भीतर बाहर की यात्राओं के सुर तलाशती है आजादी मेरा ब्राण्ड-किताब
प्रतिभा कटियार
कोई भी यात्रा-साहित्य क्यों लिखा जाना चाहिए, क्यों पढ़ा जाना चाहिए? आखिर कौन सी हैं वे जरूरी चीजें जो एक यात्रा के दौरान लिए गये नोट्स को, अनुभवों को यात्रा साहित्य बनाती हैं। क्या बाहर को चलना ही यात्रा है या बाहर चलने की शुरूआत पहले भीतर चलने से होती है। वे कौन सी चीजें हैं जो एक पर्यटक को यायावर से अलग करती हैं। अनुराधा बेनीवाल की पुस्तक आजादी मेरा ब्राण्ड इन्हीं सवालों के आसपास से गुजरती है। यह किताब विदेश यात्राओं के दौरान हुए अनुभवों से गुजरते हुए भारतीय समाज के दरवाजे पर स्त्री चेतना को लेकर बंद कुंडियों को खटखटाती है। वह सवालों के जवाब नहीं परोसती बल्कि ढेर सारे सवालों को जन्म देती है।
कई लिहाज से यह पुस्तक महत्वपूर्ण है। एक तो यह पुस्तक ऐसे वक्त में आई है जब सूचनाओं और अभिव्यक्तियों का एक खुला समंदर हमारे इर्द-गिर्द लहरा रहा है। इसके बावजूद यात्रा-साहित्य में अब तक स्त्री यायावरों की जगह बहुत ज्यादा नहीं है। समूचे यात्रा साहित्य को देखें तो भी स्त्रियों के नाम ज्यादा सुनने में नहीं आते हैं।
जिस देश में एक लड़की दुपट्टे संभालने की कला में प्रवीणता हासिल करते हुए, बढ़ते कद के साथ झुकती गरदन और धीमी होती आवाज की ताकीदों के साथ बड़ी होती हो, जहाँ एक बड़ी उम्र की लड़की को घर से अकेले भेजने पर अव्वल तो पाबंदियाँ ही हों लेकिन अगर भेजना ही पड़े तो उसकी सुरक्षा के लिए साथ में चार साल के भाई को भेजने का रिवाज हो, अगर पाबंदियों में जरा नर्मी आये तो शाम को सूरज ढलने से पहले वापस लौट आने की हिदायत रहती हो, उस देश में स्त्रियों द्वारा लिखे गये यात्रा-साहित्य की कमी को समझा जा सकता है। ऐसे में ‘आजादी मेरा ब्राण्ड’ एक जरूरी किताब लगती है।
अनुराधा हरियाणा के रोहतक जिले के खेड़ी गाँव में1986 में जन्मी एक स्त्री है। उसकी यात्रा न तो किसी काम के सिलसिले में की गई यात्रा है न जिन्दगी की मुश्किलों से भागकर कहीं चले जाने की जिद से जन्मी है। एक तथाकथित आदर्श और सफल या जिसे दुनिया सैटल्ड कहती है, लड़की को आखिर वह कौन सी चीज है जो खलबला के रख देती है़…. जिसकी तलाश में वह बिना ज्यादा रुपया, पैसा या साधन के एक बैक पैक के साथ निकल पड़ती है। वह खोज है अपने होने की। एक स्त्री किस तरह सामाजिक ढाँचे में पलती है, बड़ी होती है, सफल भी होती है लेकिन अपने बारे में, अपनी भावनाओं के बारे में लगातार अनभिज्ञ रहती है। संभवत: यही खलबलाहट उसे रास्तों पर उतारती है और एक शतरंज की नेशनल चौंपियन बैक पैकर बन जाती है। जेब में यूरोप का नक्शा, थोड़े से पैसे और ढेर सारा उत्साह उसे यायावरी के लिए उन्मुख करता है। वह जानती है कि अगर आपको दुनिया को देखना, समझना और महसूस करना है, धरती के कोने-कोने से बात करनी है तो महंगे होटलों में रुकने, महंगा खाना खाने जैसी सुविधाभोगी आदतों से निकलना होगा। कम खर्च में ज्यादा घूमने के तरीके खोजने होंगे और यह किताब बताती है कि किस तरह घूमने के दौरान आई आर्थिक तंगी से जूझने के लिए कई बार वहीं किसी भी तरह का काम करके (क्योंकि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता) पैसे भी कमाने होते हैं और अगर कभी कैमरा-वैमरा खो जाए तो खुद को समझाना भी होता है कि जो अनुभव साथ हैं, वे कैमरे में दर्ज तस्वीरों से कहीं ज्यादा कीमती हैं।
(travelogue by Anuradha Beniwal)
सामान्य से काफी अच्छा जीवन जीते हुए, सफलता के उच्चतम पायदानों पर खड़ी होने के बावजूद अगर कोई लड़की अपने भीतर की उथल-पुथल को सहेज पाती है, उसे सींच पाती है और एक रोज उसी उथल-पुथल का हाथ थामकर निकल पड़ती है दुनिया घूमने तो उस उथल-पुथल की आवाज को सुना जाना जरूरी है। इस किताब से गुजरते हुए कई बार वह आवाज सुनाई देती है, कभी किताब के पन्नों से, कभी अपने भीतर से। अनुराधा लिखती है- ‘‘मैं पैदा हुई, कॉलेज गई, शतरंज खेली, नेशनल चैम्पियन बनी, अंग्रेजी में एम़ ए़ किया, लॉ किया, पत्रकारिता की पढ़ाई की, प्रेम विवाह कर घर बसाया। कहने को परफेक्ट लाइफ। और क्या चाहिए होता है एक लड़की को। कुछ नहीं न? लेकिन वह क्या था जिसे ढूंढने को मैं भीतर से उबल रही थी। मैं आजाद देश की आजाद नागरिक होकर भी कौन सी स्वतंत्रता की बात सोच रही थी?’’ अनुराधा बेनीवाल की किताब आजादी मेरा ब्राण्ड को उसकी इसी उहापोह के बरअक्स पढ़े जाने पर तमाम सवालों के जवाब भी मिलते हैं और बहुतेरे सवाल भी। यह किताब एक अकेली औरत की घुम्मकड़ी के अनुभव हैं।
यह किताब यूरोप के तमाम देशों की यात्राओं की किताब है जो पाठक को कई यात्राओं में ले जाती है। लंदन, ब्रसेल्स, पेरिस, एम्सटर्डम, र्बिलन, प्राग, ब्रातिस्लावा, बुडापोस्ट, और बर्न घूमते हुए अनुराधा के जेहन में हिंदुस्तान का समाज, उस समाज में स्त्रियों के लिए खड़ी चुनौतियाँ, समाजीकरण किस तरह स्त्रियों के सोचने और महसूसने को प्रभावित करता है आदि बातें लगातार चलती रहती हैं। पेरिस में जूही और हरेन्द्र से हुई उसकी मुलाकात उसे यह सोचने पर भी मजबूर करती है कि देश की सीमाओं को पार करके, खुलेपन के नाम पर दूसरे देशों की संस्कृतियों को अपनाने के बावजूद भारतीय पुरुष समाजीकरण के उस वर्चस्व के शिकंजे में ही कैद हैं जहाँ दूसरी स्त्री प्राप्त करने की वस्तु और अपनी पत्नी छुपाकर रखने की चीज है। खुद आधुनिकता और खुलेपन की तलाश में कई स्त्रियों से संबंध रखने वाला पुरुष किस तरह अपनी पत्नी के बारे में मानसिक कसावट में है, किस तरह फेसबुक पर परफेक्ट फैमिली के इश्तिहार चिपकाती स्त्रियाँ भीतर ही भीतर घुट रही हैं, बेचैन हैं। देश चाहे हिंदुस्तान हो या पेरिस।
अनुराधा कहती हैं, ‘‘कैसे निकल जाऊं घर से, यों ही? घरवाले जाने देंगे? अकेले कैसे जाऊं? कितना सेफ है यों ही अनजान जगहों पर जाना? हथियार लेकर जाऊं? टिकट-विकट की बुकिंग कैसे होगी? कहां रहूंगी? क्या खाऊंगी?’’ इन जैसे सवाल अगर आपके मन में हैं तो आपका मन अभी तक सच में घूमने का नहीं हुआ है। जब होगा, तब ये सवाल नहीं होंगे।
जैसे ही हम यात्रा के लिए कदम बाहर निकालते हैं, बहुत सारे डर खुद-ब-खुद ढेर हो जाते हैं। तमाम सवाल सिरे से खारिज हो जाते हैं। अनुभवों का एक अलग ही संसार जन्म लेता है। ऐसा संसार जिसमें एक यात्री होते हुए तो परिष्कार होता ही है, सुधी पाठक के तौर पर भी भीतर कुछ आंदोलित होता महसूस होता है। किस तरह एक यात्रा न सिर्फ दूसरे देशों की संस्कृतियों, वहां के रहन-सहन और लोगों के व्यवहार से जोड़ती है और किस तरह अपने देश और समाज में जड़ें जमा चुकीं कुछ स्वायत्तों पर प्रश्न उठाना सिखाती है, यह इस पुस्तक को पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है। तमाम देशों की संस्कृतियों के बीच यात्राएँ ही वे पुल हैं जो हमें भौगोलिक, सांस्कृतिक, र्आिथक सीमाओं को तोड़ती हैं। एक-दूसरे से सीखने को उद्यत करती हैं और हमें असल में मानवीय होना सिखाती हैं।
लेकिन इस सबके लिए जरूरी है एक यायावर मन का होना। एक घुमक्कड़ को अपने भीतर होने वाली खलबली को समझना होता है, उसे सहेजना होता है, खाद-पानी देकर सींचना होता है। दुनिया घूमने की इच्छा असल में मात्र घूमी हुई जगहों पर टिकमार्क करना, फेसबुक अपडेट करना या कुछ लिखकर वाहवाही पाने से ऊपर होती है। तब ही यात्रा अपना असल काम करती है, वह यात्री को बाहर के रास्तों पर चलाते हुए भीतर ले जाती है, भीतर की तमाम जड़ताओं को धीरे-धीरे तोड़ना शुरू करती है। यही जड़ताएँ यात्रा वृत्तांत को पढ़ते हुए भी टूटती हैं। संभवत: यही वजह है कि एक यात्री देश, धर्म, जाति, संप्रदाय जैसी बंदिशों से लगातार आजाद होता जाता है। इस पुस्तक में भी सबसे पहले एक स्त्री होने की तमाम उन वर्जनाओं के टूटने की आवाज सुनाई देती है जो हिंदुस्तान में स्त्री की परवरिश से लेकर उसकी मृत्यु तक लगातार पैबस्त रहती है। एक स्त्री की आजादी सिर्फ उसके पहनावे, बोली, देर रात घूमने, किसी के साथ भी सो सकने से ही तय नहीं होती, बल्कि एक व्यक्ति के तौर पर अपने इमोशंस, अपनी हारमोनल जरूरतों के प्रति सहज होना आजादी का असल मतलब है।
(travelogue by Anuradha Beniwal)
एक झलक देखिए तो किस तरह एक यात्रा में अपने भीतर की तमाम गिरहों का अंदाजा मिलता है-
जितनी गिरहें जिंन्दगी की हैं, आजादी की उससे ज्यादा ही होंगी। एक को खोलिए तो दूसरा सामने ऐंठा रहता है। ये सब सामाजिक सभ्यता के निर्माण की गांठें हैं, जिनसे जीवन को भले स्थायित्व मिला लेकिन पग-पग पर उसकी चाल को झटका लगा। अब मुझे नहीं मिल सकी कभी। वह ऐसी कोई बड़ी बात न थी। उसे मेरा समाज, मुझे दे सकता था। उसे मेरे आसपास के लोग मुझे दे सकते थे। परिचित और अपरिचित दोनों तरह के लोगों से वह मुझे मिलनी चाहिए थी, केवल चल सकने की आजादी। टैम-बेटैम, बेफिक्र-बिंदास, हंसते-सिर उठाए सड़क पर निकल सकने की आजादी। कुछ अनहोनी न हो जाए, इसकी चिंता किए बगैर, अकेले कहीं भी चल पड़ने की आजादी। घूमते-फिरते थक जाएं तो अकेले पार्क में बैठकर सुस्ता सकने की आजादी। नदी किनारे भटकते हुए हवा के साथ झूम सकने की आजादी जो मेरे मनुष्य होने के अहसास को गरिमा भी देती है और ठोस यकीन भी।
जैसा कि पुस्तक की भूमिका में स्वानंद किरकिरे कहते हैं कि इस पुस्तक की भाषा इसकी जान है। लेखिका कोई साहित्यकार नहीं है और बेहद सादा तरह से अपने अनुभवों को दर्ज करती चलती हैं, इसी सादगी, साफगोई के चलते किताब सिर्फ बुकशेल्फ में नहीं दिल में जगह बनाती है। यह बात भी समझ में आती है कि दिल से महसूस किये हुए को दर्ज करना असल में इतना मुश्किल भी नहीं, बस कि हमें अपने महसूस करने और लिखने के बीच के संबंध को ईमानदारी से निभाना आता हो, बगैर भाषाई परिमार्जन की परवाह किये, बगैर विधा की फिक्र किए। यह किताब कभी डायरी की शक्ल लेती हुई नजर आती है, कभी संस्मरण की, जैसा कि किताब के आवरण पर दर्ज भी है कि एक हरियाणवी छोरी की यूरोप-घुम्मकड़ी के संस्मरणों की श्रृंखला। यानी किस तरह साहित्य की विधाएं एक-दूसरे को आत्मसात करती चलती हैं, यह किताब इसका उदाहरण भी है।
अनुराधा जानती है कि आजादी न लेने की चीज है न देने की। छीनी भी तो क्या आजादी, वह तो जीने की चीज है। सो वह जीने निकल पड़ी है यह कहते हुए कि आज मैं घूमने निकली हूँ, दुनिया घूमने, अकेले, बिना किसी मकसद के, एकदम आवारा, बेफिक्र, बेपरवाह। आज मैं जीने निकली हूँ। मैं अपनी खुशियां, अपने गम, अपनी हंसी, अपने आंसू खोजने निकली हूं….
इस पुस्तक को पढ़ते हुए पाठक भी किसी यात्रा पर निकल पड़ते हैं, अपने भीतर उस खलबली की आवाज को फिर से सुन पाने की यात्रा में जिसे दुनियादारी और तथाकथित समझदारी ने कहीं दबा दिया था़….
पुस्तक-आजादी मेरा ब्राण्ड , लेखिका-अनुराधा बेनीवाल , मूल्य- रु 199, पृष्ठ सं. 186, प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
(travelogue by Anuradha Beniwal)
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