बातचीत : जाति, धर्म और समुदाय की भावना से ऊपर उठना होगा -प्रभा सोरेन
झारखण्ड के दुमका जिला अन्तर्गत जामा प्रखण्ड के एक आदिवासी बहुल गाँव लकड़जोरिया में रहकर महिलाओं के बीच वर्षों काम करने वाली एक सामाजिक कार्यकर्ता प्रभा सोरेन से पत्रकार अशोक सिंह की बातचीत।
प्रभा जी, आपके यहाँ अक्सर महिलाओं का दरबार लगा रहता है। अखिर ऐसा क्या है आपके यहाँ ?
देखिए, दरबार तो बड़े-बड़े नेता और मंत्री लोग लगाते हैं। मैं तो बस एक साधारण सी सामाजिक कार्यकर्ता हूँ। गाँव में रहती हूँ और अपने आस-पास के गाँवों में महिलाओं के बीच रहकर महिलाओं के लिए काम करती हूँ। अब हमारे गांव की महिलाओं को हमसे क्या मिलता है, यह तो आप खुद उन्हीं से पूछ लें तो अच्छा होगा।
गाँव की महिलाओं के बीच आप ‘प्रभा दी’ के नाम से ज्यादा लोकप्रिय हैं। गांव की बुजुर्ग महिलाएँ आपको ‘दिकू बहू’ कहती हैं। ‘दिकू बहू’ के पीछे क्या कहानी है ?
दरअसल बात यह है कि मैं मूलत: उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले के एक बिष्ट परिवार से हूँ। मेरा मूल नाम प्रभा बिष्ट है। मेरे घरवाले प्यार से मुझे ‘पारो’ कहते हैं। झारखण्ड आकर मैं प्रभा सोरेन हो गई। मेरे पिता प्रेम सिंह बिष्ट फौज से रिटायर हैं और मेरी माँ मानमती सिंह बिष्ट एक गृहिणी हैं, जिनके बीच रहकर मैं बहुत लाड़-प्यार से पली-बढ़ी। माता-पिता और दादी से अच्छे संस्कार मिले। वहीं रहते हुए आज से लगभग 20 वर्ष पहले मेरी शादी झारखण्ड दुमका के एक आदिवासी परिवार के किनु मराण्डी से हुई, जो उन दिनों हमारे इलाके में एक रोड कंस्ट्रक्शन कम्पनी में कार्यरत थे। ऐसे में एक गैर आदिवासी परिवार की लड़की जब आदिवासी समुदाय में ब्याहकर लायी गई तो वह ‘दिकू बहू’ बन गयी। जैसा कि लोग बताते हैं कि झारखण्ड में ‘गैर-आदिवासी’ समुदाय को आदिवासी समुदाय के लोग आमतौर पर ‘दिकू’ कहते हैं।
प्रभा जी, उत्तराखण्ड से झारखण्ड में आकर जब आप यहाँ की आदिवासी महिलाओं के बीच काम कर रही हैं, तो कैसा लगता है आपको यहाँ ?
आज से लगभग 10-12 वर्ष पहले जब मैं पहली बार झारखण्ड आयी थी, तो यहाँ के गाँवों का माहौल देखकर मुझे बहुत खराब लगा था। आदिवासी समाज के बारे में पहले से मैं कुछ नहीं जानती थी और न ही मेरे घरवाले जरनते थे। ऐसा लगा कि मेरे साथ धोखा हुआ है, मैं ंठगी गयी हूँ। मुझे नहीं रहना है यहाँ। मैं वापस उत्तराखण्ड चली जाऊँगी, वहीं रहूँगी, फिर कभी दोबारा यहाँ लौटकर नहीं आऊँगी। और एक बार ऐसा हुआ भी। कुछ महीने यहाँ मन दबाकर रही और फिर रो-धोकर एक दिन वापस उत्तराखण्ड लौट गयी। उस समय मैं एक बेटे की माँ भी बन चुकी थी लेकिन स्थिति-परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि फिर मुझे झारखण्ड लौटना पड़ा। लेकिन तब तक मेरा इरादा बदल चुका था। मैं अंदर से ठान चुकी थी कि मुझे यहीं, इसी व्यवस्था में रहकर अपने घर-परिवार और यहाँ के माहौल को बदलना है।
फिर आपको क्या-क्या कठिनाई हुई ? कैसे आपने उनका सामना किया और आज यहाँ सबका दिल जीतकर इस इलाके में आप ‘प्रभा दी’ के नाम से इतनी लोकप्रिय कैसे हो गईं ?
बहुत संघर्ष करना पड़ा है, मान-सम्मान से ज्यादा अपमान सह चुकी हूँ। बुरी नजर वालों की भी कमी नहीं थी। भाषा की समस्या थी सो अलग। चूकि मैं मूलत: हिन्दी भाषी रही हूँ, संथाली मुझे नहीं आती थी। ऐसे में सबसे पहले मैंने संथाली भाषा को बोलना और समझना सीखा। गाँव की महिलाओं से बातचीत कर गाँव की ‘सामाजिक व्यवस्था’ और आदिवासी समाज की ‘जीवन और संस्कृति’ को गहराई से जानने-समझने की कोशिश की। धीरे-धीरे महिलाओं के बीच में मेरी पकड़ और पहचान बनने लगी। वे लोग अपना सुख-दुख मुझसे साझा करने लगीं। आपस में विश्वास बढ़ने लगा। उनके साथ घर से बाहर निकलकर गाँव की बैठकों और स्वयं सहायता समूह की बैठकों में आना-जाना शुरू हुआ। गाँव की बैठकों में यहाँ महिलाएँ कुछ नहीं बोलती थीं। सब चुप रहती थीं और सिर्फ सुनती थीं। पुरुष मिलकर सब कुछ मनमाने ढंग से तय कर लेते थे। महिलाएँ सिर्फ अँगूठा लगाने या हस्ताक्षर करने भर से ही मतलब रखती थीं। कई बार ऐसा होता था कि बैठकों में पीड़ित महिलाओं को न्याय नहीं मिल पाता था। गाँव में योजनाएँ आती थीं तो गरीब और जरूरतमंदों को उससे नहीं जोड़ा जाता था। सम्पन्न लोग ही अपने घर की बहू-बेटियों को उससे जोड़कर योजनाओं का लाभ ले लेते थे। ऐसे में गाँव की महिलाओं के अंदर आक्रोश और असंतोष था, विशेषकर आदिवासी महिलाओं में। हमारे गाँव में आदिवासी समुदायों के साथ-साथ पिछड़ी जाति-समुदाय के लोग भी हंै, जिनका गाँव में पहले बहुत दबदबा था। वे लोग हर मामले को प्रभावित करेते थे। स्थितियों को देखते-समझते हमने महिलाओं के साथ मिलकर बैठकों में आवाज उठाना शुरू किया। गलत का विरोध कर सही चीजों के समर्थन में महिलाओं को संगठित कर गोलबंद किया। गाँव में स्वयं सहायता समूह की महिलाओं के साथ जुड़कर ‘शराबखोरी’ और महिलाओं के ‘घरेलू हिंसा’ के मामले में हस्तक्षेप करना शुरू किया। सरकारी विभागों से आने वाले पदाधिकारियों, कर्मियों के बीच भी जाकर अपने हक-अधिकार को लेकर हम लोगों ने माँग रखना शुरू कर दिया। हर मौके पर मेरे ग्रुप की महिलाएँ, मुझे ही आगे कर देती थीं। ऐसे में अक्सर मुझे आगे बढ़कर सबकी बात रखनी पड़ती थी। मेरी बातों से लोग सहमत भी होते थे क्योंकि मैं सबके हित की बात करती थी। गाँव की महिलाओं का मुझ पर विश्वास बढ़ने लगा। धीरे-धीरे गाँव के पुरुष लोग भी सहयोग और समर्थन करने लगे। विभाग के पदाधिकारी भी आकर पहले मुझे ही खोजते थे। मैं भी सकारात्मक सोच के साथ जनहित में उनका सहयोग करने लगी। धीरे-धीरे योजनाओं का लाभ यहांँ के लोगों को मिलने लगा। अन्य समुदायों की महिलाएँ भी मेरे स्वभाव और विचारों से प्रभावित होकर मेरा साथ देने लगीं और अब तो ऐसा है कि कहीं भी कुछ हो, मुझे साथ लिए बिना वे कुछ भी नहीं करती। गाँव में कोई भी आये, किसी भी प्रकार की समस्या हो, मुझे ही आगे कर देती हैं औैर खुद डटकर मेरे साथ खड़ी रहती हैं । अपने घर-गाँव और आसपास के गाँव की महिलाओं से इतना मान-सम्मान पाकर अब मैं पूरी तरह से यहाँ की होकर रह गयी हूँ।
(Talking with Prabha Soren)
सामाजिक हित में अब तक आपने ऐसा क्या-क्या किया जिसे आप अपनी उपलब्धियों के तौर पर गिनाना चाहेंगी, विशेषकर महिलाओं के लिए ?
अब तक मैं जो कुछ भी थोड़ा बहुत कर पायी हूँ, उसे मैं अपनी उपलब्धियाँ नहीं मानती और न ही उसे गिनाना चाहती हूँ। मैं जिस समाज में रहती हूँ, जिन महिलाओं के साथ रहती हूँ, उनके बीच रहते हुए उनके हित अधिकारों की रक्षा के लिए जो कुछ भी बन पड़ता है, मैं उसे करने की कोशिश करती हूँ। उपलब्धियों से अलग मैं उसे अपना सामाजिक दायित्व मानकर बात करूँ तो कुछ ऐसे कार्यों के बारे में बताना चाहूँगी, जिससे हमारे गाँव-समाज की महिलाएँ, विशेषकर आदिवासी महिलाएँ सशक्त जागरूक और स्वाबलम्बी हुई हैं। सैकड़ों महिलाओं को स्वयं सहायता समूह एवं आजीविका सखी मंडल से जोड़ चुकी हूँ। बैंक में उनका खाता खुलवाने, आधार कार्ड, पेन कार्ड बनवाने, जाति निवासी प्रमाणपत्र बनवाने, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति एवं जीवन सुरक्षा योजना से लेकर मुद्रा लोन तथा अन्य ऋण सुविधाओं और अनुदान आदि से हमने अपने क्षेत्र की महिलाओं को जोड़ने का कार्य किया है। आत्मनिर्भर एवं स्वावलम्बन के लिए दर्जनों महिलाओं को विभिन्न प्रकार के सरकारी, गैर सरकारी प्रशिक्षण कार्यक्रमों से जोड़कर स्वरोजगार हेतु व्यवसायिक प्रशिक्षण दिलवा चुकी हूँ। जिसमें सिलाई-कटाई, मशरूम उत्पादन, बकरी, मुर्गी पालन एवं गाय पालन और इसके अलावा पशु टीकाकरण, महिला एवं शिशु स्वास्थ्य से लेकर परिवार नियोजन तक। साथ ही हस्तशिल्प से जुड़े कई प्रकार के प्रशिक्षण भी दिलवा चुकी हूँ। इसके अलावा मनरेगा का जॉब कार्ड बनवाने से लेकर काम दिलवाने, मजदूरी भुगतान कराने तक। खाद्यान्न योजना के तहत राशन कार्ड, स्वास्थ्य बीमा कार्ड, और नये वोटर्स के लिए मतदान सूची में नाम चढ़वाने, सुधरवाने से लेकर वोटर कार्ड आदि बनवाने तक का कार्य भी हमने किया है, जिसको लेकर अक्सर हमारे क्षेत्र की महिलाएँ परेशान रहती थीं। इतना ही नही,ं दर्जनों महिलाओं, जरूरतमंदों, गरीब, लाचार लोगों, वृद्घ, विकलांग और एकल महिलाओं को भी सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजनाओं से जोड़कर हमने लाभ दिलवाने का कार्य किया है, जिसको लेकर वे अक्सर बिचौलियों के पास जाती थीं और हर बार ठगी जाती थीं। इसके लिए कई बार मुझे अपने इलाके के कुछ दबंग लोगों और बिचौलियों से लेकर छुटभैये नेताओं से भी उलझना पड़ा लेकिन हम ना तो कभी टूटे न ही झुके और न ही बिके। और यह सब संभव हो पाया अपनी उन तमाम महिलाओ की बदौलत जो हमारे संगठन से जुड़कर हमेशा हमारा साथ देती रही हैं। वे तमाम महिलाएँ ही हमारी ताकत हैं।
कुछ ऐसी महिलाओं का नाम आप बताना चाहेंगी क्या, जो आपका हाथ बन हमेशा आपका साथ देती रही हैं ?
जी हाँ, क्यों नहीं। वैसे तो सभी महिलाएँ हमारी बहन की तरह हैं, हमारी सखी-सहेली हैं, जो हमारा हाथ बन हमारा साथ देती हैं। अर्चना रानी दास, रीता दास, शोभा चौड़े, चुड़की हेम्ब्रम, छवि टुडू, नीलमुनी मुर्मु, कुर्शिला टुडू, जमुना मंडल और फुलकुमारी पुजहरिन आदि कुछ ऐसी महिलाएँ है जो कुछ ज्यादा ही करीब हैं। कृषि विज्ञान केन्द्र दुमका की किरण मैडम भी मेरी अच्छी दोस्त हैं जो मुझे बहुत मदद करती हैं।
इधर हाल की कुछ नई योजनाओं पर काम करने का अनुभव बताएं जिसमें आपको सफलता मिली हो?
हाँ, वैसे तो कई योजनाएँ है लेकिन इधर झारखण्ड सरकार की कुछ नई योजनाओं को लेकर हमने काम किया, जिसमें ‘मिशन नव जीवन योजना’ और ‘दीदी बाड़ी योजना’ आदि प्रमुख हैं। मिशन नवजीवन योजना के तहत जे.एस.एल.पी.एस. से हड़िया-दारू बेचने वाली महिलाओं के दर्जनों परिवार का सर्वेक्षण कर, नये रोजगार से जोड़कर आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार से मिलने वाली 25-25 हजार रुपये की अनुदान राशि दिलवाने में मुझे सफलता मिली। उसमें से कई महिलाएँ आज हड़िया-दारू बेचना छोड़कर अन्य रोजगार से जुड़कर स्वाबलंबी और आत्मनिर्भर हो चुकी हंै। ठीक वैसे ही ‘दीदी बाड़ी योजना’ के तहत भी हमने अपने क्षेत्र की महिलाओं को चिन्हित कर उन्हें जोड़ा और आज महिलाएँ उससे जुड़कर सफलतापूर्वक कार्य कर रही हैं। कृषि विज्ञान केन्द्र से पशुपालन प्रशिक्षण और मशरूम उत्पादन का प्रशिक्षण महिलाओं को दिलवाया जो आज पशुपालन और मशरूम उत्पादन का कार्य कर रही हैं।
पिछले वर्ष वैश्विक महामारी कोरोना काल के दौरान, संकट के समय आपने अपने गांव समाज के लिए क्या क्या किया ?
करोना काल को याद करके अभी भी मैं भयभीत हो जाती हूँ। वह एक ऐसा भयावह दौर था जिस समय चाहकर भी लोगों की मदद करने में हमेशा संशय बना रहता था। हर कोई एक दूसरे को शंका की नजर से देखता था और डरा-सहमा रहता था लेकिन ऐसे में जब मैं उन दिनों वृद्घ, बीमार, बेबस, लाचार व नि:शक्त लोगों, अकेली महिलाओं, गरीब बच्चों को भूखा देखती थी तो उन पर दया आती थी। ऐसे में कोरोना काल के दौरान जे.एस.एल.पी.एस. से लगभग तीन महीनों तक लगातार हमने अपने महिला सखी मंडल के माध्यम से ‘दीदी किचन’ चलाकर भूखे लोगों को भोजन बनाकर खिलाने का काम किया। इतना ही नहीं, लोगों को कोरोना के प्रति सतर्क व जागरूक करने और सुरक्षा के लिए मास्क बनाकर उनके बीच वितरित करने का कार्य भी हमने किया। गाँव में स्वास्थ्य विभाग से जब जाँच टीम आई तो उस वक्त भी मैंने आगे बढ़कर लोगों को जागरूक कर सबकी जांच करवायी।
प्रभा जी, आप किन-किन संस्थाओं और संगठनों से जुड़कर काम कर रही हैं ?
मैं मुख्य रूप से जनमत शोध संस्थान की कार्यकर्ता हूँ जहाँ पिछले कई वर्षों से मेरा गहरा जुड़ाव रहा है। इसके अलावा अन्य संस्थाओं और संगठनों ने भी जब-जब मुझे सम्मान से बुलाया और मुझे जिम्मेदारियाँ दी और अगर वह काम जनहित में मेरी रुचि और योग्यता या क्षमता के अनुरूप रहा, तो मैंने पूरी लगन, मेहनत और ईमानदारी के साथ उस काम को किया और बेहतर परिणाम देने का प्रयास किया। शायद यही वजह है कि जब आज भी हमारे गाँव या इस क्षेत्र में कहीं कोई संस्था, संगठन या विभाग के लोग किसी योजना-परियोजना को लेकर इधर आते हैं, तो हमारे गांव के लोग और महिलाएँ मेरे बारे में उन्हें बताती हैंै और मेरे घर तक सम्मान से उन्हें लेकर आती हैं। जहाँ तक अन्य संगठनों से जुड़ाव की बात है तो शुरूआती दौर में मुझे प्रवाह संस्था से भी जुड़कर काम करने का अवसर मिला। अभी जे.एस.एल.पी.एस. के तहत मैं अपने गाँव लकडज़ोरिया में ‘किया बाहा’ एस.एच.जी. ग्रुप की अध्यक्ष हूँ और साथ ही अपने गाँव के ‘आजीविका महिला ग्राम संगठन’ की भी अध्यक्ष हूँ।
(Talking with Prabha Soren)
क्या आपको कभी किसी संस्था, संगठन या फिर सरकार के किसी विभाग से कोई पुरस्कार या सम्मान आदि मिला है?
देखिए, मैं काम करने में विश्वास रखती हूँ, कोई पुरस्कार मिले या न मिले, उसकी चिंता मैं नहीं करती। वैसे भी इस दौर में ‘साइलेन्ट वर्कर’ की तरह काम करने वाले लोग पीछे रह जाते हैं और बिना काम किये बढ़ा-चढ़कर अपना प्रचार करने वाले लोग आगे बढ़कर अक्सर पुरस्कार झपट लेते हैं। इस मामले में मैं भीड़ से बिल्कुल अलग हूँ। सस्ती लोकप्रियता मुझे पसंद नहीं। हाँ, कुछ संस्थाओं और संगठनों की मैं आभारी हूँ, जिन्होंने मेरे काम को देखा-परखा और मुझे पुरस्कार देकर सम्मानित किया। वर्ष 2015 में ‘सर्वोदय लोक शिक्षण केन्द्र’ की ओर से अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर ‘सर्वोदय सोशल लीडरशीप अवार्ड’ और वर्ष 2017 में जनमत शोध संस्थान से ‘जनमत जन जागरूकता अवार्ड’ मुझे मिला है। वैसे सबसे बड़ा सम्मान तो मेरे लिए यह है कि मेरे गांव की महिलाएँ और आसपास के लोग आज मेरा बहुत सम्मान करते हैं। मेरे लिए यही सबसे बड़ा पुरस्कार है।
प्रभा जी, एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में आप अपनी ओर से उन महिलाओं को क्या संदेश देना चाहेंगी, जो आपकी तरह किसी संस्था या संगठन से जुडकर एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हैं ?
मैं अपनी उन तमाम बहनों से कहना चाहूँगी कि वे जाति-धर्म-समुदाय से ऊपर उठकर बिना किसी स्वार्थ के समाज से जुडं़े। सबका आदर व सम्मान करना सीखें। सामूहिकता की भावना रखें और अपने अंदर नेतृत्व क्षमता विकसित करें। जहाँ भी जिससे जुड़कर काम करें, उस संस्था या संगठन के प्रति विश्वास और आस्था बनाये रखें। इसके साथ-साथ अपनी जिम्मेदारियों को समझना और मेहनत व लगन के साथ काम करना भी जरूरी है। अपनी कमियों को स्वीकारना और अच्छे लोगों से जुड़कर समय-समय पर उचित सुझाव व सलाह लेते रहना भी एक सामाजिक कार्यकर्ता के लिए जरूरी होता है। जहाँ भी अवसर मिले, अपनी योग्यता, क्षमता बढ़ाने के लिए सभा, सेमिनार और प्रशिक्षण कार्यशाला में भाग लेते रहें। ‘असफलता’ की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेना और ‘सफलता का श्रेय’ पूरी टीम को देना सीखें। आपकी यही टीम भावना एक दिन इस क्षेत्र में आपको बहुत आगे ले जायेगी और आपकी पहचान बनायेगी। तभी आप एक सफल सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सबका दिल जीत पायेंगे।
प्रभा जी आपका बहुत-बहुत धन्यावाद कि आपने अपना अनुभव हमसे साझा किया।
और हमारी ओर से आपको भी कि आपने हमें अपने इस साक्षात्कार के योग्य समझा।
(Talking with Prabha Soren)
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