उत्तरा का कहना है : जुलाई-सितम्बर 2015
इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा शिक्षा व्यवस्था पर दिये गये ऐतिहासिक फैसले ने एक बार फिर शिक्षा व्यवस्था व शिक्षा नीति की कलई खोल दी है। साथ ही सरकार पर भी सवाल खड़े कर दिये हैं। एक बार फिर देश के शिक्षाविदों व आम जनता के बीच वर्तमान शिक्षा व्यवस्था व सबको समान शिक्षा के नाम पर जारी लूट जैसे सवाल चर्चाओं में हैं। वास्तव में यह विचारणीय है कि आजादी के इतने साल बाद भी यहाँ की सरकारों ने जहाँ अमीर-गरीब के बीच की खाई को बढ़ाया है, वहीं इस खाई को उसने शिक्षा के सवाल पर भी इनके बीच बढ़ाया है। इसी सबके चलते आज सरकारी स्कूलों की शिक्षा सुधरने की जगह प्रतिवर्ष बिगड़ती जा रही है जबकि ज्यादा वेतन देकर सबसे योग्य शिक्षकों का चयन सरकारी स्कूलों के लिए किया जाता है। फिर भी क्या कारण है कि समाज का सामाजिक व र्आिथक रूप से पिछड़ा व्यक्ति ही मजबूर होकर आज सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ा रहा है। सरकारी स्कूलों की छात्र संख्या जहाँ निरन्तर घटती जा रही है वहीं निजी स्कूलों की संख्या व छात्र संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। सरकारी अधिकारी व सरकार चलाने वाली पूरी मशीनरी (सरकारी विभाग/सरकार चलाने वाले मंत्री-विधायक) भी अपने ही स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए तैयार नहीं हैं। कारण साफ है कि उन्हें पता है कि इन स्कूलों में कितनी दुर्दशा है और यह भी कि इस दुर्दशा के लिए वही जिम्मेदार हैं।
सरकारों का शिक्षा के नाम पर एक बहुत बड़ा बजट इस प्राथमिक शिक्षा व माध्यमिक शिक्षा के नाम पर खर्च हो रहा है। फिर निरन्तर निजी स्कूलों की जरूरत क्यों बढ़ रही है, सरकार की शह पर निजी स्कूलों की मनमानी, पैसों की लूट लगातार क्यों बढ़ रही है। सरकार कोई नियंत्रण इन पर क्यों नहीं करती है। ऐसे में यह सवाल उठना भी स्वाभाविक ही है कि क्या कहीं यह स्कूल इन नेताओं व अफसरों के लिए कमाई के साधन तो नहीं हो गये हैं। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था ने शिक्षा को निजी हाथों में सौपकर पैसे कमाने का एक धंधा बना दिया है। आज कई राजनेता/सरकारी बड़े-बड़े अधिकारियों के अपने स्कूल चल रहे हैं। सरकार के रवैये से तो यही लगता है कि सरकार शिक्षा को निजी हाथों में सौपने की पूरी तैयारी कर चुकी है।
(Uttara Editorial)
आज देश की सरकारें कभी जन सेवा के क्षेत्र माने जाने वाले शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे बुनियादी सवालों पर मौन है। तभी आज तक हम अपने देश के बच्चों को न तो समान शिक्षा दे पाये न ही समान स्कूली व्यवस्था। किसी भी भेद भाव के बिना सभी के बच्चे एक साथ एक तरह के स्कूल में शिक्षा ले सकें। अमीर-गरीब/ऊँच-नीच का जहाँ कोई भेद न हो केवल इन्सानियत ही पहचान हो। क्या हम ऐसी शिक्षा व्यवस्था नहीं ला सकते हैं? लेकिन ऐसा न होकर गरीब व कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए अलग शिक्षा व्यवस्था व सम्पन्न व उच्च वर्ग के बच्चों के लिए अलग शिक्षा व्यवस्था का प्राविधान आज भी जारी है। शिक्षा परस्पर प्रेम व समझदारी का विकास करती है परन्तु आज की शिक्षा व्यवस्था वर्ग भेद, घृणा वे हिंसा को बढ़ा रही है। आज सरकारी स्कूल सिर्फ गरीब आर्थिक रूप से विपन्न वर्ग के बच्चों को शिक्षा देने वाले ही होकर रह गये हैं, इसीलिए और भी बद से बदतर होते जा रहे है। इसीलिए आर्थिक विपन्नता के बावजूद गरीब से गरीब भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में ही पढ़ाने की ही इच्छा रखते है और हर सम्भव प्रयास करते है। वे मजबूर हैं पर जो देश व समाज के बारे में सोचता है वह चुप नही रह सकता। उसे चुप नहीं रहना चाहिए। इसी बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने सरकार को आगाह किया है कि वह सरकारी स्कूलों की दुर्दशा को सुधारने व निजी स्कूलों की लूट को रोकने के लिये तत्काल कडे़ कदम उठाये। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट आदेशित किया है कि सभी सरकारी खजाने से पैसा लेने वाले मंत्री से लेकर अधिकारी, न्यायाधीश, शिक्षक, कर्मचारी तक सभी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ायें। पर तब भी यदि कोई अपने बच्चों को निजी स्कूलों में ही पढ़ाना चाहते हैं तो वे जितनी फीस निजी स्कूल में दे रहे हैं उतनी ही फीस सरकारी खजानें में भी प्रतिमाह जमा करायें। इस संवैधानिक फैसले से समाज में उन सामाजिक संगठनों व समान शिक्षा पर काम कर रहे व्यक्तियों व संगठनों को न केवल सुकून मिला है वरन स्पष्ट दिशा भी मिली है।
शिक्षा जैसे बुनियादी सवाल पर समाज के सभी बुद्धिजीवी व संघर्षशील संगठनों व व्यक्तियों को देश के बच्चों केभविष्य के लिये एकजुट होकर खड़ा होने को यह उपयुक्त समय आ गया है ताकि सरकारें अब कुछ नया खेल न खेलने पायें। शिक्षा ही वह हथियार है जिससे देश की प्रगति व देश की उन्नति प्रभावित होती है। आज देश की आजादी के इतने साल बाद शिक्षा की दोहरी नीति पर न्यायालय ने तक सवाल खड़ा किया है तो इस मांग पर देश की जनता को एक जुट होने का समय आ गया है। इसके लिए जनसंघर्ष छेड़ने का समय आ गया है। आज प्रत्येक समझदार व्यक्ति व हर संवेदनशील नागरिक का यह दायित्व है कि वह स्वयं तय करे कि शिक्षा के इस संघर्ष रूपी हवन में वह अपनी ओर से क्या आहुति दे सकता है जिससे देश के हर बच्चे को अच्छी- सस्ती- समान शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो सकेगा। देश के सभी बच्चों को अच्छी सस्ती समान शिक्षा पाने का अधिकार मिलेगा तभी देश की यह आने वाली पीढ़ी एक बेहतर देश का निर्माण कर सकेगी, जहाँ सब को अपनी क्षमता के अनुसार आगे बढने का समान व भरपूर अवसर मिल सकेगा। हर पीढ़ी अपने आने वाली पीढ़ी को बेहतर भविष्य और इसके लिए उसके विकास की बेहतर सम्भावना वाली व्यवस्था देना चाहती है और यह तभी हो सकता है जब अच्छी सस्ती समान शिक्षा प्राप्त करना देश के किसी भी बच्चे का मौलिक अधिकार होगा। यह उपयुक्त समय है कि इसे लेकर सभी मिल कर आवाज बुलन्द करें।
(Uttara Editorial)
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