यह भी संघर्ष का रास्ता

निर्मला बिष्ट

अभी-अभी हम सबने 2017 के विधानसभा चुनाव प्रत्यक्ष देखे हैं। चुनाव परिणाम घोषित हो चुके हैं और नई सरकारों का भी गठन हो चुका है। तमाम चर्चाओं और बहसों के बीच यहाँ उत्तराखण्ड की दो महिलाओं एक उम्मीदवार और कार्यकर्ता के अनुभव प्रस्तुत हैं।

हमारे संगठन उत्तराखण्ड महिला मंच ने, जिसका गठन 1994 में उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरान हुआ था, पहली बार 2017 के विधानसभा चुनाव में भागीदारी करने का निश्चय किया और मुझे अपना प्रत्याशी घोषित किया। उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन से लगातार जनता के बीच हम लोग काम करते रहे इसलिए चुनाव व संघर्ष दोनों तरह की राजनीति को हमने करीब से देखा है। लेकिन जब प्रत्यक्ष रूप से मैंने चौथी विधानसभा के लिए देहरादून के 19 रायपुर विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा तो उसके कुछ अलग ही अनुभव मुझे और मेरे साथियों को हुए कि चुनाव की राजनीति आज किस दलदल में फंस गई है।

हमने इस चुनाव को एक प्रयोग के तौर पर लड़ा। संगठन के हम सभी लोग, चाहे वह उत्तराखण्ड महिला मंच के हों या स्वराज अभियान के सदस्य, जिन्होंने मुझे समर्थन दिया, हम सब आन्दोलनों से जुड़े लोग हैं। हमने इस चुनाव को भी संघर्ष के रूप में लड़ने की रणनीति बनाई। आचार संहिता लगने से कुछ दिन पूर्व ही हमने चुनाव में भागीदारी का निर्णय लिया। यह एक प्रकार से मेरा व्यक्तिगत निर्णय नहीं था बल्कि मेरे संगठन का निर्णय था। मैंने प्रारम्भ में ही अपना निश्चय संगठन को बता दिया था कि मैं इस चुनाव में बीस हजार रुपये से अधिक खर्च नहीं करूंगी और मैंने इतना ही अपनी ओर से खर्चा किया। यद्यपि कुल ढाई लाख रुपया इसमें खर्चा हुआ। बाकी का पैसा मेरे संगठन के लोगों तथा अन्य लोगों ने सहयोग के रूप में इकट्ठा किया।

चुनाव में पर्चा भरने से वोट डालने तक हमने संघर्ष किया। हमने तय किया था कि हम पहले ही दिन अपना चुनावी पर्चा भर देंगे लेकिन जिस तरह निर्वाचन अधिकारी ने हमारे द्वारा भरे गये पर्चे में गलतियां निकालीं, हमें उसका कोई औचित्य समझ में नहीं आया। हमने दूसरे दिन फिर नया पर्चा भरा और सारे कागजातों का सेट दुबारा फोटोस्टेट किया और दूसरे दिन फिर पर्चा दाखिल किया। लेकिन दूसरे दिन भी पर्चे में कमियां बता कर उसे खारिज कर दिया गया। हम सभी लोगों ने पर्चा देखा तो हमें उसमें कहीं गलती नहीं लगी। तब हमने राज्य निर्वाचन अधिकारी राधा रतूड़ी से फोन पर बात की, क्योंकि हमें लग रहा था कि चुनाव निर्वाचन कार्यालय हमें केवल परेशान कर रहा है। उसी रात हमने अपने संगठन की महिलाओं के साथ जिलाधिकारी के आवास में उनका घेराव कर निर्वाचन कार्यालय की लापरवाही व जानकारियों के अभाव के कारण प्रत्याशियों को परेशान करने का विरोध किया। तब उसी रात हमारा भरा हुआ पर्चा स्वीकृत कर लिया गया।
(Way of struggle)

मुझे यह बहुत अच्छा लगा कि हमने चुनाव में भी गलत के खिलाफ संघर्ष किया। यह चुनाव हमने पूरी तरह महिलाओं के नेतृत्व में लड़ा। हमारे साथ सब महिला कार्यकर्ता थीं। प्रचार का काम, सभाएं आयोजित करने, भाषण देने, माइक संभालने, बूथ में बैठने, बूथ एजेन्ट आदि सभी कार्य महिलाओं द्वारा किये गये। शायद आम लोग व चुनाव आयोग भी समझ रहा था कि ये महिलाएं क्या चुनाव लड़ेंगी। क्योंकि जो अन्य महिलाएं चुनाव लड़ रहीं थीं, उनकी पूरी चुनावी कार्यवाही पुरुष संभाल रहे थे। लेकिन हमारे संगठन ने जो महिलाएं आन्दोलन के दौरान सक्रिय थीं लेकिन अब घरों तक सीमित हो गईं थीं, ऐसी महिलाओं को भी इस चुनाव के दौरान सक्रिय किया। वे भी चुनाव प्रचार के लिए घरों से बाहर निकलीं। उन्होंने प्रत्यक्ष देखा कि राजनीतिक दल किस प्रकार चुनाव लड़ते हैं और हम किस तरह से चुनाव लड़ रहे हैं।

हमारे संगठन से जुड़ी महिलाएं सुबह ही अपना दिन का खाना भी अपने घर से साथ ले आती थीं और दिन भर चुनाव प्रचार करती थीं। हमने अपने पर्चे में उत्तराखण्ड के जन मुद्दों को प्रमुखता दी थी। समान  शिक्षा नीति, शराब मुक्त उत्तराखण्ड, गैरसैण राजधानी, मुजफ्फरनगर काण्ड जैसे हमारे मुद्दे थे जबकि अन्य प्रत्याशी केवल व्यक्ति केन्द्रित प्रचार कर रहे थे। वे अपने कार्यकर्ताओं के लिए भोजन, पैसा व अन्य सुविधाएं रोज उपलब्ध करा रहे थे। लोगों का यह भी कहना था कि रोज शराब भी बांटी जा रही थी। हमारे पास भी कई महिलाएं आईं कि हम आपके पर्चे बांट देंगे, आपकी बैठकें करा देंगे और इसका खर्चा जितने लोग आयेंगे, उस हिसाब से 5000 से 10000 तक लेंगे। बूथ में बैठने का प्रति व्यक्ति 500 रुपया, खाना, नाश्ता चाय आदि लेंगे। पार्टियों से तो हम ज्यादा लेते हैं, लेकिन आप निर्दलीय प्रत्याशी हैं तो आपसे कम लेंगे। हम लोगों ने उन्हें साफ मना कर दिया। इस पर हमारे ही परिचित तथा मित्र जो चुनावी प्रक्रिया के जानकार थे, वे कहने लगे जैसे आप बिना पैसे के चुनाव लड़ रहे हो, आपके पास कोई नहीं आयेगा। आप तो अपने चुनावी कार्यालय में भी किसी को चाय तक नहीं पिला रहे हो। ऐसे चुनाव नहीं लड़ा जाता। ऐसा सुनकर हम लोगों को आश्चर्य होता था। ये बातें पहले हम केवल सुनते थे, अब प्रत्यक्ष दिख रहीं थीं। वास्तव में चुनावी राजनीति आज कहां पहुच गई है।

हम जिस मुहल्ले या इलाके में प्रचार करने जाते, वहां टेन्ट लगाकर सबको भोजन करवाया जा रहा होता। पूछने पर पता चलता कि अभी कोई प्रत्याशी यहां सभा करके गया है। उसी के द्वारा यह टेन्ट लगाया गया है तथा मतदाताओं को भोजन करवाया जा रहा है। चुनाव में मतदाताओं को पैसा बांटना, वस्तुएं बांटना, शराब पिलाना, यह सब हमने प्रत्यक्ष रूप से देखा। केवल यहीं पर बात खत्म नहीं होती। मुझे सबसे ज्यादा आश्चर्य तब हुआ, जब कुछ मीडिया वाले मेरे पास आये कि आपका इन्टरव्यू लेना है, आप बहुत अच्छा कर रही हैं। बाद में उन्होंने मुझसे कहा, आप हमें क्या पैकेज देंगी। मुझे बड़ा दुख हुआ कि पत्रकारिता का स्तर कितना गिर गया है। जिन्हें समाज की सच्चाई सामने लानी थी, जनता के संघर्ष व मुद्दों को आगे लाना था, वे भी पैकेज लेकर काम कर रहे हैं।
(Way of struggle)

हम लगभग 8 से 10 हजार लोगों के घरों तक अपने पर्चों को लेकर गये। हमें यह भी अनुभव हुआ कि चुनाव के दौरान लोग आपकी बातों को ज्यादा ध्यान से सुनते व चर्चा करते हैं। इस चुनाव में मुझे व संगठन के कार्यकर्ताओं को मलिन बस्तियों से लेकर सम्भ्रान्त इलाकों तक प्रचार कर लोगों से मिलने व अपनी बातों व मुद्दों को ले जाने का मौका मिला जिससे हमें बहुत कुछ सीखने का अवसर भी मिला। कई नये लोग हमारे संगठन से जुड़े। कई इलाकों में हमने संगठन की इकाइयां गठित कीं। मेरे संगठन की यह सबसे बड़ी जीत थी। इस चुनाव से मेरा यह विश्वास और मजबूत हुआ है कि चुनाव संगठन की शक्ति से तो लड़ा जा सकता है लेकिन यदि एक सामान्य ईमानदार व्यक्ति बिना पैसे के चुनाव लड़ना चाहे तो नहीं लड़ सकता। क्योंकि चुनावी व्यवस्था में सरकारें खर्चे की बड़ी दरों को लागू कर अपने भ्रष्टाचार को सही सिद्घ करने के लिए प्रत्याशियों से मुहर लगवाती हैं। उदाहरण के लिए चुनावी गाड़ी का किराया प्रतिदिन 1500 रु. गाड़ी + 500 रु़ ड्राइवर कुल 2000 रुपया तय किया गया है जबकि हमने ड्राइवर सहित गाड़ी का प्रतिदिन 900 रु़ व्यय किया। इसी प्रकार चुनावी रैली, रोड शो आदि में प्रत्येक व्यक्ति के भोजन का 100 रु़ व उन गाड़ियों का खर्चा अलग से जोड़ा गया जिन्होंने रैली में भाग लिया। हमने अपनी रैलियों में किसी को भोजन नहीं कराया। सभी अपने साधनों से आये लेकिन फिर भी निर्वाचन अधिकारी ने जबरन भोजन व गाड़ियों का खर्चा जोड़ा। यही नहीं, चुनाव में एक गाड़ी हमारे सहयोगी ने दी थी तथा एक हमने किराये में ली थी। लेकिन इनका भी उन्होंने अपनी दरों के अनुसार खर्चा जोड़ा। इतना ही नहीं, बिना किसी पूर्व सूचना के हमसे प्रदूषण के नाम पर , माइक की परमिशन व माइक चलाने के 40000 रुपये मांगे गये जिसे देने से हमने इन्कार कर दिया। तब हमें निर्वाचन अधिकारी ने धमकाते हुए कहा कि आपको अगले 3 साल के लिए चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी जायेगी।

अन्त में मैं तो यही कहूंगी कि इस चुनाव में मैं जीतूं या हारूं, लेकिन मैं अपने को जीता हुआ ही समझती हूं। क्योंकि मैंने इस चुनाव को संघर्ष का रास्ता समझा। वोट मुझे कम मिलें या ज्यादा, वोट की गिनती मेरे लिए कोई महत्व नहीं रखती। मेरे लिए मेरे संगठन का बढ़ना और मजबूत होना, मुद्दों की स्पष्ट जानकारी व लोगों का जुड़ाव होना, यही मेरी विजय है, जो इस चुनाव में हमें मिली।
(Way of struggle)

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