सम्पादकीय अक्टूबर -दिसंबर 2010
2010 की वर्षा ऋतु हाल के वर्षों की किसी भी वर्षा ऋतु से तुलना में कठिन साबित हुई है। पहाड़ों में वर्षा ऋतु हमेशा आशंका लेकर आती है। वर्षा का मतलब पहाड़ों में रास्ते, सड़कों आदि का भूस्खलन से टूट जाना सामान्य बात होती है परन्तु 2010 के अगस्त-सितम्बर माह में जो तबाही हुई। इस क्षति का क्षेत्र पूरा उत्तराखण्ड रहा। इसे प्राकृतिक आपदा के नाम से पुकारा गया। आम तौर पर इसे प्रकृति का कोप समझा गया। परन्तु प्रकृति के इस कोप के पीछे मानवकृत कारण भी विद्यमान थे, यह धरणा धीरे-धीरे जन समुदाय की समझ में आती जा रही है।
1974 से उत्तराखण्ड में प्रारम्भ हुए चिपको आन्दोलन का मुख्य स्वर यही था कि जंगल हमारे अस्तित्व के लिए नितान्त आवश्यक हैं। चिपको आन्दोलन का सम्पूर्ण विश्व में प्रचार-प्रसार हुआ परन्तु जंगलों वैध्-अवैध् कटान भी रुका नहीं। इस बार फिर लोगों ने महसूस किया कि जहाँ पेड़ थे, वहाँ नुकसान कम हुआ। पेड़ों ने अपनी धरती को बचाया। नैनीताल जिले के नथुवाखान क्षेत्र के मल्ली सिनौली गाँव में कृष्णपाल द्वारा तैयार किये गये संरक्षित जंगल ने गाँव के पीछे आये भूस्खलन से गाँव की रक्षा की परन्तु यदि समय पर गाँववासियों को विस्थापित न किया गया तो अगली वर्षा में बच पाना मुश्किल होगा।
अवैध् कटान के पीछे एक बड़ा कारण अवैध् निर्माण है। उत्तराखण्ड में भवन-निर्माण चाहे व्यक्तिगत हो या व्यावसायिक। नियम-कानूनों की धज्जियाँ उड़ाकर किया जा रहा है। निर्माण-किसी भी तरह का क्यों न हो- भवन, सड़कें, अवैज्ञानिक ढंग से निर्मित भवन सड़कें, विनाश का कारण इस बार सिद्ध हो गये। निर्माण कार्य को विकास का पर्याय मान लेना और रोजगार से जोड़ना और उससे भ्रष्टाचारियों की झोलियाँ भरना। देखा जाय तो प्राकृतिक आपदा के पीछे यह मुख्य कारण रहा। गाँव-गाँव के लोग उनकी व्यक्तिगत या सामूहिक सम्पत्ति के हित अनहित को, उनकी समझदारी को विकास के मुद्दे के संदर्भ में पूरी तरह नजरअंदाज किया जा रहा है। गाँव का विकास गाँव की सुरक्षा के प्रश्न के साथ जुड़ा है। सड़कों के निर्माण में जे.सी.वी. मशीन का प्रयोग, सड़क के किनारे पानी निकास के लिए नालियों और कलमटों का सही तरीके से नहीं बनना और बनकर भी नियमित सफाई न होना, सड़कों की देख-रेख के लिए नियमित गैंग का न होना, निर्माण कार्य से पूर्व के सर्वे में जनता की भागीदारी न होना आदि बातें घातक रहीं।
(Uttara Editorial October-December 2010)
आज पहाड़ में जगह-जगह अवैध् रूप से खनन हो रहा है। विरोध् करने पर सरकार, प्रशासन और माफिया का गठजोड़ जनता का सर फोड़ने को तैयार हो जाता है। नेताओं और अफसरों की शह पर बिल्डरों ने जंगल काटे, जगह-जगह मलवा फेंका, निजी सुविधा के लिए अवैध् सड़कें बनायीं, मन मर्जी से पत्थर, बजरी, रेता का खनन किया और उनको रोकने में जनता नाकाम रही। यदि सीधे-सीधे कहा जाय कि भू- माफिया, खनन माफिया, नेता-अफसर और माफिया का गठजोड़ इस प्राकृतिक आपदा के लिए जिम्मेदार है तो इसमें कोई अत्युक्ति न होगी। प्राकृतिक आपदा का लाभ भी इन्हीं लोगों को मिलने जा रहा है। आपदा में आये पत्थर, रेता, बजरी को तत्काल से ही ये बेचने लग गये हैं। इनकी तादाद भी अब काफी बढ़ गयी है। इन सभी माफियाओं के सहायकों की संख्या भी बढ़ती जा रही है, जो छोटे-मोटे फायदों के लिए अपनी धरती और अपने लोगों की अनदेखी करते जा रहे हैं।
आम लोग भी इस भ्रष्टाचार के घेरे से बाहर नहीं हैं। सड़कों के आसपास की दीवारों के पत्थर निकाल दिये गये। सड़कें कमजोर हुईं। नदी किनारे या सड़क किनारे की सुरक्षा दीवारें मजबूती से नहीं बनाई गयीं। जगह-जगह किया गया अतिक्रमण भी विनाश का एक मुख्य कारण रहा। नदी द्वारा छोड़ी गयी जमीनों पर की गई खेती इस बार आसानी से बहकर नष्ट हो गई। आधी-अधूरी सड़कें बनती हैं और उन पर गाड़ियों का यातायात शुरू हो जाता है। कई इलाकों में ऐसी अधूरी खुली सड़कें पड़ी हैं जिन पर काम बन्द है। वे केवल तबाही के लिए बनीं। आपदा के बाद भी जहाँ-तहाँ अस्थायी रूप में चालू हो गई सड़कें पुनः आपदा का कारण बन सकती हैं। सड़कों में दरारें हैं पर गाडि़याँ चल रही हैं क्योंकि काम नहीं अटकना चाहिए। सड़कें बनाते समय गधेरों की भी उपेक्षा हुई। सालभर के सूखे गधेरे भी बरसात के लिहाज से पूरी व्यवस्था की अपेक्षा रखते हैं। टेलीफोन की लाइनें खुदीं तो पुराने रास्ते और गधेरे मलवे से भर गये। सड़क निर्माण के लिये किये गये खुदान को व्यवस्थित नहीं किया गया। अवैध् खनन हो तो रॉयल्टी काट दी जाय, अवैध् भवन निर्माण हो तो पैनल्टी लगा दी जाय, अवैध् पेड़ कटें तो पैंसा वसूल कर लिया जांय, ग्रामीणजन विशेषतः महिलाएँ विरोध् करें तो उनको डरा- धमकाकर चुप करा दिया, यह आज की सरकारी पॉलिसी है। इस तरह के कदम कितने खतरनाक हैं यह इस आपदा ने सिद्ध किया लेकिन क्या कोई इससे सबक लेने को तैयार है। विरोध्, आन्दोलन, संघर्ष ये सब सरकारी झोली के छेद में खो जाते हैं जबकि माफिया का पैंसा उसे भर देता है।
(Uttara Editorial October-December 2010)
रोजगार की नयी-नयी योजनाओं को लागू करवाने में जो भ्रष्टाचार हुआ है, वह भी तबाही का एक मुख्य कारण है। नरेगा और मनरेगा ने भी बर्बादी बढ़ायी है। चाल-खाल व चैक डैम जो इस बीच बने थे, वे टूट गये। योजनाएँ गाँव वालों के बीच बैठकर बननी चाहिए पर ऐसा कभी नहीं हुआ। जरूरत के मुताबिक काम नहीं हुए और तकनीकी गुणवत्ता की उपेक्षा की गई। कमीशन खोरी के तहत किये गये इन कामों में केवल तात्कालिक फायदा देखा गया। जो नष्ट होकर और अधिक नुकसान कर गया। हम तो डूबे बामना लै डूबे जजमान। पैसा प्राप्त करना यह आज के जन समुदाय का मुख्य उद्देश्य हो गया है। गाँव की सुरक्षा और विकास का सोच कहीं नहीं रह गया है। प्रकृति का रौद्र रूप भविष्य के लिए कई चेतावनियाँ दे गया है, अगर मनुष्य इसे समझे। विकास ही नहीं सुरक्षा भी चाहिए। बँटा हुआ ग्राम समाज आज बहुत खतरनाक सिद्ध हो रहा है। श्रमदान के द्वारा किये जा सकने वाले काम आज सरकारी पैसे की बाट जोह रहे हैं।
एक समय था जब इस तरह की त्रासदियाँ सभी को गहरे तक झकझोर जाती थी और लोग मदद के लिए दौड़ पड़ते थे लेकिन जबसे सरकार के राहत कार्यों का प्रोपेगैण्डा शुरू हुआ है लोग भी उदासीन हो गये हैं। लोगों को लगता है सरकार राहत दे तो रही है। कभी-कभी इस राहत राशि को लेकर मन मुटाव या छल भी किया जाता है। वास्तविकता तो यह है कि राहत का अधिकांश पैसा बिचैलियों, ठेकेदार, अधिकारी, मंत्रियों की भेंट ही चढ़ जाता है। कहना न होगा राहत के नाम पर मोटी कमाई करने वाले, सार्वजनिक सम्पत्ति के नुकसान को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं। काम की गति भी धीमी है। कार्य योजनाबद्ध तरीके से होता भी नहीं दिख रहा है। न राहत कार्यों में वे तेजी दिखाई दी न पुनर्निर्माण में। यातायात व्यवस्था को सुचारु करना हो अथवा खेत-मकानों के नुकसान के रूप में रहने-खाने की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के प्रयास। सभी में प्रशासन/शासन का रुख ढीला-ढाला है। ये सामान्य कार्य रूटीन वर्क की तरह नहीं युद्ध स्तर पर किये जाने की अपेक्षा रखते हैं। इस दिशा में भी सोचना चाहिए कि सरकार का रवैया तो वही नौ दिन चले अढाई कोस वाला है ऐसे में लोग चाहें तो सामूहिक रूप से और श्रमदान से अपनी समस्याओं का निपटारा कर सकते हैं। इससे वे न केवल सरकार की खर्चीली योजनाओं से बच सकते हैं वरन् उसके दोहरे चरित्र से भी बच सकते हैं, जो एक ओर राहत कार्यों के लिए बड़ी धनराशि की माँग कर रहे हैं और दूसरी ओर 9 नवम्बर को राज्य स्थापना दिवस भी सरकारी खर्चे पर मनाया गया। सुना है हाईकोर्ट नैनीताल ने अपने दसवें स्थापना दिवस पर करोड़ों रुपया खर्च किया गया। मीडिया में कुछ समय तक आपदा के चर्चे रहे लेकिन फिर वे नये-नये विषयों की ओर मुड़ गये।
सरकार का रवैया तो वही नौ दिन चले अढाई कोस वाला है ऐसे में लोग चाहें तो सामूहिक रूप से और श्रमदान से अपनी समस्याओं का निपटारा कर सकते हैं।
(Uttara Editorial October-December 2010)
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वर्षा के कहर के दौरान ही 22 अगस्त को उत्तराखण्ड ने अपने एक जुझारु अतिप्रिय साथी गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ को भी खो दिया। प्राकृतिक आपदा के बीच उत्तराखण्ड की जनता के लिये यह एक बहुत बड़ा आघात था। बेहतर उत्तराखण्ड राज्य के सपने को संजोने में गिर्दा का महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनकी छवि एक जनकवि, रंगकर्मी और संघर्षरत साथी के रूप में थी। गिर्दा को श्रद्धांजलि देने का लम्बा सिलसिला चला और बहुत-सी पत्र-पत्रिकाओं ने उन पर विशेषांक निकाले। उनके व्यक्तित्व के जाने-पहचाने और कई बार अनछुए पहलू लोगों के सामने आये। रंगकर्मी, पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीवी वर्ग ने ही नहीं, उत्तराखण्ड के आमजन ने स्वयं को अकेला महसूस किया। गिर्दा के जाने से और अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति की। उत्तरा ने भी गिर्दा को अपने मार्गदर्शक और प्रेरणा स्रोत के रूप में सदा पहचाना। 1990 में गिर्दा की प्रेरणा से ही उत्तरा की शुरूआत हुई। स्त्रियों की ताकत को पहचानने तक ही नहीं वे हमेशा उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहे। जब से वे जनान्दोलनों में सक्रिय हुए तभी से यह क्रम चलता रहा। प्रतिगामी शक्तियों को पहचानने और उनके खिलाफ संघर्ष की चेतना पैदा करने में गिर्दा कभी पीछे नहीं हटे। महिलाएँ जिनका शिकार होती हैं, उन रूढि़यों के वे हमेशा खिलाफ रहे। उन्होंने चाहा कि वे अपने आप को सिद्ध करें बिना किसी सम्बल-सहायता के। इसलिये 1984 के नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन के परवर्ती समय में उन्होंने महिला मोर्चा नाम से संगठित होकर काम करने की प्रेरणा दी तो आगे चलकर उत्तरा महिला पत्रिका के रूप में स्त्रियों की आवाज बुलन्दी तक पहुँचे, इसकी कामना की।
बीस साल तक साथ निभाने वाले अपने अग्रज साथी को उत्तरा परिवार कभी भूल नहीं सकता। उत्तरा के इस अंक में कुछ साथियों ने गिर्दा की स्मृति को ताजा करते हुए अपने बातें रखी हैं।
(Editorial October-December 2010)
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