स्त्री की पहचान : व्रत-अनुष्ठान
इन्दु पाठक
धार्मिक अनुष्ठानों का महिलाओं के जीवन में हमेशा से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह सच है कि हिन्दू समाज में व्रत, पर्व, त्योहार, रीति-रिवाजों तथा धार्मिक उत्सवों आदि की बहुतायत है। इन अनुष्ठानों का निर्वाह करना तथा पीढ़ी दर पीढ़ी इनकी निरन्तरता को बनाए रखने का दायित्व मुख्यत: महिलाओं को निभाना पड़ता है। इनसे सम्बन्धित प्रतीकों के निर्माण व उन्हें संजोने का कार्य भी महिलाएँ ही करती हैं।
कहा गया है कि स्त्री की अपनी जाति, धर्म व गोत्र नहीं होता। उसका कुल-गोत्र उस व्यक्ति के ही अनुरूप निर्धारित होता है जिसके साथ वह वैवाहिक बन्धन में बँधती है। परन्तु सब कुछ इतना सरल नहीं है। एक तथाकथित उच्च सामाजिक-र्आिथक व जातीय स्तर की स्त्री यदि अपने से निम्न स्तर पर विवाह करती है तो उसकी सामाजिक-जातीय स्थिति निम्न होने में जरा भी देर नहीं लगती। दूसरी ओर निम्न जाति की स्त्री उच्च कुल-गोत्र में विवाहित हो जाती है तो उसे इतनी सरलता से उच्च स्तरीय सामाजिक प्रतिष्ठा व स्वीकार्यता प्राप्त नहीं हो पाती। पति के अनुरूप स्तर निम्न तो सरलता से हो जाता है परन्तु पारिवारिक-सामाजिक दायरे में उसके साथ स्तर ऊँचा होना कठिन होता है। जातीय मामले में तो इसे शत-प्रतिशत सच माना जा सकता है।
आज के दौर में व्यक्ति की पहचान उसकी आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है। परन्तु स्त्री के मामले में ‘पहचान’ की यह स्थिति थोड़ा भिन्न इसलिए हो जाती है कि यह सामाजिक-र्आिथक परिस्थिति उसकी स्वयं की नहीं होती बल्कि उस पुरुष की होती है जिसके साथ वह वैवाहिक बन्धन में है। मानवीय बोध व जागरूकता पर आधारित उसके ‘स्व’ का यहाँ महत्व नहीं है। यही कारण है कि उच्चतम जागरूकता के स्तर की विदुषी महिला की पहचान भी उसके पति की पद-प्रतिष्ठा से जुड़ जाती है।
(Women and Religion)
अनेक ऐसे पौराणिक आख्यान मिलते हैं जहाँ स्त्री के ‘स्व’ की धज्जियाँ उड़ती दिखाई देती हैं। हमारे जहन में ‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’ का स्थान उच्चतम है। उनका एकपत्नी-व्रत होना तथा पत्नी की अनुपस्थिति में उसके स्थान पर उसकी स्वर्ण प्रतिमा को प्रतिष्ठित करना उनकी श्रेष्ठता को दर्शाता है। परन्तु लंका विजय के पश्चात् ‘अग्नि परीक्षा’ के माध्यम से सीता की शुचिता को प्रमाणित किये जाने तथा बिना सीता का पक्ष सुने, एक आदर्श राजा बनने की चाह में सीता को राम द्वारा पुन: वन में भेज दिये जाने का प्रसंग उस ‘रामराज्य’ में स्त्री की स्थिति व उसकी विवशता का आभास कराता है। यहाँ सीता के स्वाभिमान का उल्लेख भी मिलता है। स्थिति स्पष्ट होने पर राम के चाहने पर भी सीता उनके साथ वापस अयोध्या नहीं लौटती। पृथ्वी के फटने व उसमें सीता के समा जाने का आख्यान हम सभी जानते हैं। वह स्वाभिमानी स्त्री है, परन्तु अपने स्वाभिमान के साथ जीने का साहस उसमें नहीं है।
एक और चरित्र है ‘युधिष्ठिर’ जो कि ‘धर्मराज’ के रूप में अत्यन्त सम्मानित माने गये परन्तु यह कैसा ‘धर्मराज’ है जो जुए में पत्नी को दाँव पर लगा देने को धर्म-विरुद्ध नहीं समझता। द्रौपदी भी एक स्वाभिमानी चरित्र है परन्तु उसे भी पति (पतियों) द्वारा दाँव पर लगाने, विद्वज्जनों से भरी सभा में वस्त्र विहीन किये जाने के प्रयासों से गुजरना पड़ा।
किसी भी घरेलू धार्मिक अनुष्ठान में पूजा की सम्पूर्ण तैयारी घर की महिला करती है परन्तु जब पूजन कार्य प्रारम्भ होता है तो मुख्य यजमान हमेशा पुरुष होता है। महिला तो यहाँ मात्र सहायक की भूमिका में दिखाई देती है। पूजा/अनुष्ठान सम्पन्न कराने वाला पुरुष तथा सम्पन्न करने वाला भी वही पुरुष जिसकी आधारभूत तैयारी में बहुत कम संलग्नता होती है। यह तो माना गया है कि स्त्री के बिना कोई धार्मिक कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता, परन्तु चूँकि उसकी भूमिका केवल सहायक की होती है, अत: उसके विकल्प का प्रावधान भी शास्त्रों में उपलब्ध है। अश्वमेघ यज्ञ में राम द्वारा सीता की मूर्ति से काम चलाने के दृष्टान्त से तो हम सभी परिचित हैं परन्तु पुरुषों के मामले में इस प्रकार के उदाहरण नहीं देखे-सुने गये हैं कि पति के स्थान पर उसकी मूर्ति से कार्य चला लिया गया हो।
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कुछ क्षेत्रों में विवाह के संदर्भ में फोटो या तलवार को पुरुष का प्रतीक मानकर विवाह होने के उदाहरण मिलते हैं परन्तु यहाँ भी विपरीत उदाहरण नहीं हैं। अर्थात् स्त्री की फोटो या उसके किसी अन्य प्रतीक के साथ पुरुष के विवाह की चर्चा नहीं सुनाई देती। धार्मिक आस्था का एक स्वरूप है व्रत/उपवास करना, जिसकी जिम्मेदारी भी मुख्यत: महिलाएँ ही उठाती हैं किसी कारणवश कोई व्रत न कर पाने अथवा व्रत करना भूल जाने पर वे सचमुच अनिष्ट की आशंका से ग्रस्त हो जाती हैं। वे पति, सन्तान की तथा अपने ‘सुहाग’ की सलामती के लिए भी उपवास करती हैं। कारण का विश्लेषण दो तरीके से किया जा सकता है
1. पितृसत्तात्मक व्यवस्था व उसके मूल्यों के चलते स्त्री की सम्पूर्ण अस्मिता व पहचान पुरुष के कारण ही है तथा वह पुरुष पिता, पति व पुत्र कोई भी हो सकता है। एकाकी, विधवा, परित्यक्ता व तलाकशुदा महिलाओं को आज भी कई प्रकार की सामाजिक वंचनाओं का सामना करना पड़ता है तथा उनकी पारिवारिक-सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी आती है। वह ‘सधवा’ या ‘सुहागन’ है तो उसके होने की वजह से ही है तथा उस पुरुष का अभाव उसे ‘विधवा’ ‘परित्यक्ता’ या ‘तलाकशुदा’ जैसी सामाजिक रूप से नकारात्मक मानी जाने वाली परिस्थितियों से युक्त कर देता है। परिवार में माँ जैसे प्रतिष्ठित पद की स्त्री भी यदि विधवा है तो शुभ माने जाने वाले कार्यों में स्वयं ही पीछे हटने लगती है। कई ‘शुभ’ कार्य ऐसे भी होते हैं जहाँ पाँच या सात सुहागनों को एकत्रित करने का प्रावधान होता है और उस कार्य को करने में स्वयं माँ बेटी व बहन भी वंचित हो जाती है, यदि वह ‘सुहागन’ नहीं है। सम्भवत: यही कारण है कि स्त्री प्रत्येक ऐसा प्रयास करना चाहती है जिससे वह ऐसी ‘सुहागन’ बनी रहे। हिन्दू समाज में ‘सदा सुहागन रहो’ विवाहित स्त्री के लिए सबसे बड़ा अशीर्वाद माना जाता है। यहाँ तक कि पति से पहले ‘सुहागन’ के रूप में मृत्यु को प्राप्त स्त्री को भाग्यवान कहा जाता है।
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पारम्परिक सामाजिक व्यवस्था में स्त्री का रहन-सहन, उसके वस्त्र-आभूषण, यहाँ तक कि उसका खान-पान भी उसके पति के अस्तित्व पर निर्भर करता है। पति के होने पर यह सब उसके लिए सहज ही उपलब्ध होता है परन्तु उसके न रहने पर स्त्री से उम्मीद की जाती है कि वह अत्यन्त सामान्य जीवन व्यतीत करे। जीवन में रंगों को अपनाना तथा उल्लास का प्रदर्शन करना उसके लिए र्विजत हो जाता है तथा खान-पान में भी उसे अनेक प्रकार के निषेधों का सामना करना पड़ता है
2. स्त्री के लिए केवल पत्नी होना ही पर्याप्त नहीं है। सन्तानवती होना भी स्त्री-जीवन की अनिवार्यता है। ‘पुत्रवती भव’ विवाहित स्त्री को दिया जाने वाला प्रमुख आशीर्वाद है। यहाँ भी एक प्रकार की लैंगिक विषमता दिखाई देती है। ‘पुत्रीवती भव्’ जैसे आशीर्वचन शायद ही कभी सुने गये हों। वस्तुत: सन्तानहीनता भी स्त्री की सामाजिक प्रतिष्ठा को कम करती है। स्त्री आर्थिक रूप से सम्पन्न हो, विदुषी हो, एक अच्छी गृहिणी हो, एक बहुत ही आत्मीय पारिवारिक महिला हो, परन्तु यदि वह ‘माँ’ नहीं है तो उसकी ये सभी खूबियाँ महत्वहीन हो जाती हैं। सन्तान का न होना उसका बहुत बड़ा दोष माना जाता है, चाहे पति में ही कोई कमी क्यों न हो।
यहाँ यह भी कहना आवश्यक है एक सुखद पारिवारिक जीवन के लिए पति-पत्नी व संतान सभी का सुरक्षित होना आवश्यक है। जितना पत्नी के लिए पति आवश्यक है, उतना ही पति के लिए भी पत्नी आवश्यक है। प्राय: देखा गया है कि एक अकेली स्त्री जितनी कुशलता से बच्चों व परिवार का संरक्षण कर पाती है, उतना कभी भी अकेले पुरुष के लिए सम्भव नहीं हो पाता। परन्तु किसी भी पुरुष को पत्नी की सुरक्षा के लिए व्रत-उपवास करते नहीं देखा गया है। वास्तविकता तो यह है कि इस पितृसत्ता पर आधारित व्यवस्था में स्त्रियों में यह कूट-कूट कर भर दिया जाता है कि जिन लोगों से तुम्हारी पहचान है उनके बने रहने के लिए तुम्हें यह सब करना है। शारीरिक-मानसिक रूप से कष्ट व परेशानी की स्थिति में भी स्त्रियाँ इस तरह के अनुष्ठान-व्रत आदि छोड़ नहीं पाती जिससे उनके स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की सम्भावना रहती है। करवाचौथ, बटवावित्री, सोमवार, डोर-दुबड़ा (कुमाऊँ में स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला व्रत) छट तथा और भी न जाने कितने व्रत-उपवास हैं जो केवल स्त्री के ही हिस्से में आते हैं। पुरुषों के संदर्भ में इस प्रकार के उदाहरण नहीं देखे-सुने जाते, जबकि तथाकथित सामाजिक मानदण्डों के अनुरूप तो स्त्रियों को अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षा की आवश्यकता है और व्रत उपवास से यदि यह सुरक्षा मिल सकती है तो उसके द्वारा ही नहीं बल्कि उसके लिए भी ऐसे व्रत किये जाने चाहिए।
शिकायत वहाँ है जहाँ एक वर्ग के रूप में स्त्री समाज पर इस प्रकार के मूल्यों का आरोपण कर दिया जाता है तथा अनुकूल व साथ ही प्रतिकूल स्थितियों में भी उन्हें इन कर्मकाण्डों, संस्कारों आदि का निर्वाह करना पड़ता है। पुरुष वर्ग थोड़ा इस दृष्टि से सोच ले तो इस प्रकार की धार्मिक आस्थाएँ स्त्री जीवन पर बोझ नहीं बनेंगी।
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