नदी को बनकर बहते हुए देखने के लिए-यात्रा

चेतना जोशी

अपनी सहूलियत से कभी धार्मिक होने तो कभी नहीं होने में अपना मजा है। पर धर्म अगर पहाड़ों की सैर करा दे तो धार्मिक होना ही बेहतर है। यों तो पहाड़ों को देखने-घूमने-फिरने जाना अपने आप में ही मुकम्मल बात है। इसका किसी धरम या रिवाज को मानने या न मानने से रिश्ता नहीं है। बहुत सारे लोग इसे एक उम्दा शौक भी मानते हैं। मानें भी क्यों न? ये होते ही हैं इतने खूबसूरत। ताकतवर इतने कि हमारे किसी पुराने नजरिए को बदलकर हमें नया ही इंसान बना दें। पहाड़ों में भी बात अगर विराट हिमालय की हो तो बात ही निराली है। ये शौक एक नशे की तरह है और एक अजीब सी सनसनी देता है। पर इन सबसे ही परे हमारी गोमुख जाने की चाह के पीछे बात कुछ और ही थी। ये तो एक नदी को बनते देखने की इच्छा थी। इस चाह के लिए हम 6 जून 2015 की रात 11.55 पर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में नंदा देवी एक्सप्रेस ट्रेन में चढ़े।

ठीक चार घंटे में हम हरिद्वार स्टेशन पर थे। हरिद्वार से आगे जल्द ही पहाड़ी रास्ता शुरू होगा। अब आगे केवल मोटर रोड से ही जाया जा सकता है। हमने रेल पटरियों को अलविदा कहा। अब बस अड्डा खोजा जाये। हरिद्वार बस और रेलवे स्टेशन पास-पास ही हैं। बस अड्डे से पता लगा कि ठीक 9 बजे यहाँ से गंगोत्री के लिए सीधी बस निकलती है। गंगोत्री ही वह जगह है जहाँ से गोमुख के लिए पैदल रास्ता शुरू होता है। हम बीते दिनों इस ढूंढ-खोज में थे कि सस्ते में गंगोत्री कैसे पहुँचा जाए। इस सिलसिले में हमने इंटरनेट छान दिया। नजर कई ऐसी उम्दा वेबसाइटों पर पड़ी जो ऐसी जानकारियों से अटी पड़ी हैं। इन वेबसाइटों से उत्तराखण्ड परिवहन की  बसों से लेकर पहाड़ों में आमतौर पर चलने वाली सूमो जैसी छोटी गाड़ियों तक की जानकारी मिल सकती है। एक ही दिन में हरिद्वार से गंगोत्री पहुँच सकते हैं, यह जानकर हमारी आँखों की चमक बढ़ गई। क्योंकि इंटरनेट से जुटाई जानकारी के हिसाब से बस से जाने पर ये मुमकिन नहीं था। पर बस तो सामने ही खड़ी थी और उसके सामने लगा ‘हरिद्वार से गंगोत्री’ का पट्टा साफ बताता था कि यह भी दिन ही दिन में गंगोत्री पहुँचने को बेकरार है। 6 बजने में समय है, आगे का रास्ता पहाड़ का है और सिर के घूम जाने की पूरी सम्भावना है। इस परेशानी से एवोमिन की गोली गटक कर निपटा जा सकता है। पर उसके लिए पहले कुछ खा लेना चाहिए।

कुछ ही देर में हम बस के सामने बाहर खड़े थे। गोल-मोल रास्तों में चलने वाली बसों के सफर में इस बात से फरक पड़ता है कि हम आगे की सीटों में बैठे हैं या पीछे की। आगे की सीटों में सफर थोड़ा आराम से होता है। हमारा मकसद बस की आगे की तरफ की सीटों को हथियाने का था। फिलहाल तो बस का दरवाजा बंद है। ड्राइवर-कंडक्टर का कोई अता-पता नहीं है। बस से जाने के लिए इकट्ठा हुई सवारियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। इसके चलने का नियत समय भी निकल चुका है। पर बस के चलने जैसा कोई नाम-ओ-निशाँ नहीं है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह चले ही न और इसके चक्कर में हम यहीं फँसे रह जांय? तमाम वेबसाइटों में दर्ज यह बात कि ‘हरिद्वार से गंगोत्री’ कोई सीधी बस नहीं जाती बार-बार याद आई। आखिर बात क्या है? काउण्टर के चक्कर लगाने पर मालूम पड़ा कि ये बस तो खराब है। आगे नहीं जायेगी। पर हम वहीं डटे रहे। थोड़ी ही देर में पता लगा कि बस तो ठीक है पर ड्राइवर साहब सोये हुए हैं। अब उठेंगे तो बस चल देगी। पर चूँकि बस देर से निकलेगी तो अब यह गंगोत्री तक नहीं जा पायेगी। भटवाड़ी तक ही जायेगी। भटवाड़ी उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच बसा छोटा-सा कस्बा है। बस का ड्राइवर होना जिम्मेदारी का काम है और ड्राइवर का पूरी नींद लेना भी जरूरी है। इसलिए समझदारी चुपचाप बस की योजना के हिसाब से अपने को बदलने में ही है। आँखों की चमक अब बस के बस चल देने की आशा में तब्दील हो गयी।
(Travelogue by Chetna Joshi )

साढ़े सात बजे के आस-पास कुछ हलचल हुई। ड्राइवर साहब अपनी सीट के बगल वाले दरवाजे से बस के अन्दर आए। अंतत: उन्होंने बस का गेट खोला। गेट क्या खुला घमासान ही शुरू हो गया। ऐसा लगा कि सभी को बस में आगे की ओर की खिड़की के पास वाली सीट ही चाहिए। इसके लिए खींचतान का सहारा लेना भी मंजूर है। पूरा हुजूम बस की तरफ लपका और कुछ देर के लिए अफरा-तफरी-सी मच गई पर हमारी तैयारी भी पूरी थी। हमारी योजना के तहत पहले जा कर सीट हथियाने का काम मेरे जिम्मे था जबकि वेद को बाद में सामान के साथ आना था।

जद्दोजहद के बाद बस के अन्दर जाने में तो हम सफल हुए पर यह क्या? किसी सीट में रुमाल पड़ा है, किसी में पानी की बोतल तो किसी में ऐसा मुसाफिर जो पूरी सीट ही घेरे हुए हैं। आगे की तो छोड़ ही दें कहीं भी तो जगह नहीं दिखती। अनुभवी सवारियों ने खड़ी बस में ही शीशे खोल-खोलकर अपने छुट-पुट सामान डालकर कब्जे किये हुए हैं। कब्जा करना उन कुछ एक आदतों में है, जो हम छुटपन में ही अच्छे से सीख लेते हैं। फिर यह तो बस की अदना-सी सीट ही है। खैर हम पीछे से चौथी पंक्ति में खिड़की और उसके साथ वाली सीट पाने में सफल होते हैं। खुश हैं कि एक काम पूरा हुआ।

ड्राइवर सो जाये तो जो स्थिति उत्पन्न होती है उससे कैसे निपटा जाये? इसका जवाब तो इंटरनेट रूपी महाग्रन्थ के किसी वेबसाइट रूपी पाठ में लिखा हुआ नहीं पाया था। इसलिए भटवाड़ी दूर था और हमारी किसी भी योजना से बाहर था। भटवाड़ी के बारे में हम कुछ भी नहीं जानते इसलिए उत्तरकाशी तक का ही टिकट कटाते हैं। बस के चलने का मुहूर्त करीब आठ बजे आता है और आखिरकार चल पड़ती है और क्या बढ़िया चलती है! बिना अटके, बिना रुके। यहाँ तक कि सवारियों के खाने-पीने की भी परवाह नहीं करती। ऋषिकेश, नरेन्द्रनगर होते हुए चम्बा से धरासू के लिए गाड़ी टिहरी के बाँध से बनी झील के पास ऊपर से गुजरती है। पहाड़ों को देखने में रास्ता अच्छा ही गुजरता है, चाहे जून के सूखे हुए पहाड़ ही क्यों न हों। कुछ असामान्य नहीं होता जिसको लिखा जाये। पर एवोमिन की तारीफ में दो शब्द जरूर कहे जा सकते हैं। कमाल की गोली है। पहाड़ों में बस के सफर में अगर सिर न चकराए तो खूबसूरत रास्ते सचमुच में ही मंजिलें हैं। एवोमिन में कमी है तो बस एक। ये आँख में नींद को पनाह देती है। सोने का इरादा बिलकुल भी नहीं था। कुछ नयी बढ़िया चीज सामने आये तो वेद हिला-हिला के आँखें खुलवा देते थे। जब भी आँखें खुलती थीं आब-ओ-हवा निराली ही महसूस होती थी। दिन बढ़ते गर्मी भी बढ़ी। इतनी कि पसीने छूट गए। सर्दी से ठिठुरने की उम्मीदों के उल्टे ये मौसम कुछ अटपटा है। करीब डेढ़ बजे पसीने बहाते हम उत्तरकाशी पहुँचे। जो कि काफी गर्म जान पड़ रहा है। उत्तरकाशी के बस स्टेशन के आसपास का इलाका भी सूखा-सा रसहीन था। खैर हमें हमारा ठिकाना पता था। बस स्टेशन के ठीक सामने का ‘राजेन्द्र पैलेस’ जिसके ‘इनचार्ज’ भंडारी जी से पहले से ही बात हुई थी। राजेन्द्र पैलेस में पैलेस जैसी कोई बात नहीं थी। इस बात का हमें पहले से ही अच्छी तरह अनुमान था और हमारी उससे अपेक्षा भी कुछ खास नहीं थी। यह बस अड्डों के पास उगे सरायों जैसा ही है। पर इसका छोटा-सा कमरा रात गुजारने के लिए काफी था। रहने के ठिकानों के नामों के आगे पैलेस क्यों जोड़ा जाता होगा? यह समझना उतना ही दिलचस्प होगा जितना कि यह जानना कि सिनेमाघरों के नाम कैपीटल क्यों रखे जाते हैं। उत्तराखण्ड की शान बर्फ से ढके ‘औली’ का फोटो दीवार पर टंगा था। कमरा अंदर से ठंडा था। पानी भी ठंडा था। शायद फोटो के बर्फीले पहाड़ों से ठण्ड लेकर ही कमरा ठंडा हुआ हो। वरना बाहर तो हमने उत्तरकाशी को ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा शिकार ही घोषित कर दिया था।

इस शहर को देखने का आज मौका है। ज्यादा देर कमरे के अंदर रहने का कोई मतलब नहीं है। हम करीब एक-डेढ़ घंटे बाद बाहर निकले। निकलते ही खुश होने का मौका मिला। मौसम का मिजाज जो पूरी तरह बदला हुआ था! मौसम सुहावना हो चुका था। बारिश की हलकी बूँदें पड़ रही थीं। ये हुई न पहाड़ों वाली बात।
(Travelogue by Chetna Joshi)

उत्तरकाशी मतलब उत्तर की काशी। यहाँ के विश्वनाथ मन्दिर की मान्यता काशी के विश्वनाथ जैसी ही है। थोड़ी ही देर में हम छतरी ताने विश्वनाथ मन्दिर के सामने थे। पत्थरों का बना सुन्दर पुराना मन्दिर एक बार को जागेश्वर, बैजनाथ, कटारमल  का सूर्य मन्दिर और द्वाराहाट में बने पुराने मन्दिरों के उल्टे इस की चाहरदीवारी के रंग-रोगन ने इसे शहरी बना दिया है। मौसम अब तक पूरी तरह बदल चुका है और बारिश तेज हो गई है। इन सब के बीच मन्दिर के ठीक सामने बने छोटे से अहाते में  एक शादी हो रही है। जिसकी रौनक को बारिश ने कम कर दिया है। अहाते में बने बांये शेड के नीचे इस शादी के अति विशिष्ट लोग जैसे दूल्हा-दुल्हन, उनके माँ-पिता और पंडित फटाफट हवन करवा रहे हैं जबकि दायें शेड के नीचे सजे-धजे रिश्तेदार परिचित जमा हो गए   हैं। हमने मन्दिर के बाहर एक टीन शेड में जगह ले ली है। टीन में पड़कर बारिश की बूंदें तेज होने का अहसास करा रहीं हैं। आनन-फानन में हवन निपटा के पगड़ी सम्भालते हुए दूल्हा और लहंगा समेटते हुए दुल्हन ने भी अंतत: इसी टिन की शरण ली। चंद मिनटों में बारिश थमी और हम नदी तक पहुँचने का रास्ता पूछते नीचे निकल आये।

उत्तरकाशी भागीरथी के दोनों ओर बसा हुआ है। गंगोत्री से आई भागीरथी नीचे देवप्रयाग में अलकनन्दा से मिलेगी और उसके आगे गंगा कहलाएगी। नदी देखकर सुकून-सा हुआ। बीते कई सालों में हमने इतनी भरी हुई-सी नदी नहीं देखी थी। नदी के उस पार वाले हिस्से में जाने के लिए लोहे का पुल बना हुआ है। ये झूलता हुआ-सा है। नदी को उस पार जाकर भी निहारा। चलते-फिरते पानी की बात ही निराली है। शाम हो आई थी और शहर भर के छोटे-छोटे बल्ब जगमगा उठे थे। उनकी चमक से नदी भी चमक रही थी।

बढ़ती ठंड के साथ पहाड़ों में होने जैसा लगने लगा। ठण्ड के बिना पहाड़ भी अधूरे हैं। दुनियाभर का बढ़ता तापमान चिंता का विषय बना हुआ है। इसका सबसे बुरा प्रभाव पहाड़ों पर पड़ेगा और पहाड़ों में भी हमारे हिमालय सबसे ज्यादा बर्बाद होंगे। ऐसी खबरें आती ही रहती हैं। इसकी वजह हमारे व्यवहार का पहाड़ों के अनुकूल नहीं होना ही बताया जाता है। इस बात का अहसास भी खूब हुआ और नदी के मुहाने में चालू कंस्ट्रक्शन काम के चलते हुए शोर-शराबे और गंदगी से अफसोस भी।

नदी से वापस अपने ठिकाने की ओर चले तो उत्तरकाशी का बाजार बीच में आया। बाजार साफ-सुथरा, छोटा और खूबसूरत है। यहाँ से कुछ बिस्किट, केक और टॉर्च ली। ये सब गौमुख और आगे हमारे काम आएंगे। देर शाम हम वापस राजेन्द्र पैलेस पहुँचे। इस पैलेस का मुख्य आकर्षण इसका बस स्टेशन के बेहद करीब होना है। अभी शाम ही है और रात के खाने में अभी समय है। हम थोड़ा थक भी गए हैं। खाने से पहले थोड़ा आराम कर लेना चाहिए।
(Travelogue by Chetna Joshi)

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