छोटे शहर के बड़े लोग
-शेखर जोशी
वहां सुबह-सुबह एक आतंककारी दृश्य उपस्थित हो गया था। किसी हिंस्र पशु की तरह वह क्रोध में पागल उस मेज पर टूट पड़ा था।
(Story by Shekhar Joshi)
मछली वाला अभी कुछ देर पहले मेज को अपने सिर पर ढोकर वहां रख गया था और निश्चय ही दुकानदारी का शेष सामान लेने फिर घर चला गया होगा।
मूंगफली वाला अपना टाट पहले ही बिछा चुका था और थैले में बंद मूंगफलियां अभी टाट के एक किनारे पर रखी हुई थीं। लोहे के तसले में रखे हुए उपलों और लकड़ी के टुकड़ों को जलाने के उपक्रम में मूंगफली वाला सामने, सड़क पार, चाय की गुमटी पर गया हुआ था, तभी वह मेज अपनी जगह पर पहुंची थी। अपने टाट की ओर लौटते हुए मूंगफली वाले की दृष्टि ज्यों ही मेज पर पड़ी वह शिकारी जानवर की तरह उस पर टूट पड़ा। उसने पहले मेज को उलट कर सड़क पर फेंका और फिर पूरा जोर लगाकर एक-एक टांग को तोड़ने लगा। मेज सामान्य पैकिंग बक्सों के फट्टों पर चार चौकोर पायों में कील ठोंककर बनाई गई थी। इसलिए उसे छिन्न-भिन्न करने में बहुत श्रम नहीं करना पड़ा। मेज की चौथी टांग को तोड़कर वह उसी से फट्टों पर प्रहार करने लगा। अगल-बगल कतार में ठेलों पर अपनी दुकान लगाए हुए लोग स्तंभित से उसे देखते रहे। किसी में भी उसे रोक पाने का साहस नहींं हो रहा था। लोग आपस में खुसर-फुसर कर रहे थे।
‘‘अत्तर की दम लगाकर आया है। नशे में टुन्न है।’’
‘‘कल शाम से ही दोनों में चख-चख हो रही थी।’’
‘‘वह भी कम गुस्सेबाज नहीं है, अभी आकर न जाने क्या कर देगा!’’
‘‘अरे! गुस्से में आदमी कुछ भी कर सकता है, अभी देखना, मछली-सा चीर कर रख देगा इसे।’’
भय मिश्रित आशंका से सभी मछली वाले के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
उस उनींदे, शांत पहाड़ी कस्बे में सुबह-सुबह यह सनसनी आकस्मिक थी। चौक के चौराहे पर जहां अलग-अलग दिशाओं से आने वाली सवारी गाड़ियों की प्रतीक्षा में लोग खड़े थे, अचानक एक हलचल मच गई। जाड़ों की गुनगुनी धूप में अपनी-अपनी दुकानों के बाहर खड़े दुकानदारों ने लोगों की भीड़ जमा होते देखी तो वे लोग भी अपनी उत्सुकता नहीं रोक पाए और उस छोटे बाजार के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक भगदड़ मच गई। क्या हुआ? क्या हुआ की जिज्ञासा लेकर सभी चौक की ओर दौड़ने लगे।
(Story by Shekhar Joshi)
सर्दियों की एकरस दिनचर्या में यह व्यतिक्रम ताल के स्थिर जल में फेंक दिए गए कंकड़ की तरह कस्बे की जिन्दगी को आन्दोलित कर गया था। र्गिमयों के मौसम की बात भिन्न है, जब पूरा कस्बा सैलानियों की रंगीनी से खिल उठता है और वे लोग सुबह से लेकर देर रात तक बाजार, सड़कों व होटलों के छज्जों में चहकते-फुदकते रहते हैं। तरह-तरह की कारों, वैनों और गाड़ियों की चिल्लपों से कस्बा गूंजता रहता है। सैलानियों की पोशाक, उनका केश विन्यास, उनकी चाल-ढाल लोगों की उत्सुकता और चर्चा का विषय बनी रहती है। शराब, जुआ और रोमांस के कारण आए दिन एक नया शगूफा खिलता है और सीजन खत्म हो जाने पर कस्बे के लोग वर्ष भर फिर इन घटनाओं की जुगाली करते रहते हैं।
गर्मियों के बाद दशहरे की छुट्टियों में एक भिन्न प्रकार के सैलानी आते हैं- पूरी गृहस्थी लेकर। उनका आना कुछ उसी प्रकार होता है जैसे निम्न मध्यवर्गीय परिवार में कोई संभ्रांत रिश्तेदार आ जाए। उनमें गर्मियों में आने वाले सैलानियों का-सा छिछोरापन नहीं होता और न ही अपने पैसे का प्रदर्शन। लेकिन उनकी यह पारिवारिक उपस्थिति कस्बे में एक उत्सव का-सा वातावरण पैदा कर देती है। सर्दियों में जब सीजन पूरी तरह समाप्त हो जाता है और अधिकांश स्थानीय लोग भी ठंड से बचने के लिए मैदानी क्षेत्रों में चले जाते हैं तो कस्बे का सूनापन और भी बढ़ जाता है।
कस्बे के सन्नाटे को एक छोटी-सी घटना ने एकाएक भंग कर दिया था। छोटे-छोटे समूहों में एकत्रित लोग दोनों प्रतिद्वंद्वियों के पक्ष-विपक्ष में अपना मत प्रकट करने लगे थे। सभी लोग किसी आसन्न विपत्ति से आशंकित प्रतीत हो रहे थे।
यह दुर्घटना अकस्मात् नहीं घटित हुई थी। कई दिनों से उन दोनों में मनमुटाव चल रहा था। मूंगफली वाले का फड़ किंचित ढलान पर था और किसी दिन मछली वाले की मेज से रिसता हुआ पानी उसके टाट को भिगो गया था। ऊपरी तौर पर भले ही यही कारण रहा हो लेकिन मौसम में मछली वाले की बढ़ती हुई बिक्री ने मूंगफली से होने वाली सीमित आय वाले को ईष्र्यालु पड़ोसी रूप में परिर्वितत कर दिया था। बीती शाम भी उन दोनों के बीच चख-चख मची थी और एक-दूसरे को देख लेने की धमकी के साथ वे लोग हटे थे।
(Story by Shekhar Joshi)
यह एक संयोग ही है कि ये दोनों पड़ोसी दो भिन्न सम्प्रदाय के थे।
मछली वाले का घर काफी दूरी पर रहा होगा या संभव है कि वह माल लेने कहीं और चला गया हो। उसके लौटने में विलंब हो गया। जो लोग शंकित मन से उसके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे, धीरे-धीरे उस स्थान से हटकर बाजार में अन्यत्र टहलने लगे। बाजार में अब चर्चा के दो मुख्य केन्द्र हो गए थे। एक केन्द्र हाजी जी का बिसातघर था और दूसरा पाण्डे जी की पान की दुकान के बाहर।
लोग अब स्पष्ट रूप से दो धड़ों में बँट गये थे। कुछ लोग जिन्हें मांस-मछली से परहेज था और खुलेआम मछलियों की प्रदर्शनी और काट-पीट के पक्ष में नहीं थे, मूंगफली वाले के पक्ष में हो गए थे। ऐसे भी लोग थे जिन्हें मूंगफली वाले का उद्दंड व्यवहार और उसकी नशाखोरी पसंद नहीं थी वे मछली वाले की र्आिथक क्षति को लेकर दु:खी थे।
हाजी जी अपनी बिरादरी के मुखिया के रूप में माने जाते थे। इसलिए मछली वाले के हितैषी उन्हें घटना की जानकारी देने उनकी दुकान पर पहुंचे थे। यद्यपि कस्बे में उनकी बिरादरी के बहुत थोड़े ही घर थे लेकिन फिर भी वहां के सामाजिक जीवन में उन लोगों का अपना महत्व था। जहां ईद और मुहर्रम के अवसर पर दूसरे सम्प्रदाय के लोग उनके त्यौहार-पर्व में शामिल होते, वहां वे भी होली-दीवाली और रामलीला में समान रूप से अपनी भागीदारी का निर्वाह करते। हाजी जी स्वयं रामलीला कमेटी के सामान्य सदस्य थे और उनका बेटा समद हर साल रामलीला में तबले की संगत करता था। लेकिन इसके बावजूद कुछ ऐसे लोग थे जो चाहते थे कि मामला यूं ही शांत न हो जाए। ये लोग बढ़-चढ़कर अपना विरोध प्रकट कर रहे थे।
बस्ती में सनसनी फैलाने में कुछ ऐसे लोगों का भी हाथ था जो सिर्फ मौज-मस्ती के लिए इस घटना को जमाने की हवा के अनुसार एक व्यापक संदर्भ देने का प्रयत्न कर रहे थे। रामलीला में जोकर की भूमिका निभाने वाला ख्यालीराम, जो सामान्य जीवन में भी जोकर-सा ही व्यवहार करता था, चौक से लौटते हुए हर बार ‘क्या हुआ?’ के उत्तर में ‘‘यहां भी हो गया, छ: दिसम्बर वाला अयोध्या काण्ड हो गया’’ कहता जा रहा था।
(Story by Shekhar Joshi)
कस्बे की मंथरा परुली अभी न जाने कितने घरों में सूचना दे आई थी कि सारे मुस्लिम हाजी जी की दुकान में जमा हो गए हैं और वे लोग रामपुर को फोन मिला रहे हैं।
मांओं ने सड़क पर खेलते बच्चों को घर के अंदर बुला लिया था और कई जोड़ा आंखें छज्जों, बारजों से बाजार की ओर झांकने लगी थीं।
किसी बुजुर्ग ने राय दी कि इस घटना की सूचना पुलिस चौकी में दे दी जाए ताकि पुलिस हस्तक्षेप से किसी प्रकार की अनहोनी टल सके। लेकिन पुलिस चौकी की दूरी और किसी भी क्षण कुछ हो सकने की उत्सुकता के कारण किसी ने बुजुर्ग की बातों पर ध्यान नहीं दिया।
अचानक किसी की नजर नाले पार पहाड़ी ढाल पर सिर पर बोझा लेकर आते हुए मछली वाले पर पड़ी। सब लोग फिर चौक की ओर चल पड़े। मूंगफली वाला सशंकित लेकिन चुपचाप अपने फड़ पर बैठा हुआ तसले की आग को कुरेद रहा था। लोग कभी उसे और कभी निकट आते मछली वाले की ओर टकटकी लगा कर देख रहे थे और अगले क्षणों में जो होने वाला है उसकी अपने ढंग से कल्पना कर रहे थे।
अब मछली वाला बिल्कुल निकट आ गया था। वातावरण में सन्नाटा छाया हुआ था। मूंगफली वाला अब भी दीवार से पीठ टिकाए धीरे-धीरे आग को कुरेद रहा था।
अपने सिर का बोझ सड़क किनारे की दीवार पर टिका कर मछली वाले ने टूटी मेज के टुकड़ों की ओर देखा। वह कुछ अनुमान लगा ही रहा था कि बुजुर्ग खां साहब की आवाज सुनाई दी-
‘‘अरे लड़को! तुम लोगों में से किसी ने उस ट्रक का नंबर भी नोट किया कि नहीं?’’
तब तक पान वाले पांडे जी की आवाज सुनाई दी, ‘‘अजी, किसे होश था नंबर नोट करने का? सबको अपनी जान की पड़ी थी। एकदम भड़ककर बैक किया उसने और वैसे ही आंधी-तूफान की तरह भगा ले गया।’’
कोई तीसरा बोला, ‘‘टिंचरी पीकर चलाते हैं ससुरे। बैठे-बिठाए गरीब आदमी का नुकसान हो गया।’’
‘‘खैरियत मनाओ भइया, जान बच गई। ये यहां होते तो क्या होता! चार पैसे की लकड़ी की मेज ही तो टूटी। फिर बन जाएगी। अभी हम दुर्गा मिस्त्री से बनवा देते हैं। पर तुम लोगों को नंबर जरूर नोट करना चाहिए था यार! खां साहब ठीक कह रहे हैं।’’ यह एक दूसरे बुजुर्ग का स्वर था।
लोग सहानुभूति दिखा रहे थे और एक-दूसरे की बात की ताईद कर मुस्करा रहे थे। मछली वाला कभी अपनी टूटी मेज को देखता, कभी आस-पास खड़ी भीड़ को और कभी मूंगफली वाले को। वह जैसे कुछ भांप रहा था लेकिन इस विशाल जनमत के विरुद्ध एकाएक कुछ कहने का साहस नहीं कर पा रहा था।
थोड़ी ही देर में कोई दुर्गा मिस्त्री को लेकर आ पहुंचा और मेज की मरम्मत होने लगी और धीरे-धीरे भीड़ छंट गई।
हवा में बहुत ठंडक थी। लोग कब तक वहां खड़े रहते।
(Story by Shekhar Joshi)
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