बिन सम्बोधन-कहानी

सुजाता

तुम्हें क्या लिखकर पत्र शुरू करूँ- समझ में नहीं आया। बस सीधे जो बात कहना चाहती हूँ उसी पर आती हूँ। कल कॉलेज जाते हुए रास्ते में रघु चाचा मिल गये थे, मेरा ही इन्तजार कर रहे थे। तुम्हारे बारे में बताने लगे। बहुत बीमार हो गई, चल भी नहीं पाती हो। सीधा हाथ अब ज्यादा ही काँपने लगा है, दिखाई भी न के बराबर ही देता है, गले से खाना नहीं निगला जाता है। बस थोड़ी बहुत कुछ पी ही पाती हो…… वगैरह…वगैरह… और भी बहुत कुछ। आखिर में बोले, तुम कुछ ही दिनों की मेहमान हो- और हाँ, तुम्हारे आश्रम की दो महीने की फीस भी बकाया है। मैंने झट से बकाया फीस के 4,000 रुपये रघु चाचा के हाथ पर रख दिए और कहा- ‘इस बार आप ही देकर आएँ, मैं नहीं जा पाऊंगी।’ वो कुछ और कह पाते, मैं तेजी से निकल गई। कॉलेज के लिए देर भी हो रही थी और मैं कुछ सुनना भी नहीं चाहती थी। सच कहूँ तो तुम्हारा जिक्र आते ही मेरे शरीर की सारी इन्द्रियाँ काम करना बन्द कर देती हैं। सारी भावनाएँ शून्य हो जाती हैं- पत्थर सी। बहुत लम्बा समय लगा मुझे यह सब सीखने में और अपने आप को साधने में।

मैं बड़ी थी और दीपू छोटा। छुटपन का तो बहुत साफ याद नहीं, पर चार साल की मैं बड़ी बहन अपने से दो साल छोटे भाई की ‘बहुत बड़ी’ बहन बन गई थी। तुम्हारी और बाबा की रोज-रोज की लड़ाई, मारपीट, गन्दी गालियाँ, सामान की तोड़-फोड़, हर रोज मुझे तेजी से डरावने भय के साथ बड़ा कर रही थीं। तुम खुद शिक्षिका थी और बाबा भी सरकारी अफसर। बाहर से हमारा परिवार आदर्श था- दो प्यारे बच्चों का परिवार। उस उम्र में समझ ही नहीं आता था कि ऐसा क्यों हो रहा है? दिनभर तुम्हारा और बाबा का इन्तजार करना और शाम को सहम कर अपने कमरे में दीपू को अपने से चिपकाये दुबके रहना। गिरिजा आंटी वहीं खाना दे जाती थी और जल्दी सोने की हिदायत भी। तुम्हें पता है क्या, मुझे और दीपू को खाने में क्या पसंद था? और क्या नहीं? कैसे पता होगा, तुमने कभी खिलाया ही नहीं, एक कौर भी कभी मुँह में नहीं डाला। लोरी सुनाना, थपकी देकर सुलाना, बालों में उँगली फेरना, गुदगुदी कर हँसना, गले लगा लेना, जिद करना, पैर पटक कर भागना- ये शब्द मैंने बड़े होकर किताबों से जाने, पर कभी महसूस नहीं किये।

लड़ाई का कारण सिर्फ अहंकार था, जो तुम दोनों में भरा था। अपनी नौकरी का अहम्, अपनी उच्च शिक्षा का अहंकार, अपनी खूबसूरती, मॉडल जैसे व्यक्तित्व का घमण्ड, बैंक बैलेंस का, समाज में प्रतिष्ठा का, ढेर सारे दोस्तों का, बड़ी गाड़ियों का… और तो और हमारा भी- एक बेटा-बेटी होने का अहम्। बाबा की शराब बढ़ती गई और तुम्हारा घर से बाहर रहना। गिरिजा आंटी के आस-पास मेरा और दीपू का जीवन सिमट गया। नन्हे-नन्हे हमारे हाथों में सुबह वही स्कूल बैग थमा देती और कीमती पानी की बॉटल भी। हम दोनों एक ही स्कूल में जाते, शहर के सबसे महंगे स्कूल में। स्कूल वैन में बैठते ही मैं और दीपू सीट पर और ज्यादा धँस जाते। हर घर से स्कूल वैन में बच्चों को बैठाने उनके माँ या बाबा आते- गोद में उठाये, उनके आँसू पोंछते, मुस्कुराते हुए हाथ हिलाते, गले लगाकर जल्दी आने को कहते… हर घर के बाहर हम और भी सीट में सिमट जाते। कई बार मन हुआ कि तुमसे और बाबा से बात करने का, ढेरों सवाल पूछने का, जिद करने का, यह कहने का कि गिरिजा आंटी अच्छा खाना ‘लंच बॉक्स’ में नहीं देती है और बच्चे बहुत कुछ अलग-सा खाने को लाते हैं- पर कभी कुछ नहीं कह पाई। दीपू कभी-कभी मुझसे जिद कर लेता था- मेरी पेन्सिल लेता, मेरे बिस्तर पर सोता, मुझसे अपना होमवर्क करवाता, जबरदस्ती लूडो खिलाता- पर मैं कभी नहीं कर पाई।

कई बार घर में दादी, मामा, चाचा आते- मीटिंग होती। तब हमें जोशी अंकल के घर भेज दिया जाता था। उनके दोनों लड़के हमारी ही उम्र के थे। हम वहीं खाना खाते व कई बार तो वहीं सो भी जाते थे। जोशी आंटी हमें प्यार करती थी। कभी-कभी वह हमारा सिर सहलाती और मेरा हाथ पकड़कर कई बार समझाती थी- ‘देखो तुम बड़ी हो तुम्हें बहुत समझदार बनना है, छोटे भाई को भी सम्भालना है।’ ये बातें तब मेरी समझ में नहीं आई। पर हाँ कभी-कभी मैं खुद ही सोचती, काश, जल्दी-जल्दी मीटिंग हो और हम जोशी आंटी के घर सबके साथ बैठकर खाना खाएँ और बिना लड़ाई-झगड़े सुने सो भी जाएँ। जोशी अंकल अपने दोनों बेटों के साथ खूब मस्ती करते, कभी कैरम खेलते, कभी कुश्ती कर दोनों को हरा देते। मैं और दीपू भी ताली बजाकर खूब खुश होते- ये हमारे लिए बिलकुल अजूबा था। पर बहुत अच्छा लगता था।
(Story by Sujata)

एक दिन घर पर फिर मीटिंग थी, उससे पहले तीन-चार दिन से बहुत झगड़े हो रहे थे। तुम और बाबा काम पर भी नहीं जा रहे थे। दो दिन तो खाना भी नहीं बना था। गिरिजा आंटी हमें फल, दूध और डबलरोटी खिला रही थी। बीच-बीच में तो मारपीट, चीखने और गन्दी गालियों का शोर पहले से ज्यादा और लम्बा भी चला। कभी तुम्हारे रोने की आवाजें आती, तो कभी बाबा की। हमें अगली सुबह ही जोशी आंटी के घर भेज दिया गया। मैं मन ही मन बहुत खुश हुई थी। मैं खुद ही इस शोर से बाहर रहना चाहती थी। दीपू भी मेरा हाथ मजबूती से पकड़े तेज़-तेज़ मेरे साथ चल दिया, जैसे वह भी घर से भागना चाहता था। रात को हम वहीं सोए। जब सुबह उठे व नाश्ते के बाद जोशी आंटी ने आँखों में आँसू भरकर कहा था- ‘पता नहीं, तुम दोनों से कब मिलना होगा, अपना ध्यान रखना। बड़े हो जाओ तो जरूर मिलने आना- और हाँ अच्छा इंसान जरूर बनना।’ मैं थोड़ी सहम गई थी क्योंकि उनकी आँखों में आँसू थे। मैं भी रो पड़ी थी और मुझे रोता देख दीपू भी रो दिया। आंटी ने हमें गले लगा लिया, बड़ा सुकून मिला था। घर वापस आए तो सन्नाटा था। दो बड़े बैग पैक थे- मेरे लिए। मेरे कपड़े, किताबें सब समेटे जा चुके थे। हमारी जिन्दगी का बड़ा फैसला हो गया था। मुझे दादी के साथ दूर शहर चले जाना था और दीपू को उसी घर में तुम्हारे साथ रहना था। बाबा को घर छोड़ना था। जहाँ उनकी नौकरी थी, वो वहाँ चले गए, बिना हमसे मिले। न किसी ने हमसे पूछा, न हमने कुछ कहा- सब तय हो चुका था। दीपू ने भागकर मेरा हाथ पकड़ लिया था- ‘‘दीदी, मैं भी साथ जाऊँगा।’’ वह रो पड़ा था- मैं भी सिहर गई। दीपू से अलग होने का मतलब ‘अधूरा’ हो जाना था। पर किसे कहते, कौन सुनता? तुम तो कमरे से निकलकर बाहर भी नहीं आई। दादी और चाचा के साथ बैग में मैं अपना बचपन, यादें और दीपू का साथ- सब समेट लाई। अजनबी शहर, नए लोगों का साथ, नया स्कूल- फिर से जीवन शुरू हुआ। मैं दादी के साथ संकरी गली के घर में नीचे की मंजिल में रहती थी। ऊपर चाचा-चाची और उनकी एक बेटी, जो दीपू से छोटी थी। दादी के खुरदरे हाथ की मजबूत पकड़ मेरे लिए बड़ा सहारा थी और मेरा साथ उनके लिए बड़ा सबल। दादा जी बहुत पहले ही गुजर गए थे, धीरे-धीरे दादी से मेरी नजदीकियाँ बढ़ीं। मैं तब 9वीं में थी। दादी ने मेरी पढ़ाई और खाने से कभी समझौता नहीं किया। दादीजी की पेन्शन से हमारा घर चलता था। मेरी और दादी की एक अलग दुनिया थी- बस मेरे लिए एक बड़ी शर्त उन्होंने तय की थी कि कभी तुम्हारे बाबा और दीपू के बारे में बात न करूँ। दीपू का जिक्र तो मैं कभी-कभार कर ही लेती थी, वह चश्मे से मुझे घूर देती और कभी-कभी मुस्कुरा कर डांट देती- ‘‘फिर दीपू।’’

मैंने बारहवीं अच्छे नम्बरों से पास कर कॉलेज में दाखिला ले लिया था। स्कूल में सभी मुझे कुछ ज्यादा ही पसन्द करते थे। इसका कारण यह था कि न तो मेरी ज्यादा सहेलियाँ थी, न मैं कोई जिद करती थी और न ज्यादा बात। सहमी-सी रहती। आँख मिलाकर तो मैंने कभी किसी से बात नहीं की होगी- बस पढ़ना और घर वापस आना। धीरे-धीरे मुझे कहानियाँ पढ़ने का शौक हो गया। इसी बहाने आस-पास के एक-दो घरों में मैं किताबें माँगने जाने लगी थी। चाची के पास भी मैं कभी-कभी ऊपर चली जाती, वो मुझे पसन्द करती थीं और उनकी बेटी भी मुझे देखकर खुश होती थी। एक दिन चाची से पता चला कि- ‘दीपू ने तो अभी हाईस्कूल भी पास नहीं किया है फेल होता रहता है। सुना है बिगड़ गया है।’ सुनकर बहुत बुरा लगा था। मन किया कि भागकर दीपू के पास जाऊँ और कान पकड़कर पूछूँ- ‘पढ़ते क्यों नहीं हो?’ पर आँसू आँख में भर मैं घर लौट आई थी। तुम घर से बाहर ही ज्यादा समय बिताने लगी थी, ज्यादा सामाजिक हो गई थीं और प्रसिद्ध भी। बाबा ने भी किसी तलाकशुदा से दूसरी शादी कर ली थी। मेरी बी.एस-सी. की परीक्षा खत्म हो गई थी। एम.एस-सी. के लिए यूनिवर्सिटी के बारे में पता किया जा रहा था। इन्हीं दिनों एक दिन मामा दीपू को लेकर घर आए थे, बैग सहित। ये दीपू ही था- हड्डियों का ढाँचा, झुलसकर काला पड़ चुका था, लड़खड़ाकर बोलता हुआ- मैं जड़ हो गई थी। मामा ने खूब दादी को कोसा था- ‘यह आप का ही गन्दा खून है।’ तीन साल लगाकर ‘नशामुक्ति केन्द्र में रखा’ तब भी नहीं सुधरा। अब मरना ही है इसे तो आप ही के घर मरे, हम क्यों सम्भालें। न इसकी माँ को सुध है न बाप को। लावारिस है ये तो।  वे खूब चिल्लाए, चीखे और चले गए। जिन्दगी में मैं इतना कभी नहीं रोयी थी जितना उस दिन दीपू को गले लगाकर रोयी। दीपू भी खूब रोया। वैसा ही भोला सा दीपू था जैसे छोटे में था, दादी भी हमारे साथ गले मिलकर रोती रही। मैंने पहली बार दादी से प्रश्न किया था- ‘क्यों नहीं लाए हम अपने साथ दीपू को भी?’ दादी झुर्रियों भरे गालों से सिर्फ आँसू ही बहाती रहीं। क्यों  तुमने उसे नशे की आदत डालने दी और फिर ‘नशा मुक्ति केन्द्र’ में डाल दिया? तुम एक बार भी उससे मिलने नहीं गई क्योंकि समाज में तुम्हारी बेइज्जती हो जाती। मामा ही जाते थे। केन्द्र वालों ने भी एक दिन उसे घर ले जाने को कह दिया था। दीपू की हालत दिन पर दिन बहुत खराब होती गई। मैंने और दादी ने कैसे सहन किया जिन्दगी का वो कटु सत्य और असहनीय समय- दीपू की दर्दनाक चीखें, उसका तड़पना, डॉक्टर का लगातार आकर इंजेक्शन लगाना…. याद आकर भी मेरी रूह कांप जाती है। मैंने दीपू को मरते देखा था, मैंने दादी के लगातार आँसुओं को सूखते देखा था। एक बार चाचा ने आकर कहा था- ‘बेटी, एक बार भाभी और भैया को इसकी खबर तो कर देते।’ मैं पहली बार चिल्लाई थी- ‘नहीं, वे दोनों यहाँ कभी नहीं आ सकते। दादी की कसम कभी नहीं टूटेगी।’ पर दीपू जिन्दगी से टूट गया था। मरते समय उसकी हथेलियाँ मेरे हाथ में बन्द थी, वही छोटे से दीपू की हथेलियों का नरम स्पर्श। दादी ने उसके बाद बिस्तर पकड़ लिया था। मैं कैसे जिन्दा रही- हैरान हूँ। पी.एच.डी. के बाद जब कॉलेज में मेरी नौकरी लगी, उस दिन दादी की आँखें भर आई थीं। शायद इस अहसास के साथ कि उनकी जिम्मेदारी पूरी हुई। जिन्दगी चलती गई- दीपू का चेहरा, उसकी दर्द भरी चीखें मुझे कितनी ही रातों को भी जगाकर रुला जाती थी। कॉलेज में ही मेरे साथी जय ने शादी के लिए मुझसे कहा था। पर मैं शादी, पति-पत्नी, घर- जैसे नामों से ही डरने लगी थी। दादी की कसमें और जय के वादों के बाद, मैं किसी तरह शादी के लिए तैयार हुई थी। शादी के महीने भर के अन्दर ही दादी भी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर यह संसार छोड़ गई। वो गली, वो घर, पड़ोस फिर छूट गया था। मुझे जय के घर वह सब मिला जो कभी मेरी कल्पनाओं में भी नहीं था, सबसे बड़ा था- मेरा आत्मविश्वास और आत्मसम्मान।
(Story by Sujata)

जिस दिन डॉक्टर ने कहा कि मैं ‘माँ’ बनने वाली हूँ मुझे बड़ा डर लगा था। बहुत रोई थी मैं जय का हाथ पकड़कर। तब उन्होंने कहा था- ‘यह तुम्हारी अकेले की जिम्मेदारी नहीं है हम दोनों मिलकर निभाएंगे।’ मैंने पहली बार उनसे जिद करके अपना निर्णय सुनाया था- ‘मैं नौकरी छोड़ दूंगी, मुझे हमेशा बच्चे के पास ही रहना है।’ जय हँसकर मान गए थे। मैं हमेशा अपनी दोनों बेटियों के आस-पास ही रही। उन्हें गुदगुदाना, गले लगाना, उन्हें चिढ़ाना, लोरी सुनाना, इस बहाने मैं भी बचपन जी जाती थी। हमारी खिलखिलाहट के बीच मुझे दीपू मुस्कुराता नजर आता था। वो आज भी मेरी दोनों बेटियों का बहुत प्यारा-सा ‘मामा’ है।

रघु चाचा से ही पता चला था कि बाबा की कार एक्सीडेंट में मौत हो गई है। चाचा-चाची शायद गये भी थे। पर उन्होंने मुझे कुछ नहीं बताया क्योंकि वे जानते थे कि मैं कुछ जानना भी नहीं चाहती हूँ। फिर एक दिन तुम्हारे बारे में भी बताने आए। तुम्हें लकवा मार गया है। शरीर का सीधा हिस्सा सुन्न हो गया है। दिखता भी कम है। देखभाल करने वाला कोई नहीं है। नौकर भी नहीं टिकते क्योंकि तुम्हारा ‘अहम्’ अभी घटा नहीं है। उन्हीं ने कहा था- ‘बेटी, उसे वृद्ध आश्रम छोड़ आते, वहाँ रहना ठीक होगा।’ मामा-मामी ने तुम्हारे घर पर कब्जा कर लिया था पर तुम्हारी हालत से उन्हें कोई मतलब नहीं था। वृद्धाश्रम में डालने की फीस भी जय के कहने पर मैंने दी थी। बेटियों के कॉलेज जाने के बाद दोबारा मुझे मेरे कॉलेज वालों ने बुला लिया था। तुम्हारा सीधा हाथ काम भी नहीं करता था तो तुम ‘साइन’ कर अपने रुपये भरे बैंक का कैसे इस्तेमाल करती। बहुत बार फीस देने तुम्हारे आश्रम के ऑफिस तक आई। पर सच कहूँ कभी मिलने का मन नहीं किया, इसलिए नहीं कि तुम्हें इस हालत में नहीं देख सकती थी, तुम्हें विकलांग देखकर मैं पसीज जाती, ऐसा कुछ भी नहीं… बस मैं तुमसे मिलना ही नहीं चाहती थी। तुम्हारे और मेरे बीच दीपू की चीखें हैं, दर्द भरी कराहटें हैं- उसकी मौत पसरी पड़ी है। ऐसा ही बाबा और मेरे बीच रहा- उनकी मौत की खबर ने मुझे जरा भी नहीं हिलाया- न मन से न मस्तिष्क से।

आज जब टेलीफोन पर आश्रम वालों ने बताया, तुम्हारी हालत काफी खराब है। तुमने कई दिनों से कुछ खाया नहीं है। मुझे लगा कि तुम्हें ऐसे नहीं जाना चाहिए। तुमने कभी आमने-सामने बैठकर बात करने का बचपन में तो मौका नहीं दिया, पर मेरे लिए आज जरूरी था कि तुम तक अपनी ये सारी बातें पहुँचाऊँ। दीपू की मौत के बाद तुम्हें और बाबा को मैं कभी नहीं भूली- बार-बार याद किया, घृणा से ही सही। यह चिट्ठी लिखकर मैं आश्रम की सेविका को इस निवेदन से देकर आयी हूँ कि तुम्हें जरूर पढ़कर सुनाएँ। यह जरूर बताएँ कि रिश्ते शरीर का हिस्सा होकर नहीं बनते- वे सहेजे जाते हैं, संवारे जाते हैं और निभाए जाते हैं। उनमें चीखों का दर्द नहीं होता- गुनगुनाहट होती है- स्पर्श की, बातों की और जिम्मेदारियों की।

मैं तुम्हें कोई सम्बोधन क्यूँ दूँ?

प्रिया
(Story by Sujata)

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