स्टीफन हॉकिंग के बहाने से ‘विज्ञान और ईश्वर’ की पड़ताल

राहुल भट्ट

स्टीफन हॉकिंग  (8 जनवरी, 1942 से 14 मार्च, 2018) हमारे समय के एक चर्चित वैज्ञानिक थे। उनकी प्रशिद्धि  का कारण ब्रह्मांड के रहस्यों को सुलझाने के लिये किये गये उनके वैज्ञानिक कार्य तो थे ही, साथ ही जनसाधारण के लिये लिखी उनकी पुस्तकें भी अत्यंत लोकप्रिय रहीं हैं। उनका व्यक्तिगत जीवन भी हम सभी के लिये एक मिसाल है।

21 वर्ष की उम्र में उनको मोटर न्यूरन या अछर, नामक एक गंभीर एवं असाध्य बीमारी का पता चला। उस समय डाक्टरों ने उनकी केवल 2 साल की और जिन्दगी बतायी। इसमें धीरे-धीरे लगभग सारा शरीर लकवाग्रस्त हो जाना था। गनीमत सिर्फ इतनी थी कि मानसिक क्षमता में कोई असर नहीं पड़ना था। और इसी के बूते उन डाक्टरों की समझ को धता बताते हुये वो 55 साल और जी गये। और वे जीवन भी ऐसा कि दो विवाह, तीन संतान, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी और विश्वख्याति। कम्प्यूटर के सहारे बोलने के बावजूद उनके व्याख्यान और इंटरव्यू बहुत लोकप्रिय हुए। इनमें से बहुत से इंटरनेट में उपलब्ध हैं। उनके निधन पर मीडिया के सभी माध्यमों में उनके बारे में इतना कुछ कहा गया कि अब शायद कुछ बचा ही न हो।

उनको श्रद्धांजलि  देने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि उनके बहाने से ‘विज्ञान और ईश्वर’ की तनिक पड़ताल की जाय। उनके लोकप्रिय लेखन एवं वक्तव्यों में यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। महिलाओं के लिये यह मुद्दा पुरुषों से अधिक मायने रखता है या नहीं- यह कहना मुश्किल है। लेकिन दैनिक जीवन में धार्मिक परंपरायें महिलाओं को शायद अधिक प्रभावित करती हैं। और इन परंपराओं के मूल में ‘ईश्वर’ की ‘अवधारणा’ ही है। दूसरी तरफ विज्ञान धीरे-धीरे इस ‘अवधारणा’ को चुनौती देने की ओर अग्रसर है। जिससे कुछ धार्मिक बेड़ियां टूट भी रही हैं। लेकिन जब तक स्टीफन हॉकिंग जैसे वैज्ञानिक की ‘समझ’ आम महिला के पल्ले नहीं पडे़गी तब तक धर्म का अवांछित कारोबार फलीभूत होता रहेगा।
(Tribute to Stephen Hawking)

वैसे यह कारोबार कुछ हद तक डर और आशा के मिलेजुले भाव से पोषित होता है। ‘अटूट विश्वास’ पर आधारित होने के कारण यह लगभग 5000 साल से तो मानव जीवन को प्रभावित कर ही रहा है। ‘आधुनिक विज्ञान’ अपेक्षाकृत काफी नयी विचार प्रणाली है जो तर्क, अवलोकन तथा प्रयोग पर आधारित है। व्यक्तिगत ‘विश्वास’ की इसमें कोई जगह नही है। जाहिर है कि इन दोनों के बीच थोड़ा ‘टकराव’ हो।

जाति और धर्म के मुद्दों से जूझते हमारे आज के भारतीय समाज के लिये ऐसा ‘टकराव’ शायद अप्रासंगिक लगे, लेकिन पश्चिम की दुनिया में एक जमाने में यह एक बड़ा मुद्दा था। इसका एक उदाहरण है- ‘गैलिलियो का किस्सा’। लगभग 1610 इसवी में शुरू हुए इस किस्से की परिणति 1633 में ‘कैथोलिक चर्च’ द्वारा उनको कड़ी सजा देने से हुई। दरअसल उस समय चर्च की मान्यता थी कि पृथ्वी सारे ब्रह्माण्ड का केन्द्र है। सूरज और तारे सब इसकी परिक्रमा करते हैं। गैलिलियो ने अपने आविष्कार ‘टेलिस्कोप’ यानी एक बड़ी सी दूरबीन से आकाश का गहन अवलोकन किया। विशेष रूप से शुक्र ग्रह तथा वृहस्पति के चन्द्रमा के पथ का अध्ययन कर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि केन्द्र में सूरज है- पृथ्वी नहीं। और धरती सूरज की परिक्रमा करती है। चर्च का मानना था कि ईश्वर की बनायी धरती स्थिर है। गैलिलियो ने ज्वार-भाटे का अध्ययन करके पृथ्वी की गति को साबित करने की कोशिश की। उन्होंने धूमकेतु का भी अपने ‘टेलिस्कोप’ से गहन अवलोकन कर इसे प्रमाणित करने की कोशिश की। उनके इस तरह के सभी वैज्ञानिक प्रयासों को चर्च ने ‘ईश्वर’ पर आस्था के खिलाफ माना। उस समय के विधान के अनुसार उन्हें फांसी भी मिल सकती थी, लेकिन किसी तरह वह इससे बच निकले। शायद उनकी आम जनता में लोकप्रियता इसका एक कारण हो। लेकिन फिर भी उन्हें अनिश्चितकालीन नजरबंदी की कड़ी सजा मिली। 1642 में मृत्यु तक वह इसी सजा को काटते हुये नजरबंदी में रहे।

आज गैलिलियो आधुनिक विज्ञान-  विशेषकर भौतिकी के पिता समान माने जाते हैं। शायद यही कारण है कि वे स्टीफन हॉकिंग के लिये भी एक प्रेरणास्रोत थे।

एक इंटरव्यू में ब्रिटिश पत्रकार पियर्स मर्गन ने हॉकिंग से पूछा कि वे कौन से ऐसे तीन लोग चुनेंगे जिनके साथ वह अपना सारा जीवन एक निर्जन द्वीप पर बिताना पसंद करेंगे? हॉकिंग का जवाब था- ‘वैसे तो मुझे (अपंगता के कारण) हर वक्त अपने सहायकों की जरूरत पड़ती है, लेकिन अगर मैं शारीरिक रूप से सक्षम होता तो- हॉलीवुड अभिनेत्री मर्लिन मुनरो, गैलिलियो और आइंस्टीन।

मर्लिन मुनरो के बहुत बड़े प्रशंसक होने के कारण उनका नाम लेना तो स्टीफन हॉकिंग के लिये स्वाभाविक ही था। लेकिन गैलिलियो के बाद तीसरा नाम शायद आइंस्टीन के बद्ले न्यूटन का भी हो सकता था, क्योंकि हॉकिंग का कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय का पद ‘न्यूटन की कुर्सी’ कहा जाता है।
(Tribute to Stephen Hawking)

न्यूटन 1643-1727, गैलिलियो की मृत्यु के एक साल बाद पैदा हुये। उन्होंने गैलिलियो के वैज्ञानिक निष्कर्षों को विधिवत गणित आधारित नियमों का रूप दिया। इन्हीं नियमों के अनुसार पृथ्वी सूरज की परिक्रमा करती है। 1687 में प्रकाशित न्यूट्न के ‘गुरुत्व’ के नियम के अनुसार ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु अपने वजन के हिसाब से दूसरी वस्तु को अनवरत अपनी तरफ खींचती है। इस खिचाव को ‘गुरुत्वाकर्षण बल’ कहा गया। पहली बार यह साबित हुआ कि ब्रह्मांड के कम से कम एक पहलू को वैज्ञानिक विधि द्वारा विवेचित किया जा सकता है। ऐसा कहने का मतलब ईश्वर की सत्ता को चुनौती देना था।

उदाहरणार्थ, बाइबिल में जोशुआ की कहानी है जिसने सूर्य और चन्द्र की गति रोक देने की प्रार्थना की, ताकि उसे शत्रुओं से लड़ने के लिये अतिरिक्त  दिन की रोशनी मिल सके। भगवान ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर सूर्य को एक दिन के लिये रोक दिया। आज हमें पता है कि सूरज के रुकने का मतलब पृथ्वी का घूमना बंद। और अगर ऐसा वाकई हो जाय तो न्यूटन के नियमों के अनुसार जो भी वस्तु धरती से बंधी हुई नहीं है, वह धरती की गति (विषुवत रेखा पर लगभग 1000 मील प्रति घंटा) से भागते हुए अंतरिक्ष में छिटक जायेगी। मतलब हम बचेंगे ही नहीं। 

लेकिन न्यूटन का मानना था कि भगवान ऐसा कर सकते हैं कि एक दिन के लिये ‘गुरुत्वाकर्षण बल’ काम ना करे। आखिरकार सारे नियम उसी की इच्छा से ही तो काम करते हैं। और इस प्रकार सूरज के रुकने पर भी शायद हम बच जायें। और यही वह बिंदु है जिसे स्टीफन हॉकिंग नकारते हैं। अपनी पुस्तक Grand Design (सह-लेखक लियोनार्ड म्लोदिनव), में उन्होंने न्यूटन और ‘बाइबिल के जोशुआ’ का उपरोक्त तरीके से जिक्र किया है। लेकिन साथ ही यह भी लिखा है कि सूर्य और चन्द्र जैसे खगोलीय पिण्डों की नियमित गति के अवलोकन-अध्ययन से निष्कर्ष निकलता है कि ये सब निश्चित प्राकृतिक नियमों द्वारा संचालित होते हैं- देवताओं या राक्षसों की मनमानी सनक से नहीं।
(Tribute to Stephen Hawking)

इसी संदर्भ में हिंदुओं के आराध्य हनुमान जी का एक प्रसंग भी विचारणीय है जिसके अनुसार उन्होंने बचपन में एक बार सूरज को निगल लिया था। आज हम अनेक वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा यह जान चुके हैं कि सूरज एक आग का गोला है जिसकी सतह का तापमान लगभग 6000 डिग्री सैल्सियस है (100 डिग्री सैल्सियस पर पानी उबलकर भाप बन जाता है।) और इसके वातावरण में जिसे ‘कोरोना’ कहते हैं, तापमान 20 लाख डिग्री सैल्सियस तक पहुंच जाता है। ऐसे में हनुमान जी के इस प्रसंग में कितनी सच्चाई हो सकती है, इसका अंदाज लगाना कठिन नहीं है। लेकिन हनुमान-चालीसा और सुंदर-काण्ड का नियमित पाठ करने वाली महिलाओं को यह समझाना मुश्किल है क्योंकि उनके विश्वास का धागा आसानी से नही टूटता। 

स्टीफन हकिंग ने ऐसे ही एक प्राचीन पश्चिमी विश्वास का जिक्र भी किया है: स्कोल और हैती नामक दो भेड़िये सूरज और चांद के पीछे पडे़ रहते हैं। जब भी ये किसी एक को पकड़ लेते हैं, उसी पर ग्रहण छा जाता है। जब ऐसा होता है तो लोग उसे (सूरज या चांद को) बचाने के लिये मिलकर हल्ला करने लगते हैं- इस विश्वास के साथ कि हल्ले से भेड़िये डर कर भाग जायेंगे। सूर्य और चन्द्र ग्रहण को लेकर इस जैसी अनेक मान्यतायें आज भी प्रचलित हैं। हकिंग का कहना था कि धीरे-धीरे लोगों को यह पता लगने लगा होगा कि वे हल्ला करें या नहीं, ग्रहण तो अपने आप ही हट जाता है। इसी प्रकार प्रकृति के बारे में अज्ञानता के कारण इंसान ने अपने जीवन के हर पहलू पर प्रभुता के लिये ‘देवताओं’ का ‘आविष्कार’ किया होगा। वास्तव में प्रकृति की कार्यप्रणाली को समझने के लिये ‘ईश्वर’ की ‘अवधारणा’ की आवश्यकता नहीं है।

वैसे हॉकिंग के इन विचारों से उनकी पहली पत्नी जेन इत्तफाक नहीं रखती थीं। जेन आस्तिक हैं और 25 साल (1965- 1990) तक साथ गुजारने के बाद भी ‘ईश्वर’ के बारे में दोनों में जबरदस्त मतभेद रहा। एक स्पैनिश अखबार को 2015 में दिये गये एक इंटरव्यू में जेन ने कहा था कि ‘ईश्वर’ पर आस्था के कारण ही वह हॉकिंग की लम्बी बीमारी के दौरान के मुश्किल वक्त को झेल पायी। हॉकिंग द्वारा जेन की आस्था का लगातार उपहास करना भी उनके संबध बिगड़ने का एक कारण था।
(Tribute to Stephen Hawking)

दरअसल ईश्वर को पूरी तरह खारिज करना स्टीफन हॉकिंग के ही बूते की बात थी, वरना अनेक वैज्ञानिक भी किसी न किसी रूप में आस्था का दामन पूरी तरह से नही छोड़ते। जैसे 1979 में भौतिकी का नोबल पुरस्कार ग्रहण करते समय पाकिस्तानी वैज्ञानिक अब्दुस सलाम ने पवित्र कुरान की पंक्तियां उद्घृत कीं। सूक्ष्म कणों के विषय में महत्वपूर्ण अन्वेषण करने वाले अब्दुस सलाम का कहना था कि हम अल्लाह की बनाई सृष्टि को जितना अधिक जान रहे हैं, उतना ही इसकी पूर्णता को देखकर चकित हो जाते हैं। वैसे यह भी गौरतलब है कि अब्दुस सलाम अहमदिया इस्लाम के अनुयायी थे और उनकी दोनों पत्नियां उस नोबल पुरस्कार समारोह में आमंत्रित थीं। इस्लाम में दो पत्नियों का जायज होना एक सामाजिक पहलू है लेकिन इसको भी बहुधा आस्था के सवाल से जोड़ दिया जाता है। बहरहाल, अब्दुस सलाम के कार्य का जिक्र हॉकिंग ने अपनी अति चर्चित पुस्तक ‘A Brief History of Time’ में किया है।

वैसे तत्वों- पदार्थ के सभी शुद्घ रूप जैसे लोहा, सोना, अक्सीजन, आदि, की मूल इकाई परमाणु के अंदर मौजूद नाभिक में एक Strong Nuclear Force ‘मजबूत नाभिकीय बल’, भी कार्य करता है। नाभिकीय बलों की प्रक्रिया से ही सूरज की ऊर्जा बनती है और इसी पर आधारित तकनीक से इंसान ने परमाणु बम भी बना लिया है। जाहिर है कि सूक्ष्म कणों के अंदर की ऊर्जा से बहुत अधिक विनाश भी हो सकता है।    

सूक्ष्म और विराट- ये दोनों ही ब्रह्मांड के अभिन्न अंग हैं। सूर्य और तारे अंतरिक्ष में स्थित विराटकाय ऊर्जा स्रोत हैं। इनकी ऊर्जा एक लम्बे सफर को तय कर धरती तक पहुंचती है और यहां मौजूद असंख्य सूक्ष्म कणों में समा जाती है। सूरज का प्रकाश भी ऐसी ही एक ऊर्जा है जिसको धरती तक पहुंचने में लगभग 8 मिनट लगते हैं। प्रकाश  और कणों के पारस्परिक संबंध को एक अन्य बल निर्धारित करता है जिसे Electromagnetic Force (विद्युत-चुम्बकीय बल) कहते हैं। हमारे घर की बिजली की तकनीक के साथ-साथ मानव शरीर की अधिकतर प्रक्रियायें इसी पर आधारित हैं। एक प्रकार से प्रकाश और बिजली दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

आइंस्टीन ने प्रतिपादित किया कि प्रकाश की निर्वात स्थिति जहां बिलकुल भी हवा न हो, में गति का मान एक सार्वभौमिक स्थिर अंक है। यह किसी भी तरह आकलन करने से बदलता नही है। बहुत से वैज्ञानिक प्रयोगों से यह साबित हुआ है। इसके आधार पर आइंस्टीन ने 1905 में सापेक्षता (Relativity) का सिद्धांत विकसित किया। न्यूटन के नियमों को इस आधार पर परिष्कृत किया गया जो सूक्ष्म जगत के ‘अधिक गति’ वाले कणों के व्यवहार को समझने में सहायक सिद्ध हुआ।
(Tribute to Stephen Hawking)

सापेक्षता के सिद्घांत का एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह निकला कि समय निरपेक्ष नही होता- यह नापने वाले पर निर्भर करता है। आगे चलकर 1915 में इसी को व्यापक आधार देते हुये आइंस्टीन ने ‘गुरुत्वाकर्षण’ की एक नये तरीके से व्याख्या की। इसके अनुसार ब्रह्मांड समय और स्थान (Space-Time) के एकीकृत रूप एक कपड़े जैसा है। किसी बड़े भारी पिण्ड का मतलब इस कपड़े का मुड़ जाना है। और इसी के कारण ‘गुरुत्वाकर्षण’ का खिंचाव पैदा होता है।

यदि इस ‘Space-Time’ में किसी स्थान पर इतना अधिक ‘गुरुत्वाकर्षण’ का खिंचाव पैदा हो जाय कि कोई भी सूक्ष्म कण- यहां तक कि प्रकाश भी इसके अंदर से बाहर न निकल सके तो वह स्थान ‘ब्लैक होल’ कहलाता है। यह एक प्रकार का अत्यधिक घना और भारी लेकिन अदृश्य स्थान है। जिसकी उपस्थिति विशेष वैज्ञानिक विधियों से पता चलती है। आसमान के बहुत से तारे- जो हमारे सूरज की तरह ही आग के गोले हैं- जलने के बाद ‘ब्लैक होल’ बन जाते हैं। स्टीफन हकिंग ने ऐसे ‘ब्लैक होल’ की कार्यप्रणाली के बारे में गहन शोध किया। इसी तरह के वैज्ञानिक कार्य को आगे बढ़ाते हुये उन्होंने ‘ब्रह्मांड की उत्पत्ति’ के बारे में भी कार्य किया।

वैज्ञानिक जगत में यह लगभग स्थापित तथ्य है कि वर्तमान ब्रह्मांड का जन्म एक महा-विस्फोट (Big Bang) से हुआ। इसका कारण यह है कि अंतरिक्ष के अवलोकन में लगे अत्याधुनिक यंत्रों से पता चलता है कि सारा ब्रह्मांड फैल रहा है। सभी आकाशगंगायें (Galaxies) एक दूसरे से दूर जा रही हैं। इसी को अगर भूतकाल की तरफ ले जायें तो यह समझा जा सकता है कि कभी सब कुछ पास-पास रहा होगा, और एक क्षण शुरूआत का ऐसा रहा होगा कि सारा ब्रह्मांड एक बिंदु में ही समाहित था। इस बिंदु में असीम ऊर्जा थी। जिसके कारण बहुत अधिक गर्मी थी। महा-विस्फोट में ये ऊर्जा फट पड़ी। फलस्वरूप ब्रह्मांड ‘उत्पन्न’ होकर फैलने लगा। शुरू में सिर्फ अति सूक्ष्म कण ही थे जिनसे बाद में बडे़ कण बने। फैलने के कारण ब्रह्मांड ठंडा होने लगा और फिर धीरे-धीरे अलग-अलग जगह पर तरह-तरह के तारे बने- जिनमें हमारा अदना सा सूरज भी एक किसी कोने में बन पड़ा।

ब्रह्मांड के ठंडा होने की गति इसके फैलने की गति पर निर्भर करती है, और इसके आज के तापमान को नापकर महा विस्फोट big Bang से अब तक का समय निकल जाता है। इस हिसाब से आज के ब्रह्मांड की उम्र लगभग 13़8 बिलियन साल (1 बिलियन = 100 करोड़) आंकी गयी है। तब से लेकर आज तक यह सब प्रकृति के नियमों के अनुसार स्वत: ही होता चला गया। ये नियम मूलतया बलों विद्युत-चुम्बकीय, नाभिकीय और गुरुत्वाकर्षण की कार्यप्रणाली है जो कुछ हद तक वैज्ञानिक विधि द्वारा समझ में आने लगी है। इस पूरे वृतांत में ‘ईश्वर’ की कोई भूमिका नही है।       

सवाल हो सकते हैं कि महाविस्फोट क्यों हुआ? प्रकृति के नियम ऐसे ही क्यों है- जैसे वैज्ञानिकों ने खोजे या समझे, और जिनके आधार पर इतनी तकनीकी प्रगति हो गयी कि अब मंगल ग्रह पर इंसान भेजने की तैयारी हो रही है। सवाल यह भी है कि महाविस्फोट कहां पर हुआ और उस से पहले क्या था?
(Tribute to Stephen Hawking)

स्टीफन हॉकिंग के अनुसार इन सवालों का आज कोई खास मतलब नही है। वह एक ‘ Model dependent realism’ की बात करते हैं- यानी वास्तविकता एक मॉडल पर आधारित होती है, और यह ‘मॉडल’ देखने वाला अपनी क्षमता और परिस्थिति के अनुसार बनाता है। चूंकि इंसान भी अनेक सूक्ष्म कणों का एक समूह ही है, तो और इसके बाद की स्थिति तथा वैज्ञानिक विधि से खोजे गये प्रकृति के नियम सभी इंसान की क्षमता और परिस्थिति के अनुरूप विकसित हुए हैं। भविष्य में यह ज्ञान और अधिक परिष्कृत हो जायेगा लेकिन इससे महाविस्फोट की घटना या प्रकृति के नियमों में कोई बदलाव नहीं हो जायेगा। हॉकिंग के अनुसार हमारे अलावा अनेक अन्य तरह के ब्रह्मांडों का वजूद भी हो सकता है जहां पकृ्रति के नियम हमारे ब्रह्मांड से अलग हों। लेकिन इस सब के लिये ‘ईश्वर’ की कोई जरूरत नहीं है। 

हम में से अधिकांश को ‘ईश्वर’ की आवश्यकता अपना लोक ही नहीं परलोक सुधारने के लिये भी पड़ती है। खासकर वृद्घ महिलाओं में पूजा-पाठ की ओर अत्यधिक रुझान के पीछे यह मानसिकता भी कार्य करती है। लेकिन हॉकिंग का परलोक या पुनर्जन्म में कतई विश्वास नहीं था। जो भी करना है- उस के लिये यही एकमात्र जीवन है, बस। इसी सोच के साथ उन्होंने अपना सारा जीवन ब्रह्मांड के रहस्यों को खोजने में लगा दिया।       

2012 में उनके जन्मदिन के अवसर पर न्यू साइंटिस्ट पत्रिका द्वारा लिये गये इंटरव्यू में जब हॉकिंग से पूछा गया कि वे दिन भर में सबसे ज्यादा क्या सोचते हैं तो उनका जवाब था- महिलायें! वे पूरी तरह से रहस्य हैं।

हो सकता है कि उनके इस जवाब में विनोद रहा हो, लेकिन उनके वैवाहिक जीवन पर कुछ रहस्य तो बना ही रहा। उनकी दूसरी पत्नी ऐलेन- जो पहले उन की नर्स थी, पर घरेलू हिंसा के आरोप लगे। कुछ नर्सों ने मीडिया को बताया था कि ऐलेन हॉकिंग को काफी प्रताड़ित करती है। यहां तक कि बहुत बार उनको लगी चोटों के साथ जब वह अस्पताल पहुंचे तो चोट लगने का कोई संतोषजनक कारण नहीं बता पाये। उनके बच्चों, जेन से, को पूरा यकीन था कि ये सब ऐलेन की कारस्तानी है। इसलिये पुलिस केस भी चला लेकिन लम्बी छानबीन के बाद बंद कर दिया गया, क्योंकि हॉकिंग ने ऐलेन के खिलाफ कुछ भी कहने से इंकार कर दिया। वैसे इस पुलिस केस के कुछ समय बाद 2006 में उनका ऐलेन से भी तलाक हो गया।

इतना प्रशिद्ध वैज्ञानिक और एक विकसित देश का निवासी- घरेलू हिंसा का शिकार भी हो सकता है, यह थोड़ा अजीब लगता है। लेकिन बहुत सी भारतीय महिलायें, जो घरेलू हिंसा से पीड़ित होते हुये भी अपना मुंह नहीं खोलतीं, शायद इसे समझ सकती हैं। बस एक अंतर है कि इनमें से अधिकांश ईश्वर’ या भाग्य को दोष दे रहीं हों परन्तु हॉकिंग के लिये इसमें ‘ईश्वर’ या भाग्य का कोई रोल नहीं था।        

स्टीफन हॉकिंग की अस्थियां न्यूटन और डार्विन की कब्रों के आसपास ही दफनायी गयीं। डार्विन का विकासवाद का सिद्घांत भी धरती के तमाम जीव-जंतुओं के उद्भव में ‘ईश्वर’ के रोल को नकारता है। दरअसल वैज्ञानिक विश्लेषण में ‘भगवान’ की परिकल्पना फिट नहीं बैठती। लेकिन दैनिक जीवन में बिना ‘ईश्वर’ के काम चलाने का मतलब है- अपने ऊपर पूर्ण विश्वास करना। पुरुष तो शायद यह कर भी लें, लेकिन महिलाओं के लिये शायद यह एक बड़ी चुनौती है। शायद स्टीफन हॉकिंग के बहाने से कुछ स्त्रियां इस चुनौती को स्वीकार करें और अपनी किस्मत खुद लिखें। यह सही मायने में उस मनीषी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 
(Tribute to Stephen Hawking)

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