तुम कहाँ हो मधु ?
उमा भट्ट
18 अक्टूबर की सुबह सात बजकर बारह मिनट पर मैंने मधु जोशी के लिए व्हट्सऐप पर सन्देश भेजा कि निर्मला ढैला से जो लेख लिखवाने की बात हुई थी, वह कब तक मिलेगा क्योंकि अब इस बात को 10-12 दिन हो चुके हैं। 18 ता. का दिन मेरे लिए बहुत व्यस्त दिन था। 11 बजे से गांधी मूर्ति के पास धरना था, शाम को एक पारिवारिक बैठक में भाग लेना था और 5 बजे से महादेवी वर्मा सृजन पीठ के कार्यक्रम में दिवा भट्ट का कहानी-पाठ सुनना था। मैं दिन भर में कई बार देख चुकी थी कि मधु ने आज उत्तर देना तो दूर, मेरे सन्देश को देखा तक नहीं। जब से हमने व्हट्सऐप पर बातें करने की आदत बनाई, यह पहली बार हो रहा था कि मधु की ओर से प्रतिक्रिया न आ रही हो। ऐसा कभी नहीं हुआ कि फोन करने पर उसने फोन न उठाया हो या मेल का जवाब देने में देरी की हो या सन्देश को अनदेखा किया हो। ऐसा मेरी तरफ से हो सकता था पर मधु की ओर से नहीं। दिवा की कहानी सुनकर उठी ही थी और सोच रही थी कि अब फोन लगाती हूं, स्वाति का फोन आ गया, मधु जोशी के विषय में जो कह रहे हैं, क्या वह सच है ? मैं मधु के फोन या सन्देश का इन्तजार कर रही थी पर मधु तो सुबह 5.30 पर ही हम सबसे विदा ले चुकी थी|
एक अनोखी शख्सियत थी मधु, सबके बीच रहकर भी सबसे अलग| उसके निकट रहते हुए भी उसकी थाह पाना सरल न था। उसके अपने निर्णय होते थे, उसके अपने सिद्धान्त थे, जिनसे वह रत्ती भर भी विचलित नहीं होती थी। बाहर से एकदम सहज, प्रेमल दिखने वाली मधु के अन्तर्मन को पहचानना आसान न था। उसके निर्णय भले ही हमें न रुचें, हम आपत्तियां करते रहें, पर वह टस से मस न होती थी| अपनी निजता को वह यत्नपूर्वक सहेजे रखती थी, वहां हम कोई दखल नहीं दे पाते थे।
चम्पावत जिले के देवीघधुरा के नजदीक के गांव बसवाड़ी के मूल निवासी श्री जीवानन्द जोशी नैनीताल में वकालत करते थे और नैनीताल के प्रतिष्ठित वकीलों में उनकी गिनती होती थी। मां प्रेमा जोशी बनारस से थीं और विवाह से पूर्व बसंत विद्यालय रांची में संस्कृत पढ़ाती थीं| वे संगीत में भी निपुण थीं और अत्यन्त मधुर स्वर में गाती थीं। मधु के नानाजी श्री जमुनादत्त सनवाल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के पहले लेखाधिकारी थे। प्रेमा जी ने वहीं से एम.ए.बी.एड. किया था। हिमालय छात्र संघ के कार्यक्रमों में वे गाया करती थीं| उनकी बड़ी संतान मधु का जन्म 19 फरवरी 1962 को नैनीताल में हुआ था। मां के व्यक्तित्व की छाप मधु पर दिखाई देती थी| मधु की प्रारम्मिक शिक्षा सेन्ट मेरीज कान्वेंट में तथा उच्च शिक्षा कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल में हुई। अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. करने के बाद मधु ने यूजीसी छात्रवृत्ति लेकर शोघकार्य किया और तत्काल बाद से ही अंग्रेजी विभाग में अध्यापन कार्य शुरू कर दिया था। 2015 में उन्होंने प्रोफेसर पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली थी। विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान ही एक जहीन छात्रा के रूप में मधु की छवि बन गई थी। कान्वेंट की शिक्षा का प्रभाव उनके सलीकेदार व्यक्तित्व पर हमेशा बना रहा। विद्यार्थियों के प्रति बहुत अधिक लगाव उनका दिखाई देता था। प्रवेश समिति, शुल्क मुक्ति समिति आदि में विद्यार्थियों के प्रति उनका रनेह और सहानुभूति भरा व्यवहार झलकता था। नौकरी के प्रति भी वे बहुत चाक-चौबन्द थीं। नियम-कानूनों की जानकारी मधु को सब रहती थी। पढ़ना-लिखना उनका शौक नहीं, व्यसन था। हिन्दी तथा अंग्रेजी में मधु की कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं थीं जिनमें से कुछ हैं— द क्रॉसरोड्स, अ परफेक्टली यूजलेस लाइफ, लिविंग अ मिथ ऑर टू (अग्रेंजी), और एक रहिन वो, मकान, मनुज और मोक्ष, खामोश लम्हे, त्रयोदशपदी (हिन्दी) आदि|
मधु के छोटे भाई मनीष जोशी जो इन्डियन नेवी में कमांडर हैं, पत्नी शल्पा और बेटी प्रेमजा के साथ मुम्बई में रहते हैं। शीतावकाश में मधु वहां जाया करती थी। तीनों की खूब चर्चा उसकी बातचीत में हमेशा ही होती थी। पिताजी की मुत्यु के दौरान मधु काफी कष्ट में रही। मां लम्बे समय तक उसके साथ थीं पर उनकी मृत्यु के बाद अकेलापन स्वाभाविक था। फांसी गधेरे में सुन्दर-सी कॉटेज हेमन्त निवास में उनका आवास था जिसे बाद के वर्षों में छोड़ देना पड़ा। वह एक अप्रिय प्रसंग हम साथियों को लगता था पर मधु ने इसे भी सहजता के साथ लिया। मधु के साथ नीता जोशी की याद आना भी हम लोगों के लिए स्वाभाविक है, जो बहुत जल्दी हम सबको छोड़कर चली गईं थीं |
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कला संकाय में मधु का कमरा दोस्तों का अड्डा था। सब वहां पर आकर अपना गम गलत कर सकते थे। वह कमरा सबसे पहले खुल जाता था और बन्द भी देर से ही होता था। हालांकि मधु के पास अपने काम बहुत रहते थे। अध्यापन के अतिरिक्त लिखने-पढ़ने का काम भी वह विभाग में बैठकर करती रहती थी पर धैर्यपूर्वक सबकी बातें सुनना उसकी आदत में था। अंग्रेजी और हिन्दी विभाग आमने-सामने होने से हमारा तो हर समय साक्षात् होता रहता था। धीरे-धीरे हिन्दी साहित्य से भी उसका खूब परिचय होता गया। इस बात का जिक्र वह कई बार करती थी कि बचपन में उन्हें अंग्रेजी का माहौल मिला जिससे हिन्दी पर दखल कम है। उन दिनों एक दूसरे की पढ़ी किताबों का आदान-प्रदान और उन पर चर्चा का खूब माहौल हम लोगों के बीच बन गया था। शिवरानी देवी की ‘प्रेमचन्द घर में’ जब उसने पढ़ी तो इस किताब को पढ़ाने के लिए मुझे विशेष धन्यवाद दिया गया। बटरोही जी ने उससे हिन्दी कहानियों के एक संकलन का अंग्रेजी में अनुवाद भी कराया था। लोकगायक झूसिया दमाईं द्वारा गाई गई गाथाओं का गिर्दा ने हिन्दी में रूपान्तरण किया तो मधु ने उसका अंग्रेजी अनुवाद किया, जो अभी प्रकाशन की तैयारी में है।
काम को समय पर पूरा करने की जिद थी उसकी| उसका कोई काम पेन्डिंग नहीं रहता था। गप मारने की शौकीन थी तो खाने का भी खूब शौक था उसे| घूमना-फिरना, पढ़ना-लिखना तो उसके शौक थे ही| माल रोड में पैदल चलना भी एक शौक था। एक बार कहने लगी, जब पर्यटक इतना पैसा खर्च करके माल रोड पर घूमने के लिए आ सकते हैं तो हम क्यों न इसका लुत्फ उठायें। परीक्षा के दिनों में एक बार ड्यूटी के बाद वह हम कई प्राध्यापिकाओं को क्लिफ्स की सैर करा लाई| एक बार हम सबको उसने चायना पीक चढ़ा दिया। उस दिन प्रो. दीपा पांडे जैसी वरिष्ठ भी हमारे साथ चलीं। नैनीताल से अथाह प्रेम था उसे| जैसा कि यहां जन्मे और पले-बढ़े लोगों में होता ही है। एक-एक पेड़, एक-एक पत्थर, एक-एक मोड़ से परिचय होता है। बाद-बाद के वर्षों में पैरों में दर्द रहने के कारण चलना-फिरना कम हो गया था। चिकनगुनियां होने के बाद से पैरों का दर्द बढ़ता गया और अंततः नैनीताल आना कठिन होता गया। पिछले दो साल से वह नैनीताल आने में अशक्त हो गई थी और मुम्बई में अपने भाई मनीष के पास रहने लगी थी। मनीष ने बताया कि 2021 के मार्च में वे सभी लोग नैनीताल आने की योजना बना रहे थे।
छोटे-छोटे बच्चों से दोस्ती जोड़ लेने का हुनर भी मधु को आता था। उत्तरा परिवार की सबसे छोटी सदस्य नेहा से भी उसकी पक्की दोस्ती हो गई थी। मीठी आवाज में धीरे-धीरे शब्दों का उच्चारण करती हुई मधु को मैंने एक बार उसकी मिठास का उदाहरण लेते हुए ऋग्वेद का सूक्त ”मधु वाता ऋतायते…..’ सुनाया था तो उसने हौले से मुस्कुराते हुए सुन लिया। मधु जहां पर होती थी, प्रसन्नता बिखरा देती थी|हम लोगों की तरह बैठकों, गोष्ठियों में समय की बरबादी करना उसे रुचिकर न था। कहती थी, तुम बैठक कर लो, मुझे जो काम करना है, बता दो| मैं कर लूंगी|
उत्तरा के जन्म के साथ ही वह उससे जुड़ गई थी। उत्तरा के लिए उसने लगातार लिखा। आग्रह पर लिखा, खोज-खोज कर लिखा, “विश्व साहित्य से“ स्तम्भ उसी के कारण चला। मुम्बई गई तो वहां की महिलाओं पर लिखा। उसने नवीनतम और गम्भीरतम सामग्री उपलब्ध कराई|लिखने में बहुत त्वरा हासिल थी उसको। कभी देर नहीं करती थी। कहती थी, हिन्दी में लिखना मुझे उत्तरा ने ही सिखाया। हम दोनों का ही सपना था, सेवानिवृत्त होते ही एक दिन उत्तरा को त्रैमासिक से मासिक कर लेंगे। पर इसमें भी ढिलाई मेरी ओर से ही रही। मैं इतनी नावों में सवार थी| पर मधु का मौन और शांत नजरें काम के प्रति मेरी शिथिलता और गलतियों के लिए मुझे उलाहना देने से नहीं चूकती थीं। इस समय जबकि उत्तरा एक नई ऊर्जा लेकर आगे बढ़ने का संकल्प कर रही थी, मधु का जाना हम सबके लिए एक बहुत बड़ा आघात है। उत्तरा का सबसे मजबूत स्तम्भ ढह गया। लेकिन जैसाकि मेरी मित्र अनीता जोशी कह रही थी, आज के समय में एक खूब पढ़ने-लिखने वाले, संवेदनशील और जागरूक इन्सान का हम सबके बीच से चला जाना महज उत्तरा के लिए ही नहीं, पूरे समाज के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है।
उसके जीवन में बहुत सादगी थी। किसम-किसम के आउडम्बरों से भरे इस समाज में इतनी सादगी बनाये रखना भी कठिन होता है लेकिन मधु ने बहुत सादगी निभाई। एक अध्यापक के रूप में अपने बहुत से विद्यार्थियों को उसने प्रभावित किया होगा पर एक दोस्त के रूप में तो वह लाजवाब थी|
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