढ़ी हो, उसमें और विकास के परिवार के वातावरण में बहुत अंतर है। जमीन-आसमान का अंतर है बेटा! समझो इस बात को तुम!
सब हो जाएगा! मैं ऐडजस्ट कर लूंगी डैडी। आप चिंता न करें।
चिंता मैं नहीं करूंगा तो कौन करेगा यशी बेटा? चिंता करने के लिए न मेरी मां जीवित है न तुम्हारी मां। तुम मेरी चिंता का अनुमान भी नहीं लगा सकती। तुमने तो मेरी जान ही संकट में डाल दी है!
कोई जान-वान संकट में नहीं है डैडी! एक तो मैं आपका बोझ हल्का कर रही हूं, लड़का ढूंढने की भागदौड़ से बचा रही हूं आपको, और आप हैं कि उल्टा मुझ पर इल्जाम लगा रहे हैं!
पैर पटकती यशी अपने कमरे में चली गई।
बेटी का रुख डॉ़ धीरज शर्मा को बेचैन कर गया। सात दिन से अपने व्यावसायिक काम-काज छोड़ कर पूरी तरह एक पिता की जिम्मेदारी निभा रहे थे वे और पल-पल उनकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। किसी घड़ी तनाव कम होने का तो नाम ही नहीं ले रहा था।
पहले अपने सहयोगी को उन्होंने विकास के सम्बन्धियों और परिवार के बारे में पता करने को कहा। उनका सहयोगी एक भी सूत्र जुटाता तो तुरंत उन्हें फोन करके इसकी सूचना देता। अपना नया मोबाइल उन्होंने उसे इसी काम के लिए सौंपा था। विकास के किसी सम्बन्धी का अता-पता पाते ही डॉ. धीरज शर्मा उस मोहल्ले, कॉलोनी की गली-गली में अपना दिमाग दौड़ाते। वहा जो कोई भी अपना परिचित मिलता, उसे तुरंत फोन मिलाते और पूछताछ करते। कुछ पता न होने पर पता करने का निवेदन करते।
विकास के एक मौसा शहर के दूसरे छोर के डाकघर में कार्यरत हैं, यह पता चलते ही उन्होंने तुरंत मोटरसाइकिल निकाली और दो घंटे बाद वहां पहुंच गए। डाकघर बचत योजनाओं की पूछताछ के बहाने उस व्यक्ति को जांचते रहे। शहर के पुराने मोहल्ले में विकास का चचेरा भाई चाट का ठेला लगाता है, यह पता लगते ही वे दौड़े चाट खाने। दो घंटे चाट खाने और चाटवाले पर नजर रखने में बिताए और दुखी मन से घर लौटे।
दूसरे दिन अपने सहयोगी को उन्हीं कामों से भेजा। यानी डाकघर बचत योजनाओं की जानकारी पाने और चाट खाने के बहाने विकास सम्बन्धी सूत्र बटोरने। सहयोगी से शाम को मिले तो उन्हीं धारणाओं की पुष्टि हुई जो पहले दिन उन्होंने खुद बनाई थी। यह भी पता चला कि विकास की नौकरी अस्थाई है।
बेटी ने इस बात को भी गंभीरता से नहीं लिया कि लड़के की नौकरी स्थाई नहीं है।
नहीं है तो हो जाएगी! उसने उड़ते-उड़ते कहा।
एक आशा यह थी कि शायद विकास की पृष्ठभूमि मजबूत हो। गांव से जुड़े हुए कई लोगों के परिवार रहते तो हैं सादगी से परन्तु पीछे जमीन-जायजाद इतनी होती है कि कई पुश्तें बैठी-बैठी खा सकें। इस जांच में भी डॉ. धीरज शर्मा के हाथ निराशा ही लगी। केवल पांच बीघा के मालिक थे विकास के पिता और उस जमीन को चार हिस्सों में बंटना था।
यशी बेटा, तुमने क्या देखा विकास में? केवल गोरा रंग?
डैडी बाइसेप्स देखे हैं उसके! बेटी ने आंखों में चमत्कार का प्रभाव भर कर पिता को देखा।
बेटा तुम्हें पति चाहिए या पहलवान?
पहलवान पति चाहिए।
विकास से अच्छा पहलवान ढूंढेंगे बेटा। अभी तुम अपना ध्यान पढ़ाई में लगाओ।
बहुत पढ़ लिया डैडी। जरूरी नहीं कि हर लड़की ग्रेजुएशन पूरा करे ही करे। वैसे भी विकास को पढ़ना-वढ़ना खास पसंद नहीं!
डॉ़ धीरज शर्मा धीरज खो बैठे, विकास की पसंद-नापसंद का क्या मतलब है? एक क्लास वन ऑफिसर की बेटी, और नॉन ग्रेजुएट! दिमाग तो सही है तुम्हारा? गांव में उसका कुछ है नहीं, परमानेंट जॉब है नहीं, शहर में कोई प्रॉपर्टी है नहीं! रिश्तेदारों में कोई चाट बेचता है तो कोई आलू!
साफ-साफ सुन लीजिए डैडी, कोई आलू बेचे, प्याज बेचे, चाहे कद्दू बेचे, मैं विकास से ही शादी करूंगी। अपनी नौकरी के कारण शर्म आ रही है आपको? तो रिजाइन कर दीजिए न!
डैडी को आश्चर्यचकित छोड़ कर यशी अपने कमरे में चली गई।
उस दिन वर्षों से बिछुड़ी प्रेयसी पत्नी की माला पड़ी तस्वीर पर हथेलियां टिकाए वे बहुत देर तक उसे देखते रहे। दिल का दबाव, दिमाग का तनाव, जलती सी आंखों को भिगो गया और वे बस इतना ही कह पाए क्यों छोड़ कर चली गईं तुम! अब मैं इस बला को कैसे संभालूं?
यशी की पसंद ने उनकी नींद उड़ा दी थी। हर दिन जांच को समर्पित होता और हर जांच उन्हें निराश कर रही थी। सर पीटने की स्थिति थी लेकिन बेटी उनकी हालत से बिल्कुल तटस्थ थी, अपने में मस्त थी।
(Story by Rashmi Barthwal)
डैडी, आपको तो विकास पसंद है नहीं, तो हम कोर्ट में शादी कर लेते हैं। आप बस आराम करिए।
यशी बेटा, जीवन के गंभीर निर्णय इस तरह नहीं लिए जाते। तुलसी सम सो कीजिए बैर ब्याह अरु प्रीत। जिंदगी जीना मुश्किल हो जाता है बेटा। बहुत मुश्किल हो जाता है गलत फैसलों के कारण। तुम अभी बच्ची हो। मैच्योर नहीं हो। समझदारी से काम लो। शादी की उम्र तो अभी शुरू हो रही है और फैसले करने का ढंग तुम्हें अभी सीखना है।
कुछ नहीं सीखना मुझे! नाउ आइ ऐम ऐडल्ट!
सीखने की प्रक्रिया तो जीवन भर चलती है यशी बेटा! मुझे भी अभी बहुत कुछ सीखना है।
तो आप सबसे पहले दूसरों की बात मानना सीखिए! वरना हमारे लिए तो कोर्ट है ही।
झख मार कर डॉ़ धीरज शर्मा ने विकास को बात करने के लिए घर बुलवा लिया। बोले बहुत कम। बस, उसे बोलने को उकसाते रहे और उसकी नि:सार-निराधार बातें सुन-सुन कर उकताते रहे।
देखो विकास बेटा, अपनी बेटी का हाथ मैं उसी हाथ में सौंप सकता हूं जिस के पास कम से कम रोजी-रोटी का स्थाई साधन तो हो ही।
विकास, लो मैं अपना हाथ खुद ही तुम्हें सौंप देती हूं। यशी ने झट से अपना हाथ विकास के हाथ पर रख दिया।
बेचारा पिता पुत्री की अदा को देखता ही रह गया।
यशी और विकास उठ कर चले गए। थोड़ी ही देर में डॉ. धीरज शर्मा को डॉक्टर बुलाना पड़ गया। डॉक्टर उनका मित्र भी था इसलिए इंजेक्श्न, दवा और पानी खुद ही दे गया। साथ ही यह भी समझाता गया कि बच्चों की पसंद के आगे झुक जाने में ही भलाई है।
वे अपनी संतान को खोना तो नहीं चाहते थे लेकिन संतान को डूबने से बचाने का उपाय भी समझ में नहीं आ रहा था।
दवा के प्रभाव से नींद आ गई थी। नींद काफी गहरी और आरामदायक थी तभी आराम-हराम करने वाली घंटी बजी।
डैडी, हम आज ही शादी कर रहे हैं। विकास की मम्मी-वम्मी तो आ ही रही हैं, आप भी चाहें तो आ सकते हैं।
उन्हें कुछ कहने का मौका नहीं दिया गया। फोन कट गया। वे मूर्तिवत् बैठे ही रह गए। अपलक, फूलमाला वाली तस्वीर को देखते हुए।
तय कर लिया कि वे जाएंगे।
बेटी पांच साल की हुई नहीं थी कि उसके लिए गहने गढ़े जाने लगे थे। वे सब इकट्ठा किए। एक लंबा पत्र लिखा बेटी के नाम। पत्र को गहनों के साथ रखा और चले गए। बेटी की शादी में, मेहमान बन कर। उपहार दिया, फोटो खिंचवाई और अपने घर वापस आ गए।
फूलमाला वाली तस्वीर मुस्कुरा रही थी।
तुम मत हंसो प्रिया। तुम मत हंसो मुझ पर! कल से तो सारी दुनिया ही मुझ पर हंसने वाली है।
वे फूट-फूट कर रोते रहे, परंतु उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था कि वे रो क्यों रहे हैं। प्रिया की मृत्यु के कारण या बेटी की विदाई पर, अपने अकेलेपन पर या भविष्य की जगहंसाई पर!
रोते-रोते वे सो गए।
दुल्हन बनी यशी बारात के साथ ससुराल पहुंची। दूल्हे के अतिरिक्त बारात में चार लोग थे। दूल्हे के तीन भाई और मां। ऑटो में ठूंस कर बारात जिस जगह पहुंची वहां उतरते हुए बदबू ने यशी की नाक पर हमला बोला। दो कदम चली तो कीचड़ के गड्ढे ने उसके पैर चूम कर मुंह दिखाई भी कर दी।
(Story by Rashmi Barthwal)
संभल के, सास ने कहा।
कम से कम चलना तो सीख कर आती! देवर ने कहा और ठहाका लगाया।
दहेज का डब्बा भारी हो रहा होगा। लाओ मुझे दे दो! दूसरे देवर ने डैडी का दिया सूटकेस झटक लिया।
सुना है तुम बाप के तक मुंह लगती हो, पर एक बात सुन लो बहू, तुम्हारे भले की कह रही हूं। हमारे घर में किसी के मुंह न लगना। नहीं तो फिर कहोगी हाथ पड़ा, लात पड़ी। हम तो लफड़े नहीं पालते। साफ बात करना जानते हैं, सो तुम्हें बता दिया। यह सास का पहला संवाद था जिसका अर्थ यशी ने समेट लिया, मतलब चुप रहना है बस!
आंगन कच्चा था, मकान पक्का। बिजली के तार झूल रहे थे। बिना प्लास्टर की रसोई की खिड़की से धुंआ निकल रहा था। यशी के लिए यह सब नया था। उसे सब कुछ बहुत रोमांटिक लगा। आंगन के किनारे नीम का पेड़ और पेड़ के नीचे चबूतरा। चबूतरे पर चिड़ियों की ढेरों बीट़….! यह तो इतना रूमानी लग रहा था उसे कि जी चाहा सर से चुनरिया फेंक-फांक कर वह चबूतरे पर चढ़ कर नाचे।
ससुराल से जितने गहने उसे मिले थे, वे सभी उसकी देह पर थे। डैडी के डिब्बे की उसे परवाह ही कहां थी। तीसरे दिन शाम को सबसे छोटे देवर ने उसे घूरा गहने उतारती क्यों नहीं? काले पड़ जाएंगे!
शिट्! सोना सौ साल में भी काला नहीं पड़ता!
उस की बात पर एक नहीं सात-आठ मुंह हंसे। वह कुछ भी समझ नहीं पाई।
सोना? और वह भी तेरे लिए! कह तो ऐसे रही है जैसे बीस लाख नकद लाई हो दहेज में! यह बड़ा देवर था।
तो क्या ये सब नकली हैं? उसने घृणा के साथ पूरी देह हिलाई।
ऐई, होश में आ होश में! उतार इन्हें और डब्बे में रख। चल चौके में काम कर!
विकास इस तरह कड़क कर बोलेगा उसने सपने में भी नहीं सोचा था। प्रतिक्रिया व्यक्त करने से पहले उसने सब तरफ देखा। वातावरण नया था। उसके चारों तरफ चार हट्टे-कट्टे मर्द खड़े थे। बस चुनौती के इंतजार में! ‘हाथ-लात’… उसे सास की बात याद आई और वह प्रतिक्रिया का गला दबोच कर चौके में चली गई।
(Story by Rashmi Barthwal)
एक ओर ईंटें चिनी गयी थीं, उन पर पटरा रखा था। पटरे पर उखड़े पेंट वाला पुराना गैस चूल्हा। तितर-बितर से बर्तन-भांडे। थाली-कटोरियों के साथ पुराने जमाने की पीतल की बाल्टी, कलशे, परात, डेगची। सब-के-सब बुरी तरह घिसे-पिटे। टीन के जंग खाए आठ-दस डिब्बे जिनमें दाल-चावल, मसाले आदि सभी कुछ धन-धान्य भरा हुआ था।
उसने जब से होश संभाला मम्मी की सजी-सजाई सुघड़ रसोई ही देखी थी। मम्मी के बाद डैडी ने उस व्यवस्था को जरा भी नहीं बदलने दिया। हर नौकर-नौकरानी को भी यही सबसे पहले समझाया जाता। कोई डिब्बा टूटता तो उसकी जगह ठीक वैसा ही पारदर्शी डिब्बा रखा जाता। बर्तनों की रैक हटानी पड़ी तो उसकी जगह ठीक वैसी ही सुविधाजनक स्टील की दूसरी रैक रखी गई। हर चीज इतनी सहूलियत से रखी रहती कि अनजान आदमी को भी ढूंढने में परेशानी न हो।
मायके में यशी ने कई बार चाय बनाई थी। दो-चार बार रोटियां भी सेंकी थीं। एक-आध बार दाल-सब्जी भी बनाई थी, पर पूरा खाना़…. सवाल ही नहीं उठता! बनाने की कोई मजबूरी होती तो डैडी बनाते, बेटी मदद भले ही कर दे!
खुशी-खुशी दो लोगों का खाना न बनाने वाली यशी को रो-रोकर छह-छह लोगों का खाना बनाना पड़ता, सुबह-शाम।
भइया गैस इतनी मंहगी हो गई है। हमारे चार-चार पेड़ हैं, एक बार की लकड़ी तो रोज निकल ही सकती है। तोड़ लाऊं? एक दिन छोटे भाई ने कहा।
तोड़ ला। मुटियाने के लिए औरत थोड़े ही लाए है!
एक भाई पेड़ पर चढ़ता, सूखी टहनियां तोड़ता। दूसरा उन्हें बटोर कर चौके में ठूंस आता। तीसरा भाई आंगन में घूम-घूम कर मिट्टी के तेल की पिपिया पर नजर रखता कि कहीं यशी सुविधा से लकड़ी जलाने के लिए उसका दुरुपयोग न कर दे! चौथा भाई खाना बनाने में देर होने पर डांटने का कर्तव्य निभाता।
घर के पीछे थोड़ी ही दूरी से वन विभाग का क्षेत्र शुरू हो जाता था। बाद में मिल-जुल कर भाई लोग वहां से ईंधन चुराने लगे। दोनों समय लकड़ियां जलने लगीं। गैस का चूल्हा सजावटी सामग्री की तरह रखा रहा।
दिन में खाली बैठी रहती है पर दीवारें नहीं पोत सकती! महीनों से देख रही हूं कि शायद आज खुद कर दे, कल खुद कर दे, हमें न बोलना पड़े। पर देखो आखिर बोलना ही पड़ गया।
सास की तरेरती आंखों के आगे वह हकलाई मुझे नहीं आता़…. म्म़.मतलब मुझे पता नहीं कि कैसे होगा! म़…म… मैंने कभी किया नहीं!
उसकी घबराहट के जवाब में एक देवर पीली मिट्टी की बोरी ले आया। दूसरे ने बाल्टी के पानी में मिट्टी घोली, तीसरे ने मिट्टी का लोंदा हाथ में लेकर ईंटों वाली दीवार पर फेंक कर मारा। चौथे ने उस लोंदे के ऊपर कपड़ा रखा और हथेली से उसे दबा-दबा कर दीवार पर गोल-गोल घुमाया।
(Story by Rashmi Barthwal)
अब समझ में आया?
पता चल गया कैसे होता है?
अब तो कर लेगी न?
दूसरी तरह से सिखाना पड़ेगा?
चुनौती, चेतावनी, उपहास और धमकी के साथ चारों भाइयों द्वारा उससे पूछा गया।
चार मर्द। कमर पर हाथ धरे हुए। चारों तरफ खड़े। क्या न कर दें!
यशी ने डर कर गर्दन और आंखें झुका कर कहा कर लूंगी!
तीन भाई चले गए। चौथा उसकी निगरानी और मदद के लिए आंगन में बैठ गया।
फिर यशी यही करती रही। बाल्टी में हाथ डाल कर मिट्टी का लोंदा बनाया, दीवार पर फेंका और फिर उसके ऊपर कपड़े को गोल-गोल घुमा-घुमा कर मिट्टी को दीवार में समा दिया। काली पड़ी ईंटें पीले रंग को नापसंद करतीं, दोनों रंगों में जम कर संघर्ष होता और यशी के लिए यह बहुत जरूरी था कि पीले रंग की जीत हो। उसके जीने के लिए यह जीत अपरिहार्य थी। छह घंटे में आधी रसोई भी पीली नहीं हो पाई। इस बात पर उसे खूब डांट पड़ी और वह थकान से चकनाचूर होते हुए भी ‘हाथ-लात’ के डर से बिल्कुल चुप रही।
दूसरे दिन भी रंगों का युद्घ चला। शाम को उसने आंगन में बैठे परिवार से कहा, हो गया।
छह महीने पहले तक जो प्रेमी था, उसने यशी की गर्दन पकड़ ली बेसऊर, छत की ओर देख!
वहां कैसे कर पाऊंगी!
हमें बताना पड़ेगा? बैठे हुए लोग उठने लगे।
नहीं-नहीं, कोशिश करती हूं। क्क….कक्क….क कर लूंगी।
छत की सजावट में उसने चार दिन लगा दिए। इस अपराध के लिए उसे आठ थप्पड़ खाने पड़े। तीसरे दिन तक उसके गालों पर सूजन रही।
अगले दिन एक भाई चूने की बोरी लाया। दूसरे ने उसे पानी में घोला। तीसरे ने बबूल के झाड़ू को तराश कर कूची बनाई। चौथे ने एक कमरे की दीवार पर सीढ़ी लगा दी। तीन कमरों की पक्की लेकिन ऊबड़-खाबड़ दीवारों की पुताई यशी ने आठ दिन में पूरी की। हर छत में दो-दो दिन लगाए और गालियां खाई। मकान के बाहरी हिस्से में मर्दों ने पुताई की।
यशी के पास बात करने के लिए कोई भी नहीं होता था। कोई बाहरी व्यक्ति उस घर में आता नहीं था और घर के लोगों में से एक उस की निगरानी में हर समय रहता ही था। घर के एक भी व्यक्ति के पास न आय का स्थाई साधन था और न ही किसी के पास कोई विशेष योग्यता थी। नम्रता नाम का तत्व वहां कभी पैदा ही नहीं हुआ था, पर दंभ का पसारा हर समय हर तरफ बना ही रहता था।
यशी के लिए भांति-भांति के छोटे-छोटे पर घोर श्रमसाध्य काम बाहर से लाए जाते जिनसे कि आय अर्जन हो। रीफिल में स्याही भरना, डोर मैट बनाना, वैल्वेट शीट से बिंदियां काटना, मेंहदी के कोन बनाना जैसे काम यशी को सौंपे जाते। ‘शाम तक इतना हो जाय’ इस चेतावनी के साथ। पैसे की सूरत उसे देखने को नहीं मिलती और कुछ पूछने-जानने या मना करने की छूट उसके पास नहीं थी। ‘हाथ-लात’ का आतंक हमेशा ही बना रहता।
उसे डैडी के घर की एक-एक नौकरानी याद आती और वह उनसे मन-ही-मन अपनी तुलना किया करती। हर बार हर नौकरानी से उसकी वर्तमान स्थिति खराब ही निकली। जूट के रेशे लपेटते, बड़े-बड़े कटर्स पर दबाव बनाते, लीपते-पोतते, बर्तन-चौका करते, राख-लकड़ी-कालिख से युद्घ करते उसकी उंगलियां और हथेलियां जितनी खुरदरी हो गई थीं वैसी सात-सात घरों के बर्तन मांजने वाली महरियों की भी नहीं होतीं।
दिन-महीने क्या पूरा साल ही बीत गया पर डैडी ने उससे एक भी बार संपर्क नहीं किया। फोन तो घर में था नहीं, चिट्ठी लिखे भी तो भेजेगी कैसे? विकास पर भी उसका कतई भरोसा नहीं रह गया था। वह भी ‘हाथ-लात’ वाला मर्द ही तो था!
‘हाथ-लात’ के साथ ही विकास ने शादी के साल भर बाद उससे दो टूक बात की ससुरी, अब या तो तू अपने बाप से दो लाख रुपए मांग कर ला या फिर हमें अपना मुंह मत दिखा।
मैं कैसे जा सकती हूं वहां! किस मुंह से जाऊंगी? डैडी अगर नाराज न होते तो कभी न कभी तो आते! पूरे साल भर में मुझे एक बार भी नहीं बुलाया।
बिना दहेज की शादी हो गई। अपनी रकम बचा ली और हमें बेवकूफ बना लिया। वाह, जी वाह! हमें बेवकूफ बनाएगा और खुद धन्ना सेठ बन कर आराम से बैठा रहेगा हरामखोर।
डैडी ने अटैची भर कर गहने दिए तो हैं! सोना कितना मंहगा है! आज तक तुमने दिखाए भी नहीं मुझे तो डैडी के दिए जेवर। साल भर में यह पहला उलाहना था।
देखेगी? ले देख! जी भर कर देख। हाथ-लात के साथ उसकी मरम्मत करते हुए उसके पूर्व पे्रमी और वर्तमान पति ने कहा, भकोस रही है फोकट का मन-मन भर और बात करती है गहनों की! कौन से गहने? किसके गहने? तेरे बाप ने तो खाली अटैची दी थी। समझी तू!
यशी समझ गयी कि मां ने सालों चाव से जो कई-कई गहनों के सैट उसके लिए बनवा कर रखे थे उन्हें वह उसी विवेकहीनता से खो चुकी है जिससे उसने अपने स्नेही पिता को खोया था।
यह दूसरी बार का खोना उतना भयानक तो नहीं था!
जीवन निराधार और निपट असुरक्षित है। डूबते समय कोई तिनका भी नहीं है आशा के लिए। कोई राह नहीं है चक्रव्यूह से निकलने के लिए। हर तरफ आग की इतनी ऊंची लपटें हैं जिन्हें छलांगने का वह सपना भी नहीं देख सकती। अंधकार है तो इतना घना कि उसे भेदने का साहस भाग्य का सूर्य भी क्या करेगा! आगे केवल मौत है लेकिन वह भी मरीचिका की तरह सताने वाली। आती हूं, आती हूं, करते-करते जाने वह कब तक दूर जा-जा कर अट्टहास करती रहेगी। अनंत काल तक मृत्यु उसके साथ चूहे-बिल्ली वाला खेल खेलेगी। वह मौत के लिए छटपटाएगी। भरी जवानी से जाने कब तक! जाने कब तक!
पहली बार यशी के दिल को मम्मी की याद आई।
मम्मी कहती थी, ब्लड रिलेशंस में दिल के कोई तार जुड़े होते हैं, जब भी कोई एक गहरी पीड़ा से गुजर रहा होता है तो दूसरे को भी आभास होता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। रिश्ते जितने सघन होते हैं, आभास उतना ही गहरा होता है।
क्या कहीं बचा रह गया होगा पापा के भीतर भी कोई सूत्र?
क्या कभी छू पाएगा उन्हें मेरे दिल का दर्द?
क्या रह पाया होगा उनके भीतर मेरे जीवन का जरा-सा भी मोह?
पापा अभी होंगे दुनिया में!
रह पाए होंगे?
यह अचानक आया विचार पहली भयानकता पर हावी हो गया और यशी का दिमाग रिवर्र्स ड्राइविंग करने लगा।
पापा-पापा…. अर्धर्मूछत पड़ी काया में कैद उसकी आत्मा खोई हुई बच्ची की तरह सिसकियां भर-भर कर रोने लगी थी।
(Story by Rashmi Barthwal)
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