लीला देवी के संघर्ष की दास्तान
मंजू सिजवाली
महिला अस्पताल के गेट के अन्दर कदम रखते ही सामने कुछ महिलाएँ बेंच पर बैठी मिल गईं, जिनमें से एक महिला शान्त भाव से बैठी थी। जो शायद सभी महिलाओं में सबसे उम्रदराज थी और एक आँख से अंधी भी, जिससे वह उन सभी से अलग लग रही थी। यह महिला ग्राम नौर्सा अमृतपुर ब्लॉक, भीमताल, नैनीताल, हैड़ाखान बैच की आशा कार्यकर्ता लीला देवी थी जिनका जन्म हैड़ाखान क्षेत्र के ही पिस्तोला निवासी स्व. इन्द्रमणि भट्ट और बचूली देवी के घर हुआ। छ: भाई और तीन बहिनों में लीला सबसे छोटी और लाड़ली होने के बावजूद बचपन से ही परिस्थितियों की मारी रही। वह पाँच या सात वर्ष की रही होगी, तभी भाई-बहनों के बीच खेल-खेल में उनकी आँख में कुछ घुस गया, जिससे उसकी बाई आँख जाती रही।
गाँव के विद्यालय में लीला ने छठी तक की पढ़ाई की। लीला की उम्र 14 वर्ष की रही होगी तभी पिता ने उसकी शादी उससे उम्र में लगभग तीन गुना बड़े मौर्सा गाँव के दुर्गादत्त कौटल्या से तय कर दी। दुर्गादत्त पहले से ही शादी-शुदा थे और पत्नी जिन्दा थी लेकिन उनकी कोई सन्तान नहीं थी। लीला बहू बनकर घर में आयी तो वहाँ उसे माँ समान सौत मिली, जो उम्र में उससे लगभग दो गुने से ज्यादा होगी और सास जो उससे न जाने कितनी आस लगाये बैठी थी।
17 साल की उम्र में लीला ने पुत्र को जन्म दिया। समय के साथ-साथ उसने चार बच्चों को जन्म दिया, जिसमें तीन बेटे और एक बेटी थी। लीला की सौत ने भी इस उम्र में एक बेटा और बेटी को जन्म दिया। लीला का पति राजमिस्त्री था। परिवार बढ़ने से घर में र्आिथक तंगी होने लगी। अत: लीला भी पति के साथ मजदूरी करने लगी।
(Struggle of Lila Devi)
सास, पति और सौत उम्र में बड़े थे और बच्चे छोटे। अत: लीला की जिम्मेदारी बढ़ गई थी। खेती-बाड़ी, गाय-भैंस के साथ-साथ बाहर का काम कर लीला ने अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को सम्भालने की कोशिश की, किन्तु लीला की खुशियाँ ज्यादा दिन तक नहीं रहीं। जब बेटा मात्र 11 साल का था, अचानक पति की मृत्यु हो गयी। अब सारी जिम्मेदारी लीला के कंधों पर आ गयी। र्आिथक तंगी को दूर करने के लिए लीला ने जो भी काम मिला, किया। झाड़ू बनाना, और छोटे-छोटे ग्रामीण कार्यों में लीला माहिर थी। मायके वालों की मदद से लीला ने सड़क काटने का ठेका भी लिया।
लीला ने पारिवारिक स्थिति को सम्भालने के लिए ग्रामीण महिलाओं को दिये जाने वाले दाई का प्रशिक्षण लिया और दाई का काम करने लगी। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में लीला ने कमी नहीं की। जितना बच्चे पढ़ना चाहते थे उसने पढ़ाया। आगे बच्चों की मर्जी न होने पर उन्होंने घुटने टेक दिये। फिर भी लीला ने दोनों बेटों को इंटर तक की शिक्षा दिलायी। और लड़की को पढ़ाने के लिए दूर के रिश्ते में नैनीताल के किसी पंत परिवार को सौंप दिया। क्योंकि पंत दम्पत्ति नौकरी वाले थे, उन्हें बच्चों की देखभाल के लिए एक 9 साल की दीदी मिल गयी। 8वीं तक की शिक्षा के बाद लीला की बेटी घर वापस आ गयी और आगे की शिक्षा की जिम्मेदारी लीला ने उठायी। लीला की मुसीबत यहीं समाप्त नहीं हुयी, इस बीच सास की मृत्यु हुई और सन् 2000 में सौत भी चली गई। लीला कहती है, उसे पति के जाने से ज्यादा गम सौत के जाने का था क्योंकि सौत के बच्चों की जिम्मेदारी भी लीला पर आ गई। लीला ने पहले सौत के बच्चों की शादियाँ की फिर अपने बच्चों की। लीला ने जब सौत की बेटी ब्याही तो उस समय की आर्थिक स्थिति ठीक न होने पर दहेज कम दिया जबकि अपनी बेटी के ब्याह में आर्थिक स्थिति ठीक थी तो उसे ठीक-ठाक दहेज दिया। लीला का मन उसे कचोटने लगा कि उस लड़की के साथ अन्याय हुआ है। सो लीला ने अपनी अढ़सठ दानों की पौंची (चाँदी की) धुलवायी, पुतवाई और जाकर सौतन की बेटी को दे आयी। इस बीच आशा कार्यकर्ता की भर्ती होने लगी, जिसमें लीला ने भी फार्म भरा और अब लीला देवी आशा बहन बन गई। वह अक्सर हल्द्वानी आने लगी।
लीला का पीछा दु:खों ने अब भी नहीं छोड़ा था, लीला का मझला बेटा जो ड्राइवरी सीखकर गाड़ी चलाता था एक दिन अचानक दुर्घटना में मर गया। लीला आज भी आशा कार्यकर्ता है और उसका अधिकांश समय घर से बाहर गुजरता है। घर में बड़े बेटे-बहू खेती का काम कर रहे हैं। आज पारिवारिक स्थिति ठीक-ठाक है। लीला घर जाकर सास की तरह खाना खाती है। जूठे बर्तन हाथ में लौटा देती है। इतने दु:खों के बाद लीला कहती है, एक आँख थी तो इतना बड़ा संसार देखा अगर दोनों आँखें होतीं तो न जाने कितना देखती और ठहाके लगाकर हँसती है।
(Struggle of Lila Devi)
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