श्रद्धांजलि : बेनजीर गायिका कबूतरी देवी
प्रदीप पाण्डे
उत्तराखंड की बेनजीर लोकगायिका कबूतरी देवी के गाये गीत हमारी सांस्कृतिक धरोहर रहेंगे। 7 जुलाई 2018 को जीवन से संघर्ष करते हुए वह इस दुनिया से चल दी। वे कब पैदा हुई थी, उन्हें याद नहीं था, पारिवारिक दस्तावेज में पैदाइश का साल 1945 दर्ज हो गया, इस तरह अनुमानत: उन्होंने 73 बसंत देखे। लोकगायक, गायिकाएं या लोकसंस्कृति से जुड़े व्यक्ति कठिनाइयों, अभावों और नजरंदाजी का शिकार होते रहे हैं, क्योंकि सरकारों के लिए और चीजें ज्यादा महत्व रखती हैं। कबूतरी देवी भला इस सब से अलग कैसे रहती। परिवार में 10 भाई बहन थे, अभाव हर तरफ था। पूस की ठंडी रातों में जब भाई-बहन साथ-साथ सोते, एक ही चादर ओढ़ते जिसे ठण्ड लगती वह चादर अपनी और खींचता। मेलों में जाते तो जेब में पैसे नहीं होते मगर इस अभाव की जिन्दगी में एक चीज भरपूर थी तो वह था संगीत। पिता सारंगी, हारमोनियम, ढोलक, तबला बहुत बढ़िया बजाते थे और माँ का गला कोयल के जैसा। आये दिन घर में संगीत की महफिलें बैठतीं और संगीत बह निकलता था। इसी माहौल में कबूतरी देवी बड़ी हुई। कहती हैं, माँ कहती थी सीखो संगीत सीखो पर सीखना इन्ही महफिलों में सुन-सुन कर होता था, ‘‘मैं जो गीत सुनती उसके लफ्ज और धुन मुझे सुनते ही याद हो जाती। मैं सपने में भी उसे गुनगुनाती थी’’ पिता का नाम देवी राम और माता का देवकी देवी, गाँव लेटी, पट्टी गुमदेश, जिला पिथौरागढ़ (अब चम्पावत)। कबूतरी देवी बताती थीं कि उस समय गरीब-गुरबों के परिवार में जब शादी होती थी तो वर पक्ष के 4-5 लोग आते और दुल्हन को चंद रस्में पूरी कर ले जाते। बाल विवाह चलन में थे। कई बार दूल्हा-दुल्हन दोनों को कंधे में भी उठा कर ले जाना पड़ता। खासकर जब दूरी ज्यादा हो। कबूतरी का विवाह भी 13 साल की उम्र में हुआ, पति उनसे 10 साल बड़े थे, कबूतरी देवी का ससुराल मायके से दो दिन की पैदल दूरी पर था। दहेज में सधा सुरीला कंठ वह अपने साथ लेकर गयी। पति दीवानी राम, जिन्हें कबूतरी दी नेताजी कहती थी, फक्कड़ व मस्त आदमी थे। दुनिया घूमते थे। उस समय में भी बम्बई, दिल्ली, कलकत्ता, लखनऊ आते-जाते रहते थे, व्यवहार कुशल थे। एक बार विधानसभा का चुनाव भी लड़े मगर कामयाब न हो सके। अनुभव के धनी होने के कारण उन्होंने कबूतरी के हुनर को भांप लिया और जब उनके ककिया ससुर भानुराम सुकोटी ने जो पीडब्लूडी में बाबू बन लखनऊ में नौकरी कर रहे थे, आकाशवाणी लखनऊ में जाने का रास्ता दिखा दिया तो पत्नी को लखनऊ लाने ले जाने की जिम्मेदारी दीवानी राम जी ने बखूबी निभाई। रेडियो में उनकी आवाज क्या प्रसारित हुई, उनका नाम एक जाना-माना और चहेता नाम बन गया। हालांकि तब रेडियो रख पाना हरेक के बस की बात नहीं थी तो कबूतरी खुद अपनी आवाज कई बार रेडियो में सुन नहीं पाती थी। नेताजी ‘दो कमाओ चार खर्च करो’ वाले मिजाज के थे। कबूतरी देवी बताती थीं कि आकाशवाणी से जो मानदेय की राशि मिलती उसे वे घर पहुँचने से पहले ही खर्च कर देते। यह अलग बात थी कि रेडियो में गाना कबूतरी के लिए नाम और यश के लिए कम आमदनी के जरिये के रूप में महत्त्वपूर्ण था। नतीजा यह होता कि हमारी सुर साम्राज्ञी जब रेडियो में नहीं गा रही होती तो जंगल से लकड़ी ला रही होती, खेतों में फसल गुड़ाई कर रही होती, चूल्हा चौका कर रही होती या पत्थर तोड़ रही होती। सास निर्मोही थी। रोटी गिन कर देती। सुबह जब वे जंगल जाती तो सास कलेवा तक नहीं देती ताकि उसे भूख व्याकुल करे और वह झटपट जंगल से घास लकड़ी ले कर घर आये।
(Tribute to Kabutari Devi)
कबूतरी देवी की आवाज में जो मर्म, जो दर्द साफ नजर आता है उसकी नीव में थीं ये तमाम दिन रोज की तकलीफें और गीतों में सुनाई देने वाला दर्द इन्हीं दुखों का परावर्तन था इसलिए उनके गीत जब रेडियो में आये तो जन-जन के मानस में पैठ गए। वे नए साल का स्वागत गीत चैती गाती तो इस गायन में उस बेटी की वेदना भी सामने आ जाती जो अपने मायके से बुलावा न आने से दुखी है। फाग भी गातीं जो शुभअवसरों पर गाया जाता है। उनके गीतों में घर छोड़ने का दर्द नजर आता है। लोक देवताओं को समर्पित गीत भी उन्होंने गाये तो अपनी जन्मभूमि का गुणगान करने वाले लोकगीतों को भी उन्होंने स्वर दिया। कहीं उनके गीतों में आशिक और माशूका की मीठी सी चुहलबाजी दीखती है और सुरों के विस्तार की हद तो यह थी कि उन्होंने ‘मेरे दिल की दुनिया में हलचल मचा दी मोहब्बत जता कर मोहब्बत जगा दी’ जैसी गजल और ‘अलस की बांसुरी सुनो सखी री किसी ने मोहे सुना के मारा’ जैसा सूफियाना गीत भी जादुई अंदाज में गाया।
उनकी आवाज में जहाँ एक तरफ लोक का ठेठपन झलकता है तो वहीं दूसरी तरफ सुरों पर उनकी पकड़ शास्त्रीय झलक दिखाती हैं। यह बेजोड़ संगम उन्हें दूसरे लोकगायकों से अलग कर देता है। वे हारमोनियम और तबले के साथ गाती थीं, अन्य लोक गायकों की तरह हुड़के के साथ नहीं। सुर और ताल की उनकी समझ तब महसूस की गई जब नैनीताल में उनकी संगत के लिए जब कोई तबला नवाज जरा भी इधर-उधर होता तो उनके चेहरे के भाव साफ बता देते कि वे संतुष्ट नहीं हैं। बाद में उन्होंने बताया भी कि कौन सा तबला वादक ठीक था, कौन सा थोडा हल्का था। हालांकि खुद को वे हमेशा अनपढ़ और ग्रामीण ही समझती रहीं। वे बताती थीं कि जब वे आकाशवाणी में गाने जाती तो वहाँ कई कलाकारों से रूबरू होतीं पर बोलती कुछ नहीं थीं और अपने पति से कहती थीं कि कोई पूछे तो कह देना ये लाटी (गूंगी) है। उनके पति उनसे कहते देखना एक दिन तू फिल्मी दुनिया के लिए गायेगी। वे बम्बई भी गयी आकाशवाणी मुम्बई के लिए उन्होंने गाया। जब वे उम्र के ढलान पर थीं और जब कोई उनके गाने की तारीफ करता तो वे कहतीं ‘‘अब क्या रह गया, कुछ नहीं। पहले जब मैं गाती थी तो मेरा गला घूमता था’’
(Tribute to Kabutari Devi)
आकाशवाणी ने उनको नाम और यश दिया पर ये सिलसिला ज्यादा नहीं चल पाया। उनके पति चल बसे 1984 में और दुर्गम गाँव क्वीतड़ से दूर शहरों में बाहर निकलने का जरिया खत्म हो गया। धीरे धीरे टेलीविजन के आगे रेडियो भी अपनी प्रासंगिकता कमतर पाने लगा। अब गुमनामी और एकाकीपन का दौर आ गया, कबूतरी देवी रोजी-रोटी के लिए खेती और मजदूरी करने तक सीमित हो गयीं। यह लम्बे अरसे तक चला। उन्हें खुद उनके नाम याद नहीं पर वे बताती हैं काफी पहले एक आदमी कुमौड़ (पिथौरागढ़ शहर के निकट का एक गांव) के तथा एक लोहाघाट के हमारे गांव आये। उन्होंने मेरी फोटो खींची और अखबार में छापी। उनके नाम याद नहीं हैं। तब पिथौरागढ़ में हेमराज बिष्ट को पता चला, पिथौरागढ़ के संस्कृतिकर्मी हेमराज बिष्ट उनके गाँव आये और कई जगह सांस्तिक कार्यक्रमों में उनकी भागीदारी करायी। 15 मई 2003 को अमर उजाला में कबूतरी देवी के विषय में खबर प्रकाशित हुई, जिसमें मोहन उपे्रती लोक संस्कृति कला एवं विज्ञान शोध समिति द्वारा उन्हें पुरस्कृत करने की घोषणा थी। खबर का शीर्षक था- गाने से जी उचट गया है कबूतरी देवी का। इस खबर के बाद ही लोगों को उनकी स्थिति के विषय में ठीक से जानकारी मिली। 2004 में उत्तरा महिला पत्रिका, पहाड़, युगमंच और नैनीताल समाचार ने ‘एक विरासत को सुनें’ नाम से उनका कार्यक्रम नैनीताल के शैले हाल में करवाया। अमर उजाला अखबार ने इस अवसर पर उनको सहायता स्वरूप 10,000 रुपये दिए। तत्कालीन कमिश्नर नैनीताल की पत्नी अनीता शर्मा ने 5000 रुपये दिए और बी़डी़ उनियाल ट्रस्ट उनकी मदद को आगे आया। कई अन्य लोगों ने भी र्आिथक राशि उन्हें इस कार्यक्रम के दौरान दी। इस से भी बड़ी बात यह हुई कि एक प्रमुख शहर में इस प्रभावपूर्ण कार्यक्रम के होने से कबूतरी देवी को दुबारा लोकप्रियता मिली। फिर उन्हें कई कार्यक्रमों में बुलाया गया। हजार रुपये महीने की पेंशन भी मिलने लगी। पर विपन्नता ने कभी पीछा नहीं छोड़ा।
यह क्या कम हैरानी और शर्म की बात है कि जब हमारे समाज में इस दौर में जब चारों तरफ चकाचौंध फैल रही हो, मध्यवर्ग के लिए कार, मोबाइल, महंगे फैशन का दिखावा विस्फोटित हो रहा हो, हजारों रुपये हर माह दिखावे में खर्च हो रहे हों, बीमार पड़ने पर इलाज का खर्च भीषण रूप से बढ़ गया हो, ऐसे समय में एक अतुलनीय कलाकार के लिए उसकी पेंशन हजार से दो हजार हो जाना उसके जीवन में उम्मीदें जगा रहा हो तो समझा जा सकता है कि वह किस स्तर पर जीवन जी रहा होगा।
(Tribute to Kabutari Devi)
एक बार उन्होंने कहा जब मैं कभी बाहर कार्यक्रमों में जाती हूँ तो बूढ़े, बाल फूले लोग पाँव छूते हैं तो बड़ी शर्म आती है। पर शायद वे मेरी कला का सम्मान करते हैं। कबूतरी देवी को इस या उस संस्था ने सम्मानित किया, शाल ओढाया, प्रशस्ति पत्र दिया। यह उन्हें क्षणिक सुख जरूर देता होगा मगर उन्हें जिन्दगी चलाने के लिए सम्मानजनक पेंशन की जरूरत थी, एक अदद पक्के मकान की दरकार थी और बेहतर होता अगर यह शहर के नजदीक मिलता। क्योंकि कम से कम बीमार पड़ने पर अस्पताल तो नजदीक होता। पर समय रहते कुछ न हो सका।
कबूतरी देवी के गीत विभिन्न आकाशवाणी केन्द्रों के आर्काइव्स में मौजूद होंगे। कुछेक गीत इन्टरनेट पर भी मिल जाते हैं। जब भी उन्हें सुनें तो उन गीतों को गा रही महिला कलाकार के जीवन संघर्ष को भी स्पर्श करने की कोशिश जरूर करें।
(Tribute to Kabutari Devi)
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