सम्पादकीय अक्टूबर-दिसम्बर 2020
इस अंक के साथ उत्तरा महिला पत्रिका इकतीसवें वर्ष में प्रवेश कर रही है। अक्टूबर 1990 में जब उत्तरा का पहला अंक प्रकाशित हुआ और सी.आर.एस.टी. इंटर कॉलेज के सभागृह में शहर के नागरिकों, बुद्धिजीवियों, छात्रों, महिलाओं के बीच प्रोफेसर शाकम्बरी जुयाल के करकमलों से उसका लोकार्पण हुआ, उस समय उत्तरा की भविष्य की यात्रा के प्रति कोई विशेष रूपरेखा या संकल्पना मन में नहीं थी। परन्तु आज इकतीसवें वर्ष में कदम रखते हुए 1990 का यानी बीसवीं सदी के आखिरी दशक का माहौल याद आ रहा है।
तब एक चुनौती की तरह उत्तरा को लिया गया था कि महिलाओं की पूरी टीम ही इसके सम्पादन, प्रकाशन और अन्य व्यवस्थाओं को निभायेगी। अपने को सिद्ध करने की जिद सबसे बड़ी थी। शुरूआत में यह प्रतिबद्धता रही कि उत्तरा महिलाओं का एक सामूहिक प्रयास है, पर निरन्तर सामूहिकता को बनाये रखने के लिए भी बहुत प्रयास करने पड़ते हैं, यह धीरे-धीरे स्पष्ट हुआ। यह सवाल भी बार-बार उठता है कि अपने ही गढ़े हुए मानदण्डों पर हम कितना खरे उतर पाये।
उत्तरा ने तय किया था कि वह महिलाओं की आवाज बनेगी। समाज में महिलाओं की भूमिका को सामने लायेगी, इसके लिए जरूरी था कि समाज के बीच जा-जाकर खोजा जाय उन बातों को जो अनदेखी-अनसुनी-अनकही रह जाती हैं। शुरूआत में ऐसा हुआ भी पर तीस साल बाद के परिदृश्य को देखा जाय तो आज अपनी बात को कहने के कई माध्यम हैं। सरलता के साथ अपनी बात को लोगों तक पहुँचाया जा सकता है।
इण्टरनेट और सोशल मीडिया के इस युग में उत्तरा जैसी प्रिंट माध्यम की लघु पत्रिकाओं की कितनी जरूरत रह गई है यह भी एक प्रश्न है। क्योंकि कोविड-19 की महामारी ने इण्टरनेट की पहुंच का दायरा विस्तृत कर दिया है तो संचार माध्यमों की अविश्वसनीयता ने सोशल मीडिया पर भरोसा बढ़ा दिया है।
2020 के प्रारम्भ होते ही दिमाग कुलबुलाने लगा कि इस वर्ष तो कुछ होना चाहिए। एक ओर उत्तरा के तीस साल पूरे हो रहे हैं और दूसरी ओर दैनन्दिन जीवन में सहयोग करने वाले हाथ कम होते जा रहे हैं। आर्थिक रूप से भी असहायता का बोध है। लेकिन निरन्तर दबाव भी है कि पत्रिका को बन्द नहीं होना है। साल का तीसरा महीना बीतते न बीतते महामारी के रूप में कोविड-19 ने दुनियां के एक बड़े हिस्से में गतिविधियां ठप कर दीं तो अपना देश और समाज भी बच नहीं पाया। अतिशय घुटन के बीच लोगों ने रास्ते निकाले। शिक्षा, संचार, अध्ययन, अध्यापन, खरीददारी, मेल-जोल जब सब वर्चुअल होने लगा तो उत्तरा की भी बैठकों की शुरूआत हुई। हालांकि काफी देरी से हुई। बैठक में जुड़े साथियों ने उत्तरा को एक नये उत्साह से भर दिया। आर्थिक सहायता की अपील निकाली तो नये-पुराने सभी सहयोगियों ने खुले दिल से उत्तरा को बनाये रखने के लिए इस तरह हाथ आगे बढ़ाया कि पत्रिका के बन्द होने की बात एकाएक लुप्त हो गई। आगे क्या-क्या करना है, एक के बाद एक सुझावों की झड़ी लग गई। जो मात्र सुझााव न रहकर आगे बढ़ते कदम बन गये।
इनमें इन तीस सालों से लगातार साथ निभाते हुए लोग भी थे तो पिछले कुछ सालों के भीतर जुड़े हुए साथी भी। नये साथियों को मालूम न था कि किन परिस्थितियों में उत्तरा जन्मी, किन हाथों का सहारा मिला, किस तरह तुतलाने के बाद इसने बोलना सीखा और कब यह चहकते-चहकते बड़बड़ाने लगी। इसलिए तय किया गया कि पिछले दौर की बातों को क्रमश: सामने लाया जाय। पुराने अंकों से चयन कर नियमित रूप से कुछ न कुछ सामग्री दी जाय। जो लेखक या पाठक शुरू से जुड़े हैं, उनके विचार कि वे क्यों उत्तरा के साथ बने हुए हैं, दिये जांय। साथ ही सम्पादक मण्डल के अनुभव भी सामने आने चाहिए। तो इस बार से ये कुछ पुरानी पर नई बातें धीरे-धीरे पत्रिका में देने का निश्चय किया गया है। इस बार विनीता यशस्वी की नजर से उत्तरा के तीस सालों पर नजर डाली गई है। महेश पुनेठा और निर्मला ढैला बोरा ने ‘उत्तरा और मैं’ पर प्रकाश डाला है तो आशुतोष और मधु जोशी ने उत्तरा के लेखक की हैसियत से अपनी बातें रखी हैं। सम्भव है, यह सिलसिला कुछ अंकों तक जारी रहे।
यह अत्यन्त दुखद रहा कि हमारी प्रिय सखी मधु जोशी अब हमारे बीच नहीं हैं। 18 अक्टूबर की प्रात: उनका निधन हुआ, इस सच्चाई को स्वीकारने में अभी वक्त लगेगा। यह पूरे उत्तरा परिवार के लिए बहुत बड़ी चोट है। उनके दो लेख भी पहले से ही इस अंक के लिए तैयार थे। उनमें से एक इस अंक में दे रहे हैं।
उत्तरा के इस अंक पर अपने पाठकों की राय का बेसब्री से इंतजार रहेगा।
इस कठिन समय में भी नये साल में नये संघर्षों के लिए सबको शुभकामनाएँ.
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