क्यों निर्णायक भूमिका में नहीं महिलाएं
प्रवीन राय
भारत की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम होने के पीछे अब तक समाज में पितृसत्तात्मक ढाँचे का मौजूद होना है। यह न सिर्फ महिलाओं को राजनीति में आने से हतोत्साहित करता है बल्कि राजनीति के प्रवेशद्वार की बाधाओं की तरह काम करता है। लेकिन राजनीतिक दलों के भेदभावपूर्ण रवैये के बावजूद मतदाता के रूप में महिलाओं की भागीदारी नब्बे के दशक के अंत से उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है।
ऐसे में यह अनिवार्य हो जाता है कि चुनावों के विभिन्न स्तर पर महिलाओं की भागीदारी का विश्लेषण किया जाए ताकि यह पता लगाया जा सके कि आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी इसमें गैरबराबरी क्यों है।
सफलता
महिलाओं की चुनाव प्रक्रिया में भागीदारी का विश्लेषण एक पिरामिड मॉडल के रूप में किया जा सकता है। इसमें सबसे ऊपर लोकसभा में उनकी 1952 में मौजूदगी, 22 सीट, को रखा जा सकता है जो 2014 में 61 तक आ गई है। यह वृद्धि 36 प्रतिशत है।
लेकिन लैंगिक भेदभाव अब भी भारी मात्रा में मौजूद है और लोकसभा में 10 में से नौ सांसद पुरुष हैं। 1952 में लोकसभा में महिलाओं की संख्या 4.4 प्रतिशत थी जो 2014 में करीब 11 प्रतिशत है। लेकिन यह अब भी वैश्विक औसत 20 प्रतिशत से कम है चुनावों में महिलाओं को टिकट न देने की नीति न सिर्फ राष्ट्रीय पार्टियों की है बल्कि क्षेत्रीय पार्टियां भी इसी राह पर चल रही हैं। और इसकी वजह बताई जाती है उनमें श्जीतने की क्षमताश् कम होना, जो चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण है।
हालांकि भारत के आम चुनावों में महिला उम्मीदवारों की सफलता का विश्लेषण करने वाले एक विशेषज्ञ के अनुसार यह पिछले तीन चुनावों में बेहतर रही है। 2014 के आम चुनावों में महिलाओं की सफलता 9 प्रतिशत रही है जो पुरुषों की 6 प्रतिशत के मुकाबले तीन फीसदी ज्यादा है।
यह आंकड़ा राजनीतिक दलों के जिताऊ उम्मीदवार के आधार पर ज्यादा टिकट देने के तर्क को खारिज कर देता है और साथ ही महिला उम्मीदवार न मिलने की बात को निराधार ठहराता है।
लोकसभा और फैसले लेने वाली जगहों, जैसे कि मंत्रिमंडल, में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व सीधे-सीधे राजनीतिक ढाँचे से उनको सुनियोजित ढंग से बाहर रखने और मूलभूत लैंगिक भेदभाव को रेखांकित करता है।
हालांकि महिलाएँ राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर ठीक-ठाक संख्या में राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करती हैं लेकिन इन राजनीतिक दलों में भी उच्च पदों पर महिलाओं की उपस्थिति कम ही है।
Why are women not in decisive roles?
भागीदारी
जो महिलाएँ पार्टी के अंदरूनी ढाँचे में उपस्थित दर्ज करवाने में कामयाब रही हैं उन्हें भी नेतृत्व के दूसरे दर्जे पर धकेल दिया गया है और वह शीशे की छत को तोड़ पाने में नाकामयाब रही हैं। वह राजनीतिक दलों में नीति और रणनीति के स्तर पर बमुश्किल ही कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और अक्सर उन्हें महिला मुद्दों पर निगाह रखने का काम दे दिया जाता है, जिससे कि चुनावों में पार्टी को फायदा मिल सके।
Why are women not in decisive roles?
2004 2009 2014
चुनाव लड़े जीते चुनाव लड़े जीते चुनाव लड़े जीते
राष्ट्रीय दल 355 45 556 59 668 21
कांग्रेस 45 12 43 23 57 04
बीजेपी 30 10 44 13 37 28
अन्य 280 23 469 23 574 29
स्रोतः भारतीय चुनाव आयोग, नई दिल्ली
नब्बे के दशक में भारत में महिलाओं की चुनावों में भागीदारी में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी देखी गई। इस साल हुए आम चुनावों में आज तक की सबसे ज्यादा महिला मतदाताओं की भागीदारी देखी गई।
चुनाव प्रक्रिया में महिलाओं की भागदारी 1962 के 46.6 प्रतिशत से लगातार बढ़ी है और 2014 में यह 65.7 प्रतिशत हो गई है, हालांकि 2004 के आम चुनावों में 1999 के मुकाबले थोड़ी गिरावट देखी गई थी।
1962 के चुनावों में पुरुष और महिला मतदाताओं के बीच अंतर 16.7 प्रतिशत से घटकर 2014 में 1.5 प्रतिशत हो गया है।
90 के दशक में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को दिए गए 33 प्रतिशत आरक्षण से देश की महिलाओं में पुरुषों की तरह ही सत्ता हासिल करने की भावना विकसित हुई है। इसने एक प्रेरणादायक का काम किया और जो शक्ति प्रदान की उससे महिला मतदाताओं की चुनाव प्रक्रिया में भागीदारी भी बढ़ी।
Why are women not in decisive roles?
उम्मीद
भारत में महिलाओं ने दलितों या मुसलमानों जैसे किसी खास वर्ग के रूप में कभी मतदान नहीं किया। और न ही किसी राजनीतिक दल ने राज्य या देश के स्तर पर ऐसी कोशिश की कि उन्हें उनसे जुड़े किसी मुद्दे पर आंदोलित किया जाए।
पार्टियों को महिला मतदाताओं की याद सिर्फ चुनाव के दौरान ही आती है और उनके घोषणापत्रों में किए गए वायदे शायद ही कभी पूरे होते हैं। महिलाओं के मुद्दों के प्रति राजनीतिक दलों की गंभीरता महिला आरक्षण बिल को पास करने में असफलता से ही साफ हो जाती है।
पिछले कुछ चुनावों के प्रमुख राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों पर नजर डालने से साफ हो जाता है कि उनमें लैंगिक मुद्दे प्रमुखता रखते हैं। लेकिन घोषणापत्रों में जो वादे किए जाते हैं वह घिसे-पिटे होते हैं और चुनावी गहमा-गहमी के बाद आसानी से भुला दिए जाते हैं।
भारत में महिला आंदोलन इस वक्त संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के सवालों पर सकारात्मक कार्रवाई को लेकर बंटा हुआ है। यह मूलत: प्रतिशत दो बातों पर केन्द्रित है- पहला कुल मिलाकर महिला आरक्षण का कोटा बढ़ाने को लेकर और उसमें पिछली जाति की महिलाओं को लेकर और दूसरा अभिजात्यवाद के मुद्दे पर।
विधायी निकायों में महिलाओं के लिए सकारात्मक दिशा में काम किया जाना इस वक्त की जरूरत है। इसके लिए महिलाओं की चुनावी प्रक्रिया में बाधक बनने वाली चीजों को दूर किए जाने की जरूरत है और चुनावी राजनीति में मौजूदा दूरियों को पाटने के साथ ही इसे लैंगिक भागीदारी वाला बनाने की जरूरत है।
महिला आरक्षण के अंदर आरक्षण के नाम पर इसे रोकने वाली ए.स.पी. और आर.जे.डी. जैसी पार्टियाँ मोदी की लहर में बह गई हैं।
हम उम्मीद करते हैं कि नई सरकार पक्का यह विधेयक पास करेगी और इस दौरान भारत की महिलाएँ मोदी के नए (जंगल) में राहत ढूंढ सकती हैं- (अच्छे दिन आने वाले हैं)।
भारत की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम होने के पीठे अब तक समाज में पितृसत्तात्मक ढांचे का मौजूद होना है।
यह न सिर्फ महिलाओं को राजनीति में आने से हतोत्साहित करता है बल्कि राजनीति के प्रवेशद्वार की बाधाओं की तरह काम करता है।
लेकिन राजनीतिक दलों के भेदभावपूर्ण रवैये के बावजूद मतदाता के रूप में महिलाओं की भागीदारी नब्बे के दशक के अंत से उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है।
ऐसे में यह अनिवार्य हो जाता है कि चुनावों के विभिन्न स्तर पर महिलाओं की भागीदारी का विश्लेषण किया जाए ताकि यह पता लगाया जा सके कि आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी इसमें गैरबराबरी क्यों है।
सफलता
महिलाओं की चुनाव प्रक्रिया में भागीदारी का विश्लेषण एक पिरामिड मॉडल के रूप में किया जा सकता है। इसमें सबसे ऊपर लोकसभा में उनकी 1952 में मौजूदगी 22 सीट, को रखा जा सकता है जो 2014 में 61 तक आ गई है। यह वृद्धि 36 प्रतिशत है।
लेकिन लैंगिक भेदभाव अब भी भारी मात्रा में मौजूद है और लोकसभा में 10 में से नौ सांसद पुरुष हैं। 1952 में लोकसभा में महिलाओं की संख्या 4.4 प्रतिशत थी जो 2014 में करीब 11 प्रतिशत है। लेकिन यह अब भी वैश्विक औसत 20 प्रतिशत से कम है।
चुनावों में महिलाओं को टिकट न देने की नीति न सिर्फ राष्ट्रीय पार्टियों की है बल्कि क्षेत्रीय पार्टियाँ भी इसी राह पर चल रही हैं और इसकी वजह बताई जाती है उनमें (जीतने की क्षमता) कम होना, जो चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण है।
हालांकि भारत के आम चुनावों में महिला उम्मीदवारों की सफलता का विश्लेषण करने वाले एक विशेषज्ञ के अनुसार यह पिछले तीन चुनावों में बेहतर रही है। 2014 के आम चुनावों में महिलाओं की सफलता 9 प्रतिशत रही है जो पुरुषों की 6 प्रतिशत के मुकाबले तीन फीसदी ज्यादा है।
यह ऑकड़ा राजनीतिक दलों के जिताऊ उम्मीदवार के आधार पर ज्यादा टिकट देने के तर्क को खारिज कर देता है और साथ ही महिला उम्मीदवार न मिलने की बात को निराधार ठहराता है।
लोकसभा और फैसले लेने वाली जगहों, जैसे कि मंत्रिमंडल में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व सीधे-सीधे राजनीतिक ढाँचे से उनको सुनियोजित ढंग से बाहर रखने और मूलभूत लैंगिक भेदभाव को रेखांकित करता है। हालांकि महिलाएँ राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर ठीक-ठाक संख्या में राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करती हैं लेकिन इन राजनीतिक दलों में भी उच्च पदों पर महिलाओं की उपस्थिति कम ही है।
Why are women not in decisive roles?