आवश्यकता है सांस्कृतिक प्रतिरोध की

कंचन जोशी

अक्टूबर माह की एक घटना है। कक्षा की एक छात्रा मेरे पास आकर शिकायत करती है कि कक्षा का एक छात्र उसे बलात्कार की धमकी दे रहा है। मेरे लिए यह बहुत अप्रत्याशित था क्योंकि दोनों एक ही कक्षा नौ के विद्यार्थी थे। और बात सिर्फ इतनी थी कि लड़की ने किसी बात पर लड़के की शिकायत की थी, जिससे लड़का भड़क गया था। मैंने लड़के के पिताजी को बुलाया, लड़के को उन्हीं के सामने समझाया। और बाद में उस लड़के ने स्कूल छोड़ दिया। यह शायद मेरी कमी भी रही। मेरे जैसे अनेक शिक्षक साथियों को ऐसी घटनाओं से अक्सर दो चार होना पड़ता होगा। और अधिकतर ऐसे मामलों में स्कूल  छोड़ने वाली छात्राओं की संख्या अधिक है।

वर्ष 2011 में देशभर में बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों के मामलों में 33 हजार से अधिक किशोरों को गिरफ्तार किया गया जिसमें से ज्यादातर 16 से 18 वर्ष के आयुवर्ग के हैं। यह आंकड़ा पिछले एक दशक में सर्वाधिक है। आंकड़ों से यह भी स्पष्ट होता है कि किशोरों  द्वारा बलात्कार के मामलों में भी बढोत्तरी हुई है। वर्ष 2011 में इस तरह के 1419 मामले दर्ज हुए जबकि 2001 में यह आंकड़ा 399 था।

यह बड़ी चिंता का सबब है कि जिस कच्ची उम्र में किशोर समाज को धीरे धीरे समझने की कोशिश कर रहा होता है, उस उम्र में हमारा समाज उसे पुरुषत्व के अहंकार का बोध भी देने लगता है। पैदा होते ही हमारे घरों का वातावरण उसे जिस पहली सत्ता का आभास देता है, वह पिता की सत्ता होती है। इसी सत्ता की छाँव में वह अपना आगे का सफ़र तय करता है। किशोरावस्था में विद्यालयों में वह इसी सत्ताबोध के साथ आता है। और बुरी बात यह है कि हमारे अधिकांश शिक्षण संस्थान इस बोध से उसे कभी मुक्त भी नहीं कर पाते।  दिल्ली में हालिया बर्बरता का मुख्य अभियुक्त अभी अपने जीवन के इसी पड़ाव पर था। अब सवाल उस संस्कृति पर खड़ा होने लगता है जो हमारे समाज में किशोरों को परोसी जा रही है। यह तो बड़ी स्पष्ट सी बात है कि अपने प्रारंभ से भारत का तथाकथित सभ्य समाज स्त्री विरोधी रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप की आदिवासी और दलित संस्कृतियों में एक हद तक स्त्री को बराबरी का हक मिल रहा है, किन्तु उच्च जातियों में स्त्री सदैव अधिक शोषित-दमित रही है। तथाकथित सभ्यता के प्रसार के साथ ही स्त्री को बाँध कर रखने वाली यह संकृति घर-घर में पैठ बना चुकी है।

किशोरावस्था में कदम रखने के साथ ही घुट्टी में घोलकर पिलाई गयी यह संस्कृति अपना रंग दिखाने लगती है। यहाँ बड़ा होता लड़का  सत्ता के अभिमान को प्राप्त करता जाता है और लड़की अपनी बंदिशों के लिए तैयार की जाती है। किशोरावस्था की दहलीज में लड़कों को मर्द बनने की सलाहें और शिक्षा मिलने लगती है, और लड़कियों को ‘पत्नी’ बनने के लिए तैयार किया जाने लगता है। बहुत सामान्य सी बात कहूँ तो हमारे गाँवों के विद्यालयों में लड़कों को गणित और लड़कियों को गृहविज्ञान की कक्षाओं में बाँट दिया जाता है। शारीरिक परिवर्तनों  के साथ जहाँ लड़कों में आत्मविश्वास बढ़ता है वहीं यही शारीरिक परिवर्तन सामंती अपसंस्कृति की बदौलत लड़की को असुरक्षा के गहरे आभास से भर देते हैं। इसी परिवर्तन के दौर में, किशोर मन जब समाज में अपनी पहचान तलाश रहा होता है, तब वह घर की सामंतशाही से इतर जिस दूसरी संस्कृति से टकराता है, वह बाजार की वह संस्कृति है जो औरत को एक उत्पाद के रूप में प्रस्तुत करती है। विभिन्न संचार साधनों के साथ हमारे घरों में पैठ बनाती यह संस्कृति किशोर मानस पर गहरा प्रभाव डालती है। इस संस्कृति में, औरत मात्र सजावट का साधन है, जिसे किसी भी उत्पाद की पैकिंग के लिए इस्तेमाल किया जा रहा होता है। अब ऐसे सांस्कृतिक माहौल में पल रहे किशोरों में अगर बलात्कार की कुंठित मानसिकता नही पनपेगी तो क्या पनपेगा?
There is a need for cultural resistance

 हमारा समाज किशोर मन को इस प्रकार शिक्षित ही नहीं कर पता कि वह लड़की को साथी के रूप में मान्यता दे। माँ, बहन और पत्नी इन रूपों से इतर स्त्री की स्वीकार्यता समाज में बन ही नहीं पाती और ये रूप पुरुष की सत्ता के इर्द गिर्द ही घूमते हैं। प्रेमिका के रूप में भी वह प्रेमी की सत्ता से बहुत कम ऊपर उठ पाती है।

सिमोन का कथन था कि औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती  है यानी औरत होना एक मानसिकता है। इसी प्रकार बलात्कार भी एक मानसिकता है जो सदियों से औरत पर सत्ता को साबित करने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल की जाती रही है। यह मानसिकता हमारा समाज किशोरों को बाकायदा हस्तांतरित कर रहा है। हमारी फौजें भी कश्मीर, उत्तरपूर्व से लेकर छातीसगढ़ तक इसी संस्कृति का झंडा उठाए घूमती हैं कश्मीर में कुपवाड़ा जिले में, कोनम-पोशपोरा  के गाँव जहाँ 23 फरवरी 1991 में सेना ने सौ महिलाओं के साथ बलात्कार किया। उत्तरपूर्व में मनोरमा देवी की वहशियाना हत्या और छत्तीसगढ़ में सोनी सोरी की बर्बर प्रताडना इसका उदाहरण है। इनमें किसी भी मामले में कोई सजा आज तक नहीं हुई और सोनी सोरी मामले में तो जिम्मेदार अधिकारी को बाकायदा पुरस्कृत किया गया है। हमारे देश की विधानसभाओं और संसद में ऐसे कई लोग बैठे हैं जो बलात्कार के मामलों में मुक़दमे झेल रहे हैं। हमारा मीडिया और सिनेमा अपने कथानकों में बलात्कार को मसाले के बतौर परोसता है। और ये सब अन्तत: इसी समाज में हमारी आने वाली पीढ़ी को जा रहा है जो इसे जाने-अनजाने अपने दिलोदिमाग में ज़ज्ब कर रही है। इस तरह हम जाने अनजाने  एक ऐसी संस्कृति को आगे बढ़ाते जा रहे हैं, जिसमें बलात्कार दमन का एक मान्य हथियार बनता जा रहा है।

जरूरत है, सबसे पहले बाज़ार और सामंती संस्कृति के मिले जुले ज़हर के खिलाफ प्रतिरोध की संस्कृति को समाज में बढ़ाया जाए। हम अपनी बेटियों को औरत बना देने के इस मिशन से तौबा करके उन्हें इंसान के रूप में बढ़ने का मौका दें। हम अपने बेटों को मर्द बनाने से बाज़ आयें और इस समाज के बन चुके मर्दों की छाया से उन्हें मुक्त करें। बाज़ार और रूढियों के इस मकड़जाल से इतर संस्कृति जब तक हम नयी पीढ़ी को नहीं देंगे, तब तक बलात्कार की मानसिकता के खिलाफ बड़ी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। किशोरियों को सीता-सावित्री के आदर्शों में जकड़कर हम उन्हें सामंती बंधनों की ओर ही ले जाते हैं। ये आदर्श केवल पति की चिताओं पर जल मरने वाली गूंगी गाएँ ही पैदा करते हैं। जब तक श्रम में साझेदारी की संस्कृति हम किशोरों को नहीं देते, तब तक हम कभी भी एक अच्छे समाज का निर्माण नहीं कर सकते। लड़कियों के साथ  रोज ब रोज बंदिशों, अश्लील विज्ञापनों, भोंडे मजाकों और छेड़खानी के रूप में जो बलात्कार हो रहे हैं, उनके खिलाफ किसी भी कानून के अतिरिक्त एक सांस्कृतिक प्रतिरोध की आवश्यकता है जो हमारे किशोरों को लोकतांत्रिक, सहिष्णु और समतावादी दृष्टिकोण प्रदान कर सके। अगर हम ऐसा नहीं कर पाए तो न तो दिल्ली के उस किशोर जैसे वहशीपन को रोक पाएंगे, न संस्कृति-रक्षा के दूसरे वहशीपन को, जिसका शिकार औरतें धर्म के नाम पर होती हैं। 
There is a need for cultural resistance

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