‘पहियों पर सवार’ अग्रगामी महिलाओं की ऑटो-यात्रा
मधु जोशी
उत्तरा (अप्रैल-जून 2016) में प्रकाशित लेख ”पहियों पर सवार दो प्रगतिशील परिवर्तन” (पृष्ठ: 27-28) में मुम्बई महानगरीय क्षेत्र में ऑटो चालकों को दिये जाने वाले पाँच प्रतिशत परमिट महिलाओं के लिए आरक्षित किये जाने के निर्णय की चर्चा की गयी थी और चयनित महिला चालकों के आरम्भिक अनुभव साझा किये गये थे। उस लेख को छपे और उस ऑटो यात्रा को आरम्भ हुए एक वर्ष हो गया है। इस अन्तराल में उन महिला चालकों के अनुभव पुन: साझा करने के लिए यह बेहतर समय नहीं हो सकता है।
विगत वर्ष के दौरान इन महिलाओं के अनुभवों को यदि खट्टा-मीठा कहा जाय तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। पहले यदि इस यात्रा के सकारात्मक पक्ष का अवलोकन करें तो हम पायेंगे कि इस परिवर्तन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने महिलाओं का सशक्तीकरण तो किया ही है, इस अवसर ने उनके आत्मविश्वास को भी बढ़ाया है। निर्धारित ड्रेस कोड के अनुसार इन महिलाओं के लिए सफेद रंग के वस्त्र पहनना अनिवार्य है। सामान्यत: यह सफेद सलवार-कुर्ता अथवा साड़ी पहनती हैं अथवा रंगीन वस्त्रों के ऊपर सफेद रंग का कोट पहनती हैं। अपने गेरुआ रंग के ऑटो रिक्शों के कारण इन्हें ‘आबोली-ब्रिगेड’ भी कहा जाता है। मराठी में प्रियदर्श के गेरुआ रंग के फूल को आबोली या अबोली कहा जाता है।
उत्साह से भरपूर ठाणे की प्रथम महिला ऑटो-चालक अनामिका भालेराव आशा व्यक्त करती हैं कि चार-पाँच वर्षों में शहर की सड़कों पर काले ऑटो रिक्शों के स्थान पर ‘आबोली’ रिक्शे ही दिखायी देंगे। आरम्भ में जब यह अपने पुत्र शान्तनु को स्कूल से लेने के लिए जाती थीं तो वह उन्हें इसके लिए मना करता था क्योंकि उसके दोस्त उसका मजाक उड़ाते थे कि उसकी माँ ऑटो चलाती हैं। अब जब शान्तनु की माँ ने ऑटो चालन के कारण ख्याति प्राप्त कर ली है, तो वह स्वयं अनामिका से अनुरोध करने लगा है, ”माँ, क्या आप मुझे स्कूल से लेने आ सकेंगी? मुझे अपने दोस्तों को हमारा नया ऑटो दिखाना है।”
अनामिका भालेराव अन्य ऑटो चालक महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत भी हैं। कविता बनसोडे के पति स्वयं ऑटो चालक हैं। जब उन्होंने अनामिका को ऑटो चलाते देखा तो अनेक कठिनाइयों के बावजूद, उन्होंने अपनी पत्नी को ऑटो चलाना सिखाया। अब ऑटो चालन से होने वाली आय के कारण बनसोडे दम्पत्ति अपने विशेष आवश्यकताओं वाले पुत्र का लालन-पालन कर रहे हैं।
कुछ इसी तरह की कहानी अश्विनी की है। उन्हें अपने पति को इस बात के लिए तैयार करने में काफी समय लगा कि वह ऑटो चलायेंगी क्योंकि पति को लगता था कि उन्हें घर में रहकर बच्चों की देखभाल करनी चाहिए। आज अश्विनी के बच्चे इस बात पर बहस करते हैं कि ऑटो का नामकरण किसके ऊपर होना चाहिए। उनके पुत्र को लगता है, चूँकि वह उम्र में बड़ा है, अत: ऑटो को उसका नाम दिया जाना चाहिए, जबकि उनकी पुत्री का मत है कि ऑटो को एक महिला चलाती है अत: उसका नाम उस महिला की पुत्री के ऊपर रखा जाना चाहिए।
(Women auto driver)
25 वर्षीया हेमांगी बेंद्रे के पास वाणिज्य विषय में स्नातकोत्तर की डिग्री है। पहले वह बेलापुर की एक फर्म में बारह घण्टे काम करके अठारह हजार रुपये मासिक कमाती थीं। ऑटो चालन का व्यवसाय अपनाने के उपरान्त अब वह अपने काम के घण्टे स्वयं निर्धारित कर पाती हैं और बेहतर कमाई भी कर लेती हैं। अठ्ठावन वर्षीया सुप्रिया जावकर ने बाईस दिनों में ऑटो चलाना सीख लिया था। छोटे-मोटे घरेलू कार्य करके जीवन यापन करने वाली सुप्रिया आज इज्ज़त के साथ नियमित कमाई कर रही हैं। सुवर्णा पंचाल को उनकी सास ने ऑटो चालन के लिए प्रोत्साहित किया था। ताकि वह अपने काम करने के घण्टों को अपनी सात-वर्षीया पुत्री के स्कूल के समय के अनुसार ढाल सकें।
पचास वर्षीया सुनीता गायकवाड़ अविवाहित हैं और उन्हें ऑटो चालन की प्रेरणा अपने पिता से मिली। जब उनके इरादे के विषय में जानकर उनकी सहेलियों ने उनका मजाक उड़ाया तो उन्होंने तत्काल जवाब दिया कि जब महिलाएँ हवाई जहाज चला सकती हैं तो उन्हें ऑटो चलाने में परेशानी क्यों होगी। मनीषा नलवाड़े ने अपनी पहचान बनाने के लिए इस पेशे को अपनाया है। दो बच्चों की माँ मनीषा को जब उनके पति ने सड़क पर मौजूद खतरों के विषय में आगाह किया तो उनका जवाब था कि खतरों के डर से घर में खुद को कैद कर लेना इस समस्या का समाधान नहीं है।
वस्तुत: इन महिला ऑटो चालकों के समक्ष समस्याएँ व खतरे भी कम नहीं हैं। इनके सामने उत्पन्न होने वाली कुछ परिस्थितियाँ हास्यास्पद भी होती हैं, जैसे कि चालक की सीट पर महिला को बैठे देखकर दूसरे ऑटो में चले जाने वाले पुरुषों की प्रतिक्रिया- ‘वह तो औरत है।’ किन्तु इसका एक और चिन्ताजनक और स्याह पक्ष भी है। अधिकांश महिलाओं को नियमित रूप से फब्तियों, अश्लील टिप्पणियों और गालियों का सामना करना पड़ता है और इनके अधिकांश पुरुष सहकर्मी इन्हें हतोत्साहित करने का कोई मौका नहीं गँवाते हैं।
एन.डी.टी.वी. 24×7 में प्रसारित एक रिपोर्ट के अनुसार अब पुरुष ऑटो चालकों को यह महिला ऑटो चालक अपनी प्रतिद्वंद्वी और अपने लिए खतरा लगने लगी हैं। पुरुष चालक इस बात का दबाव बनाते हैं कि यह महिलाएँ ठाणे स्टेशन के सिर्फ़ उसी स्थान पर ऑटो खड़े करें जिसे आरम्भ में केवल महिला चालकों के लिए, उन्हें प्रारम्भिक दौर में प्रोत्साहन देने के लिए, आरक्षित किया गया था। 32 वर्षीय मनीषा से एक पुरुष सहकर्मी ने यह तक कह दिया कि यदि उन्हें धन्धा ही करना है तो वह वहाँ जायें जहाँ वेश्याएँ काम करती हैं। अनामिका भालेराव के अनुसार यदि महिला चालकों का चालान हो जाता है तो पुलिस कर्मी बहुधा चालान देते समय बेहद हल्की भाषा का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि यह उनके लिए प्रेम पत्र है।
स्थानीय ऑटो रिक्शा और टैक्सी यूनियन के पदाधिकारी सचिन चौधरी को पुरुष चालकों द्वारा झुण्ड में खड़े होकर टीका-टिप्पणी करने तथा फब्तियाँ कसने में कुछ भी अनुचित नहीं लगता। उनका यह भी मत है कि जहाँ पुरुष चालकों को रात ग्यारह बजे तक ऑटो चलाने की अनुमति मिली हुई है, महिलाओं को सिर्फ शाम छ: बजे तक ऑटो चलाना चाहिए। पत्रकार अनन्त ज़नाने ने जब पुरुष चालकों से सीधा प्रश्न पूछा कि क्या महिलाओं को ऑटो चालन की अनुमति मिलनी चाहिए तो अधिकांश पुरुषों ने तत्काल जवाब दिया, ”नहीं”।
स्पष्टत: एक तरफ ऑटो चालन ने महिलाओं के लिए अनेक द्वार खोले हैं, वहीं, दूसरी तरफ उनके समक्ष अनेक चुनौतियाँ भी उठ खड़ी हुई हैं। प्रथम महिला ऑटो चालक अनामिका भालेराव के पति अविनाश भालेराव, जिन्होंने अपनी पत्नी का हर कदम पर साथ दिया है, वर्तमान स्थिति की विवेचना करते हुए कहते हैं, ”यह राज्य पुरुष प्रधान है। हम पुरुषों को इस बात की आदत थी कि हम अपनी महिलाओं की देखभाल करेंगे और यह घर की चहारदीवारियों के अन्दर रहेंगी। (अपनी पत्नी की तरफ इशारा करते हुए) जब इन जैसी महिलाएँ उस जगह आने लगीं जिसे पुरुष अपनी जगह मानते थे तो पुरुषों ने इन्हें रोकने का प्रयास किया। वह आक्रामक होते हैं और इन्हें ऑटो की कतार में खड़े नहीं होने देते हैं।”
इन सभी प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद ये महिला चालक ‘पहियों पर सवार’ होकर अपनी यात्रा चालू रख रही हैं। समस्या का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि अप्रैल अन्त में जब अनामिका और मनीषा समेत छह महिलाओं ने उन्हें प्रताड़ित करने वाले एक पुरुष सहकर्मी के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट करायी तो उसे तत्काल गिरफ्तार किया गया। और फिर, वर्षा भोंसले के अनुसार, कुछ पुरुष ऐसे भी होते हैं जो उनके साथ ससम्मान सैल्र्फी खिंचवाते हैं और अपने स्कूटर की पिछली सीट पर बैठी महिलाओं को सुझाव देते हैं, ”ऑटो चलाती उस महिला को देखो। तुम भी तो यह सीख सकती हो।”
(8 मार्च 2017 के बॉम्बे टाइम्स और 17 मार्च 2017 के मुम्बई मिरर में प्रकाशित लेखों तथा 2 मई 2017 को एन.डी.टी.वी. 24७7 में प्रसारित अनन्त ज़नाने की रिपोर्ट पर साभार आधारित)।
(Women auto driver)
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