सुनो मेरी कहानी : मेरी जुबानी
चन्द्रकला
‘‘मैं यह कहती हूं कि यह व्यक्तिगत कहानी नहीं है…. मैं लोगों को उस अनुभव के बारे में बताना चाहती हूं जो हमने बोलीविया में अनेक संघर्षों के दौरान हासिल किया और उम्मीद करती हूं कि हमारा यह अनुभव किसी भी तरह से आने वाली नई पीढ़ी के काम आए।…. सबसे गरीब लोगों तक यह पहुंचे़..ज़ो उन्हें भविष्य के लिए तैयार कर सके। उनके लिए ही मैं कहानी लिखने को राजी हुई हूँ।’’
दक्षिण अमरेरिका के दक्षिण कोने में स्थित एक देश बोलीविया की एक खदान में रहने वाली एक औरत के जीवन संघर्ष की कहानी को कहती एक पुंस्तक है- ‘‘सुनो मेरी कहानी : मेरी जुबानी’। डोमितिला बैरियोस डी चुन्गारा की यह कहानी मोएमा वीज्जोर के साथ दिये गए साक्षात्कार से उपजे ब्यौरों पर आधारित है।
डोमितिला बैरियोस 1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मैक्सिको में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष ट्रिब्यूनल में शामिल हुई थीं। उनका जन्म 7 मई 1937 को सिंगलो (एक खनन शिविर) में हुआ था। 1960 में उन्होंने एक खनन मजदूर से विवाह किया, वह सात बच्चों की माँ थी। ‘‘पहाड़ों में बहुत सर्दी पड़ती है अत: हम पुआल के बिस्तर बनाते हैं। असली गद्दे तो 800 से 1000 पेसो के मिलते हैं, हम उसे नहीं खरीद सकते़…पर हम क्या कर सकते हैं हम उन्हीं गददें की इधर से उधर मरम्मत करते रहते हैं।….’’ खनन केन्द्र में रहते हुए मजदूरों एवं उनके परिवार की बुरी परिस्थितियों ने उन्हें वहां मजदूरों के साथ संघर्ष करने वाली संस्था ‘‘हाउसवाइव्ज कमेटी’’ में सक्रिय कर दिया था। वह सिंगलो की इसी कमेटी की तरफ से प्रतिनिधि के रूप में ट्रिब्यूनल में आयी थी। यह कमेटी बोलविया के टिन खदान के मजदूरों की पत्नियों का एक संगठन है। उनके वर्षों लम्बे संघर्ष और प्रतिबद्घता के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ ने उनको आमन्त्रित किया।
(Story of Domitila Barrios)
इस किताब को पढ़ते हुए ऐसा मालूम होता है कि एक मजदूर महिला संघर्ष के लक्ष्य के प्रति बेहद स्पष्ट होती है। उसका जीवन संघर्ष उसको सिखा देता है कि उसका दोस्त कौन है और दुश्मन कौन है। ‘‘मुझे इस बात का गर्व है कि मेरे हृदय में इंडियन खून है। मुझे एक खनिक की पत्नी होने का भी गर्व है। हर किसी को अपने होने का गर्व होना चाहिए और उन लोगों की नकल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए जिन्होंने समाज में बहुत कम योगदान किया है।’’
ट्रिब्यूनल में बोलीविया के प्रतिनिधि के रूप में वह मजदूर वर्ग की एकमात्र महिला थी। वहां उनका सामना बेहद पढ़ी-लिखी डाक्टर, वकील एवं अन्य पेशेवर व नारीवादी बुर्जुवा महिलाओं से होता है। वहां पर वह औरतों की मुख्य समस्या के रूप में मध्यवर्गीय सोच से टकराती है और डोमीताला अपनी वर्गीय सोच को स्थापित करती है। उन्होंने ट्रिब्यूनल में जो भी स्थापित किया उससे यह स्पष्ट होता है कि नारी की मुक्ति जनता की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक मुक्ति से जुड़ी है। ‘‘आरम्भ में हमारी मानसिकता थी कि औरतें घर का काम करने, बच्चे पालने और खाना बनाने के लिए ही बनी हैं। उनमें सामाजिक यूनियन या राजनीतिक प्रकृति की अन्य चीजें आत्मसात करने की योग्यता नहीं होती। लेकिन आवश्यकता ने हमें संगठित कर दिया, इसको करने में हमने बहुत परेशानी उठाई।’’
(Story of Domitila Barrios)
‘‘मैं साल्टेनास (बोलीविया में बनाई जाने वाली छोटी कचौड़ी) बनाकर बेचती हूँ। मैं और मेरे पति जो कमाते हैं, उससे हम केवल खा-पहन ही पाते हैं। इस तरह मैं सुबह 8 से 11 बजे तक साल्टेनास बेचती हूँ और सामान खरीदती हूं और ‘‘हाउसवाइव्ज कमेटी’’ का काम भी करती हूँ। वहाँ सलाह माँगने आई बहनों से बातचीत करती हूँ।…. ज्यादातर औरतों को मदद के लिए कुछ न कुछ करना पड़ता है। जैसे- मैं साल्टेनास बनाती हूँ, कोई सिलाई करती है, कोई बुनाई, तो कोई कालीन या कम्बल बनाती है़…. अगर कोई औरत काम नहीं करती तो उसकी हालत बहुत खराब हो जाती है।’’
पत्रकार मोएमा बीज्जोर का मानना था कि इस किताब का बड़ा हिस्सा इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि ‘डोमितला ने उन सबको जिया था, जिसके बारे में बाकी औरतें बात करती थीं। यह पुस्तक केवल साक्षात्कार ही नहीं है बल्कि ट्रिब्यूनल में उनके द्वारा दिये गये भाषणों का इसके साथ ही मजदूर समूहों, छात्रों, कर्मचारियों, मजदूर मोहल्लों में लोगों, मैक्सिको में निर्वासित अमरिकियों, पे्रस, रेडियो एवं टेलीविजन के प्रतिनिधियों से उनकी बातचीत और बहस का संग्रह है तथा सारी सामग्री टेप पर आधारित है।
डोमितिला की भाषा एक आम औरत की भाषा है, उसकी अपनी अभिव्यक्ति है, अपनी स्थानीयता और व्याकरण है। उनका मानना है कि ‘‘अपने स्वयं के इतिहास से अनुभव ग्रहण करना महत्वपूर्ण होता है।’’ साथ ही ‘‘दूसरों के अनुभवों से सीखना भी’’ और ‘‘ऐसे साक्ष्य होने चाहिए जो हमारे अपने कामों को प्रतिबिम्बित करे और उनकी आलोचना करे।…. हम औरतें, पुरुषों की काम्पानेरा, उनके काम में सहयोग करती हैं। बचपन से ही हमें इसी विचार के साथ बड़ा किया गया है कि औरतों का काम खाना पकाना और बच्चों को पालना है, हम महत्वपूर्ण कार्यभार लेने के अयोग्य हैं और हमें राजनीति में शामिल नहीं होना चाहिए।…. और तब उन्होंने सिंगलो की ‘हाउसवाइव्ज कमेटी’ का गठन किया।’’
(Story of Domitila Barrios)
डोमीताला जनता के अनुभवों के विद्यालय में पढ़ी थीं। खनन क्षेत्र की एक गृहिणी के रूप में रोजमर्रा के कठिन, एकरस और उबाऊ काम करते हुए उन्होंने यह अहसास किया कि केवल मजदूर ही उत्पीड़ित नहीं है, यह व्यवस्था औरत और उसके परिवार को भी उत्पीड़ित करती है। वह खनिक यूनियन आन्दोलन या सिंगलो की ‘हाउसवाइव्ज कमेटी’ का ऐतिहासिक आकलन पेश करने का बहाना नहीं करतीं बल्कि जो कुछ भी कहती हैं, वह जीवन और उसका प्रतिबिम्ब है। ‘‘मेरी मां के मरने के बाद लोग हमें देखते तो कहते, ‘ओह! बेचारी पांच लड़कियां, कोई लड़का नहीं ! वे क्या करेंगी? इससे अच्छा वे मर जातीं।’’ लेकिन वह मरी नहीं बल्कि उन्होंने अपने देश के लिए अपनी हजारों खदान में रहने वाली बहनों के साथ मिलकर जीवन में संघर्ष किया और दुनिया की जुझारू औरतों के लिए पे्ररणा बनीं।
जनरल बान्जेर के तख्ता पलटकर सत्ता में आने के बाद आम लोगों के जीवन की बढ़ती चुनौतियों पर बोलते हुए वह कहती हैं, ‘‘आप बताइये कि कौन सा कदम मजदूरों के पक्ष में है। पहले उसने मौद्रिक अवमूल्यन किया, फिर आर्थिक पैकेज। आप हमें जबाब दीजिए इनमें से कौन-सा कदम मजदूरों के हित में है। क्या आप जबाव दे सकते हैं….?’’
यह पुस्तक 1978 में मन्थली रिव्यू पे्रस से अंगे्रजी में प्रकाशित हुई थी और दुनिया की अनेक भाषाओं में अब तक प्रकाशित हो चुकी है। डोमीतिला का जीवन संघर्षों से भरा ही रहा। 1980 में जब वह संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन में हिस्सा लेने कोपनहेगन पंहुची, उसी वक्त सैनिक तख्ता पलट के कारण बोलीविया वापस नहीं लौट सकी। दो साल के निर्वासन के बाद 1982 में वह बोलीविया लौटीं। 1985 में विक्टर पाज एस्टेनासारो की सरकार ने खदानों का निजीकरण कर दिया और सिंगलो समेत कईं खदानें बन्द हो गयीं। वहां काम करने वाले मजदूरों को देश छोड़कर दूसरे देशों में बसना पड़ा। डोमीतिला ने कोचाबाम्बा में रह कर सन 1990 से एक मोबाइल राजनीतिक स्कूल चलाया। डोमीतिला कहती हैं- ‘‘मैं अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सच्ची विरासत छोड़ना चाहती हूँ: एक मुक्त देश और सामाजिक न्याय’’।
(Story of Domitila Barrios)
डोमीतला की कहानी की शुरूआत होती है- ‘‘मैं नहीं चाहती कि कोई कभी भी इस कहानी की व्याख्या एक व्यक्तिगत चित्रण के रूप में करे। क्योंकि मेरा मानना है कि मेरा जीवन मेरे अपने लोगों से जुड़ा हुआ है। ….. बहुत से लोग ऐसे हैं, जिन्होंने जनता के लिए मुझसे कहीं अधिक किया और वे अनाम मर गये अथवा उन्हें जानने का अवसर ही नहीं मिला।‘‘
खनिक औरतों के संघर्षों और फौजी शासन की तानाशाही को झेलती बहादुर डोमीतिला की कहानी दुनिया भर की उन मजदूर औरतों के संघर्षों को समझने में मदद करती है जो साम्राज्यवादी नीतियों के तहत शोषित व उत्पीड़ित हैं। ‘‘मैं यह सोचती हूँ कि इस समय यह ज्यादा महत्वपूर्ण है कि अपनी जनता की मुक्ति के लिए पुरुषों के साथ-साथ लड़ा जाए। मेरा मानना है कि असली लड़ाई महिला-पुरुष के बीच नहीं है। यह दोनों का संयुक्त संघर्ष है। मैं इसमें बच्चों, नाती-पोतों को भी शामिल करती हूँ। उन्हें वर्गीय अवस्थिति के हिसाब से इसमें हिस्सा लेना है़.।’’ शीरीं द्वारा हिन्दी में अनूदित डोमितिला बैरियोस डि चुन्गारा की कहानी को कहती इस पुस्तक का प्रकाशन 2011 में मध्य प्रदेश महिला मंच द्वारा किया गया है जिसकी कीमत मात्र 80 रुपये है। आज के समय में यह पुस्तक प्रासांगिक लगती है और प्रत्येक उस महिला के लिए प्रेरणादायी है जो कि अपने समाज के हालात से समझौता नहीं करती बल्कि उसको बदलना चाहती है। हालांकि प्रकाशन के लम्बे समय बाद आपको इस पुस्तक से रूबरू करवाया जा रहा है। लेकिन कोई भी संघर्षशील जीवन कभी पुराना नहीं पड़ता बल्कि हर दौर के लिए प्रासंगिकए बना रहता है।
पुस्तक का नाम- सुनो मेरी कहानी: मेरी जुबानी, बोलीविया की खदान की एक औरत डोमीतिला बारिओस डि चुन्गारा का मोएमा वीज्जेर के साथ साक्षात्कार, हिन्दी अनुवाद- शीरीं, प्रकाशक- मध्यप्रदेश महिला मंच, मूल्य -80 रु मात्र, वर्ष 2011
(Story of Domitila Barrios)
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