उत्तरा का कहना है
उत्तरा का यह अंक ऐसे समय में आ रहा है जब भारत की संसद में महिला आरक्षण विधेयक नारी शक्ति वंदन विधेयक के नाम से पारित हो चुका है। इस विधेयक को पारित करने में उन आन्दोलनकारी प्रवृत्तियों का योगदान रहा है जो इस समाज के भीतर कई दशकों से गतिमान थीं। विधेयक के पास होने पर वृंदा करात मूल्यांकन करते हुए उस दृ़श्य को याद करती हैं जब 2010 में राज्य सभा में पास होने पर वे, सुषमा स्वराज तथा सोनिया गांधी एक-दूसरे से हाथ मिलाते हुए सदन से बाहर निकली थीं। जब दलगत राजनीति से जुड़ी सभी महिलाओं का समर्थन था तो मजबूत बहुमत होने पर सरकार को इसे पास करना ही था। अभी भी इस कानून को वास्तविक धरातल पर आने में कई अड़चनें हैं। बहरहाल इतना निश्चित है कि जिस बात का दबाव सरकार में जितना अधिक होगा, सरकार को उस मुद्दे पर निर्णय लेना ही पड़ेगा। दबाव गुट के रूप में प्रभाव डालने की महिलाओं की क्षमता किसी से छुपी हुई नहीं है। स्वतंत्रता आन्दोलन से लेकर तमाम पर्यावरणीय और सामाजिक आन्दोलनों में उनकी मुखर सहभागिता रही है। उन्होंने आन्दोलनों का नेतृत्व भी किया है और अपने बूते पर चलाया भी है। लोकतंत्र में सत्ता हासिल करना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि दबावकारी प्रवृतियों से नीतियों को प्रभावित करना। जिस राष्ट्र में समाज जितना अधिक दबाव सरकार पर बना पाता है, उतना ही लोकतंत्र मजबूत होता है। शिक्षा व स्वास्थ्य का उच्च स्तर इस प्रकार के लोकतंत्र को बनाये रखने में सहायक होता है। आन्दोलनों से ही महिलाओं की नेतृत्वकारी पीढ़ी का उदय हुआ है। भारत और दक्षिण अफ्रीका में स्वतंत्रता आन्दोलन में भागीदारी के परिणामस्वरूप बहुत-सी महिलाएं सार्वजनिक जीवन में आईं।
मताधिकार भी एक हथियार है जिसके माध्यम से हम सरकार बदलने का कार्य करते हैं। कुछ समय पहले तक भारत में महिलाओं का मत पुरुषों के प्रभाव में था। महिलाओं को एक स्वतंत्र वोट बैंक के रूप में नहीं समझा जाता था। हाल के वर्षों के चुनाव के अध्ययनों से साबित हो रहा है कि मताधिकार का उपयोग करने वाली महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। अपने घोषणापत्र में राजनीतिक दल महिलाओं को लुभाने वाले कार्यक्रमों को जिस तरह तरजीह दे रहे हैं, उससे यह साबित हो रहा है कि महिला वोट बैंक की अब अनदेखी नहीं की जा सकती। राजनीति-वैज्ञानिक इसे एक ‘साइलेंट रिवोल्यूशन’ का नाम दे रहे हैं।
लोकतंत्र आज युगधर्म है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाने की प्रक्रिया में सभी राष्ट्र प्रयासरत हैं। लोकतंत्र और पूंजीवाद साथ-साथ आये, जब सम्पत्ति और सत्ता के वंशानुगत आधार पर प्रहार किया गया। सत्ता सामान्य जन की सहभागिता पर आधारित होनी चाहिए, यह लोकतंत्र की मूल भावना है। आधी आबादी होने के नाते महिलाओं की सत्ता में बराबर की भागीदारी होनी चाहिए थी। यहीं पर प्रश्नचिह्न है। तमाम आन्दोलनों में मुखर रहने वाली महिलाएं सत्ता में भागीदारी से क्यों चूक जाती हैं। यह स्थिति पूरे विश्व में समान है। लोकतंत्र और स्वतंत्रता को अपने राष्ट्र का पर्याय बताने वाले अमेरिका में अभी तक एक भी महिला राष्ट्रपति नहीं बन पाई है। स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भागीदारी करने वाली भारत की महिलाएं इस राष्ट्र की संसद में 15 प्रतिशत तक भी उपस्थिति दर्ज नहीं कर पाई हैं। साम्यवाद ने कुछ राह दिखाई थी। रोजगार तथा समान कार्य के लिए समान वेतन के साथ-साथ कम्युनिस्ट पार्टी ने सबसे पहले महिलाओं के लिए वोट और प्रत्याशी के रूप में खड़े होने की वकालत की। कम्युनिस्ट पार्टी के प्रभाव से क्लारा जैटकिन (जर्मनी) जैसा नेतृत्व उभरा। सोवियत संघ, चीन और क्यूबा के साम्यवाद ने सामाजिक परिवर्तन के लिए लिंग समानता को सबसे ऊपर रखा। चीन में शिक्षा, राजनीतिक भागीदारी वैवाहिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वतंत्रता की दृष्टि से 1949 के बाद महिलाओं की स्थिति में बहुत सुधार आया। क्यूबा तो एक मॉडल ही है। क्यूबा में महिला विधायकों, वकीलों, डाक्टरों का प्रतिशत अन्य देशों की अपेक्षा अधिक है। लेकिन कम्युनिस्ट शासन एक पार्टी के शासन से आगे नहीं जा पाया। साथ ही निम्न स्तर पर तो महिला-पुरुष समानता है लेकिन जैसे-जैसे उच्च पदों की ओर जाते हैं, वहाँ भी पितृसत्ता हावी है। पार्टी की पोलित ब्यूरो में महिला नहीं के बराबर हैं। यहाँ परिवार की पितृसत्ता को सत्तावादी राज्य द्वारा स्थापित कर दिया गया।
uttara ka kahna hai
जॉन स्टुअर्ट मिल से लेकर अम्बेडकर तक तर्क देते हैं कि महिलाओं का जीवन किसी देश की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति का सबसे अच्छा संकेतक है। लेकिन महिला-पुरुष के भेद इतने सूक्ष्म हैं कि सरकारें पहचान नहीं पातीं। घर अभी भी महिला की प्राथमिकता रहती है। राजनीति एक पूर्णकालिक व्यवसाय है, जिसमें व्यक्ति को पूरा समय देना है। यही कारण है कि वे ही महिलाएं राजनीति में आ पाती हैं जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनीति से जुड़ी है। महिलाओं के लिए घर की परिधि से बाहर निकलना संभव नहीं होता। वे उसी व्यवसाय से जुड़ जाती हैं, जहां वे घर-बाहर दोनों सम्भाल लें। यूरोप के उन्हीं देशों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सबसे अधिक है, जहां रोजगार और बच्चों के पालन-पोषण में सामंजस्य किया गया है, तलाक नीति, प्रजनन अधिकार और महिलाओं के खिलाफ हिंसा से सम्बन्धित सुस्पष्ट कानून हैं।
लोकतंत्र के लिए संवेदनशील नागरिक होना आवश्यक है। जहां कहीं भी हाशिये पर व्यक्ति दिखाई दे, अपने साथ-साथ उनकी भी लड़ाई लड़नी है। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक साथ ही एलजीबीटी की लड़ाई का साथ महिलाओं को उसी सिद्दत के साथ देना होगा जितना वे अपनी लड़ाई को देती हैं। फिर महिलाओं में भी वर्ग हैं। सवर्ण महिला-दलित महिला, शिक्षित-अशिक्षित, सम्पन्न-गरीब। अलग-अलग वर्गों की महिलाओं की अलग-अलग समस्याएं हैं। संघर्ष करने वाली महिलाओं को यह सब समझना होगा। महिलाओं के लिए चयन की स्वतंत्रता से सम्बन्धित कई मुद्दे हैं, जहां सरकार द्वारा दिए जाने के बाद भी समाज द्वारा नियमित कर दिए जाते हैं। जैसे जीवन साथी चुनना, पैतृक सम्पत्ति में हक लेना, तलाक और गर्भपात। वे रोजगार प्राप्त करने वाली अंतिम व्यक्ति और खोने वाली पहली होती हैं, क्योंकि उनमें बच्चे पैदा करने की क्षमता होती है। इस सबके प्रति समझ पैदा करने की आवश्यकता है।
धार्मिक उन्माद और घृणा के माहौल से राजनीति विकृत हो चली है। राजनीति के घृणित स्वरूप को देखकर भी महिलाएं राजनीति से दूरी बनाये रखने में भलाई समझती हैं। चूंकि राजनीतिक सत्ता नीति निर्माण प्रक्रिया से सम्बन्धित है, इसलिए नागरिक होने के नाते उनका दायित्व है कि वे समुचित प्रतिनिधित्व के साथ राजनीति में आयें। महिलाओं के समुचित प्रतिनिधित्व के लिए अधिकांश राष्ट्रों ने आरक्षण की व्यवस्था को अपनाया है। लैटिन अमेरिकी तथा अफ्रीकी देशों ने भारत से बहुत पहले आरक्षण की व्यवस्था अपना ली थी। भारत में भी पंचायत स्तर पर महिलाओं के आरक्षण के सकारात्मक परिणाम आ रहे हैं। आरक्षण से राजनीति का स्वरूप बदल जायेगा, यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी। लेकिन जो महिलाएं आरक्षण से राजनीति में आई हैं, उनके व्यक्तित्व में आमूलचूल परिवर्तन आ गया है। पद पहचान देता है और पहचान सकारात्मक ऊर्जा। यह व्यक्ति के लिए नहीं, वरन् समाज के विकास के लिए जरूरी है कि उसके नागरिक सकारात्मक रूप से ऊर्जावान हों। प्रतिनिधित्व के परिणाम भी शिक्षा की तरह हैं जिसका प्रभाव धीरे आता है। आरक्षण के प्रभाव से रोल मॉडल तैयार होंगे और जब नेतृत्वकारी महिलाएं प्रचलित मानदण्डों और पूर्वाग्रहों को तोड़ती है तो नई पीढ़ी की महिलाएं भी जोखिम लेने के लिए प्रेरित होती हैं। इससे बदलने में समय लगता है।
महिलाएं हर क्षेत्र में दिखाई दे रही हैं। आज सार्वजनिक स्पेस में उनकी उपस्थिति है। माता-पिता अपनी बेटियों को ऊँचाई में देखना चाहते हैं लेकिन समाज इस नए माहौल को पचा नहीं पा रहा है। महिला सुरक्षा जैसे मुद्दे हाल के वर्षों की चुनौतियां हैं। राजनीति में महिलाओं की अधिकाधिक उपस्थिति ही इस प्रकार की चुनौतियों का समाधान कर सकती है। यूरोपीय देशों में पुरुषों के मानसिक सोच में बदलाव के लिए प्रशिक्षण दिए जाते हैं। आखिर वे भी तो उसी पितृसत्तात्मक माहौल से आते हैं जहां उन्हें विशेषाधिकारों के साथ पाला-पोसा जाता है। हर समाज को उस प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता है।
सत्ता और सवाल, आवाज को दिशा देने के लिए दोनों ही चाहिए । सत्ता बेईमान हो सकती है, आवाज नहीं। सत्ता में भागीदारी के पश्चात् राजनीतिक दांव-पेंच को हराना आसान नहीं होता। आवाज के माध्यम से दबाव बनाये रखना जरूरी है। महिलाओं की इस ताकत को उनसे कोई नहीं छीन सकता, यह कायम रहनी चाहिए।
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