पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों में नारी की स्थिति

प्रभा पंत

स्त्री-पुरुष दोनों के मध्य परस्पर धरती-आकाश, वृक्ष-बीज, अंधकार-प्रकाश, वायु-अग्नि और भोजन-जल सदृश अटूट संबंध है। जिस प्रकार प्रकृति के ये उपादान एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी स्वयं में विशेष तथा जीवन के लिए उपयोगी हैं, उसी प्रकार स्त्री एवं पुरुष एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी स्वयं में विशेष और सृष्टि के विकासक्रम के लिए उपयोगी तथा एक-दूसरे के लिए महत्वपूर्ण हैं; किन्तु समाज में उसे एक उपयोगी वस्तु से अधिक महव नहीं दिया गया। परिणामस्वरूप अधिकांश स्त्रियाँ अपना आकलन इसी रूप में करने लगी। यही कारण है कि आज 21वीं सदी में, जबकि एक ओर नारी ने समुद्र की अतल गहराई का स्पर्श किया है, पर्वत-शिखर के गर्व को पददलित किया है, तथा अन्तरिक्ष की ऊँचाई पर भी वह अपनी गौरव-गाथा लिख आई है, अर्थात् विकास का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहाँ स्त्री, पुरुष के साथ न दिखाई दे रही हो, किन्तु तब भी एक आम स्त्री अपने घर-परिवार के दायित्वों के अतिरिक्त कुछ और सोचना ही नहीं चाहती।

आज भी पर्वतीय सीमान्त क्षेत्र में स्त्री अपने पति को अपना मालिक कहकर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करती है, चाहे पति दुराचारी ही क्यों न हो। वहाँ बारह-तेरह वर्ष की बच्ची जब पहली बार रजस्वला होती है, तो उसे अछूत की तरह बारह दिनों तक दूसरी बार पन्द्रह दिनों तक, तीसरी बार नौ दिनों तक तथा उसके बाद जब तक रजोनिवृत्ति नहीं हो जाती, तब तक पाँच या सात दिनों तक, गोठ (गोशाला) में अकेले अथवा गाय या बकरी के साथ रहना पड़ता है। यद्यपि हमारे पूर्वजों ने यह व्यवस्था इसलिए बनाई, जिससे कि इन पीड़ादायी दिनों में उसे विश्राम मिल सके, किन्तु कभी मजबूरी के कारण तो कभी स्वार्थवश स्त्रियाँ घर से बाहर के कार्य करने लगीं, धीरे-धीरे यह परम्परा बन गई। आज भी रजोदर्शन-काल में स्त्रियाँ घास अथवा लकड़ी लेने जंगल अथवा गुड़ाई-निराई करने खेतों में जाती हैं। इस काल में मात्र घर-भीतर के कार्यों एवं पानी भरने से उन्हें मुक्त किया गया है, क्योंकि अद्र्घज्ञानवश लोगों को केवल इतना ही ज्ञात है कि रजस्वला स्त्री का किसी पवित्र स्थल में प्रवेश करना तथा उसे स्पर्श करना वर्जित है। यदि भूलवश वह वर्जित स्थल में पैर रख देती है; किसी को स्पर्श कर देती है अथवा कोई व्यक्ति उसे स्पर्श कर लेता है तो उस स्थल को और व्यक्ति को गोमूत्र छिड़ककर पवित्र किया जाता है।

शिक्षा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का सशक्त माध्यम है। जिस प्रकार अंधकार-आच्छादित कक्ष में दीप प्रज्ज्वलित करते ही वहाँ स्थित प्रत्येक वस्तु अर्थवान् होकर हमें दिखाई देने लगती है, उसी प्रकार शिक्षा की ज्योति व्यक्ति के जीवन से अज्ञानता का अंधकार मिटाकर, उसके जीवन को सार्थकता प्रदान करती है; किन्तु जो शिक्षा व्यक्ति के विकास में बाधक हो, वह अज्ञान से भी अधिक घातक सिद्घ होती है। यद्यपि आज गाँवों में अनेक विद्यालय स्थापित हो चुके हैं; किन्तु फिर भी वहाँ स्त्रियों की स्थिति दयनीय बनी हुई है। इसका कारण है, अव्यावहारिक शिक्षा पद्धति। केवल साक्षर होने अथवा कक्षा उत्तीर्ण कर लेने मात्र से नारी-सशक्तीकरण एवं विकास संभव नहीं है, और न ही केवल पुस्तकीय ज्ञान से उन्हें जागरूक किया जा सकता है। उसके लिए आवश्यक है- तकनीकी शिक्षा, मूल्यपरक शिक्षा तथा व्यावहारिक ज्ञान। ग्रामीण स्त्रियों का अधिकांश समय घर एवं पशुओं के लिए पानी ढोने में चला जाता है जो समय बचता है, वह भोजन की व्यवस्था करने तथा पशुओं के लिए चारा जुटाने में व्यय हो जाता है। जहाँ तक उसके ज्ञान का प्रश्न है, उसे अनुभवजन्य तथा परम्परागत रूप में यह अवश्य ज्ञात है कि कौन-सी वनस्पति अधिक दुग्ध-प्रदायिका होती है तथा किस जड़ी-बूटी से किस व्याधि का निवारण होता है। चारा-पानी आदि की चिन्ता में ही उसका अधिकांश समय व्यतीत हो जाता है। ऐसी स्थिति में, जबकि उन्हें अपने अथवा अपने बच्चों के स्वास्थ्य के विषय में ही सोचने का अवकाश नहीं मिल पाता तो क्या वे उनकी शिक्षा के विषय में सोच सकेंगी?
(Women condition in rural areas)

यद्यपि महिलाओं को पंचायतों में पचास प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया है, किन्तु सभाओं में वर्चस्व पुरुषों का ही दिखाई देता है। राजनीतिक दलों में आज भी महिलाओं की स्थिति वैसी ही है, जैसी शतरंज में प्यादे की होती है। यद्यपि अभियान के प्रारम्भ में महिलाओं को अग्रणी भूमिका दी जाती है, किन्तु लक्ष्य के निकट आते ही पुरुष उनका संघर्ष और बलिदान विस्मृत कर पद पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेता है। इसलिये अब स्त्रियों को साक्षर मात्र बनाने से अधिक आवश्यकता है, उन्हें शिक्षित एवं प्रशिक्षित करने की; जिससे कि वे कर्तव्य निर्वहन करने के साथ ही अपने अधिकारों का सदुपयोग करना भी सीख सकें। प्रख्यात पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा का कथन है, ”पर्वतीय नारी भ्रष्टाचार से दूर रही है। अत एव राजनीति में उसका योगदान सराहनीय हो सकता है। यहाँ की नारी ईश्वर से डरती है, अत: वह समाजसेवा के किसी भी क्षेत्र में आगे रह सकती है।

सीमान्त क्षेत्र धारचूला, पिथौरागढ़ के निकटवत्र्ती आठगाँव शिलिंग, टेड़ा, मड़मानले, बरम, राँथी, जुम्मा, गलाती, दोबाट, छिरकिला, आदि अनेक गाँवों का समाजिक सर्वेक्षण करने पर मेरी ऐसी अनेक स्त्रियों से भेंट हुई, जिन्होंने शराबी पति के हाथों प्रताड़ित होना और मानसिक उत्पीड़न सहना अपनी नियति का एक अंग मान लिया है। वहीं मुझे कुछ ऐसी जागरूक स्त्रियाँ भी मिलीं, जिन्होंने अपने बुद्धिकौशल एवं सूझ-बूझ से गाँव के पुरुषों की शराब पीने की लत पर अंकुश लगाने में सफलता प्राप्त की है। इसके लिए उन्होंने गाँव में ‘महिला-मंगल दल’ स्थापित किया है। जब भी कोई व्यक्ति मद्यपान करके अपनी पत्नी अथवा किसी के साथ मारपीट अथवा अभद्रता करता है, शराब बेचता हुआ अथवा शराब बनाता हुआ पकड़ा जाता है, तो ‘मंगलदल’ की महिलाएँ मिलकर सिसौंण (एक विषेष प्रकार की घास) से उसकी पिटाई करती हैं।

इसके विपरीत मुनस्यारी, बंगापानी, छोरी-बगड़, बाननी, बलुआकोट, नारायणनगर आदि क्षेत्रों की लगभग 13 से 18 वर्ष की अनेक बालिकाएँ प्रशिक्षित दाई से अथवा औषधियों के माध्यम से गर्भपात कराने में तनिक भी संकोच नहीं करतीं; क्योंकि उन्हें इस बात का ज्ञान ही नहीं है कि इससे उनके स्वास्थ्य पर कोई दुष्प्रभाव भी पड़ सकता है।  यद्यपि कभी गर्भपात करवाते समय तथा कभी गर्भपात कराने के कुछ दिनों के पश्चात् ही कुछ बालिकाओं की मृत्यु भी हो जाती है, तथापि अन्य बालिकाएँ उनसे कोई सबक नहीं ले पाती हैं। इसका मुख्य कारण उनके माता-पिता अपनी लाज के भय से न तो इसकी कोई रिपोर्ट ही दर्ज कराते हैं और न ही उस व्यक्ति को दण्डित कराते हैं, जिसके कारण उनकी लड़की गर्भवती हुई।

प्रत्येक माँ अपनी पुत्री को वही संस्कार देना चाहती है, जिन्हें उसने अपनी माँ से प्राप्त किया था। यही कारण है कि वह प्रतिक्षण उसे अपनी योग्यता एवं ज्ञान के अनुसार उसे शिक्षित करती रहती है। माँ के द्वारा प्रदत्त संस्कार आजीवन बेटी का मार्ग-दर्शन करते रहते हैं। उन्हीं संस्कारों के आधार पर वह अपना जीवन व्यतीत करना चाहती है और आजीवन उनका अंधानुकरण करती रहती है। मड़मानले के निकटवर्ती ग्राम में 50-55 वर्षीया स्त्री, जिसके पति का निधन हुए लगभग तीस वर्ष हो चुके हैं, का पुत्र राजपत्रित अधिकारी है; परन्तु वह गाँव में अकेली रहती है। जब मैंने उससे उसके अकेले रहने का कारण जानना चाहा तो यह जानकर मुझे अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि वह उस घर में इसलिए रह रही थी; क्योंकि उसका पति मृत्यु के समय उसे वहाँ छोड़कर गया था। अपने इस निश्चय की सार्थकता को उचित सिद्ध करने के लिए उसने मेरे सम्मुख अपनी दादी और माँ के उदाहरण प्रस्तुत कर दिए। अपने मायके की प्रत्येक वस्तु ही नहीं, मायके की सीख भी प्रत्येक लड़की को अपने प्राणों से अधिक प्रिय होती है। यही कारण है कि आज भी स्त्री न चाहते हुए भी उन सड़े-गले संस्कारों को ढो रही है तथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन्हें आगे बढ़ाती जा रही है। उसे इस बात का तनिक भी भान नहीं है, कि आज परिस्थितियाँ एवं आवश्यकताएँ परिवर्तित हो चुकी हैं। कदाचित्, यह भी उसके संस्कारों का ही परिणाम है कि वह अपने घर-परिवार के दायित्वों से अधिक और कुछ सोचना ही नहीं चाहती है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी नारी की स्थिति यथावत् बनी हुई है। यहाँ तक कि उसे इस बात से भी कोई सरोकार नहीं है कि कर्तव्यों के साथ उसके कुछ अधिकार भी हैं। एक ओर जहाँ नारी प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष खड़ी होकर राष्ट्र के विकास में अपनी गरिमामयी भूमिका निभा रही है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के अभाव में वह आज भी स्वयं को वंशवृद्घि का साधनमात्र मान रही है।
(Women condition in rural areas)

लोहाघाट के निकटवर्ती गाँव कोली ढेक में मुझे 45-46 वर्षीया एक ऐसी महिला मिली,जिसकी एक आँख खराब थी। उसके पति ने उसे चरित्रहीन घोषित करके किसी दूसरी स्त्री से विवाह कर लिया था तथा वह उसे तथा अपने छोटे-छोटे बच्चों को असहाय छोड़कर चला गया था।  उसमें इतनी प्रबल जिजीविषा थी कि वह अपने सात बच्चों के साथ एक छोटे से कमरे में रह रही थी। उसी कक्ष के एक कोने में एक बछिया एवं एक बकरी भी बँधी हुई थी, जिन्हें वह स्त्री इस उम्मीद में पाल रही थी कि जब बछिया बड़ी होकर दूध देगी तो वह उसका दूध बेचकर तथा बकरी के बच्चे बेचकर अपने बच्चों का भरण-पोषण करेगी। यदि वह स्त्री शिक्षित होती तो अपने तथा अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए कानून से गुहार लगा सकती थी, क्योंकि उसका पति भारतीय थल सेना में कार्यरत था, किन्तु अज्ञान के कारण वह गाँव के लोगों के खेतों में मजदूरी करके तथा उनके पशुओं के लिए घास काटकर अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रही थी।

आवागमन के साधनों के अभाव में सुदूरवर्ती गाँवों में स्थित विद्यालयों में न तो कोई अध्यापक जाना चाहता है, और न ही निर्धनता एवं अज्ञान के कारण बालिकाओं को वहाँ पढ़ने के लिए भेजा जाता है, क्योंकि उनके माता-पिता को लगता है कि लड़कियों को पढ़ाने से क्या फायदा। विद्यालय जाने से बेहतर तो यह है कि वे खेतों में जाकर काम करें अथवा जंगल से घास व लकड़ी काटकर लाएँ। सर्वेक्षण में नगर के निकटवर्ती गाँवों में शिक्षित लड़कियों की दशा और भी अधिक शोचनीय दिखाई दी। दीपा एम़एस-सी की परीक्षा दे ही रही थी कि तभी उसका विवाह हाईस्कूल पास एक धनाढ्य लड़के से कर दिया गया। उसकी सुन्दरता एवं निर्धनता उसके लिए अभिशाप बन गई। एक निर्धन शराबी व्यक्ति को धनाढ्य परिवार में अपनी बेटी के विवाह के समक्ष उसकी समस्त योग्यता नगण्य-सी लगी। अपने चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान लिए दीपा ने कहा- ”क्या फ़र्क पड़ता है मैम, मायके में रहूँ या ससुराल में। काम तो मायके में भी करना पड़ता था, ससुराल में उसका रूप बदल गया है। समस्याएँ वहाँ भी थीं, यहाँ भी हैं। उनसे जूझने की आदत मुझे बचपन से ही है। कुछ रुक कर उदास स्वर में बोली- मैम, मैं तो सोचती थी कि भविष्य में किसी उच्चपद को प्राप्त करूँगी, अपने भाई बहिनों की प्रत्येक इच्छा पूरी करूँगी, लेकिन शायद, माता-पिता की दृष्टि में एक लड़की के लिए किसी की पत्नी बनने से बड़ा कोई और पद नहीं।’’

इनके अतिरिक्त अनेक तस्वीरें और भी हैं, जो प्रतिवर्ष प्रत्येक महाविद्यालय में दिखाई देती हैं; जैसे परीक्षा भवन में ऊँघती हुई नव विवाहिता जिसका वैवाहिक श्रृंगार भी अभी तक नहीं बदला है, गर्भ के बोझ से पीड़ित, कसमसाती, अपने प्रश्नपत्र हल करती हुई स्त्री, बूढ़े सास-ससुर को असहाय छोड़कर परीक्षाओं के लिए मायके रहने वाली महिलाएँ, दुधमुहे शिशु को घर छोड़कर परीक्षा देती हुई नारी। क्या ये तस्वीरें शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न की गवाह नहीं हैं, क्या इन्हें किसी विकसित समाज का प्रतिबिम्ब माना जा सकता है?
(Women condition in rural areas)

पिछड़े हुए ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी स्त्री का जीवन, कहीं हताशा एवं निराशा से भरा हुआ है तो कहीं उसने इस पशुवत् जीवन को अपनी नियति मानकर, इसे स्वीकार कर लिया है। यदि हम उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में वहाँ की ग्रामीण स्त्री के जीवन पर दृष्टिपात करें, तो पाएँगे कि आज भी वहाँ स्त्री धार्मिक अनुष्ठानों, वंशवृद्धि एवं गृहस्थी के संचालन का साधन मात्र है। उसकी भावनाओं एवं सपनों से किसी को कोई भी सरोकार नहीं है। यहाँ तक कि उसके माता-पिता आज भी उसे किसी दूसरे की धरोहर तथा दान करने की वस्तु ही समझते हैं। यदि कुछ माता-पिता अपनी बेटी को पढ़ा-लिखाकर उसे आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं, तो इसका कारण है- उसका विवाह। इक्कीसवीं शदी में दहेज का पारम्परिक रूप परिवर्तित हो गया है। यदि लड़की प्राइमरी में अध्यापिका है अथवा उसने बी.एड. किया है, तो उसका विवाह सहज ही हो जाता है; क्योंकि आज लड़के वालों की एक ही माँग रहती है-  ‘लड़की बी.एड. होनी चाहिए, हमें और कुछ नहीं चाहिए।’ इसके पीछे उनकी यह धारणा रहती है कि हर महीने उन्हें दहेज भी मिलता रहेगा, साथ ही गृहस्थ जीवन का सुख भी। इस विवाह के पश्चात्, चाहे लड़की को पारिवारिक जि़म्मेदारियों का निर्वहन करने के साथ ही, पढ़ाने के लिए कोसों दूर पैदल चलकर अथवा वाहन में धक्के खाते हुए ही क्यों न जाना पड़े। उसकी इस व्यथा-पीड़ा से न तो माता-पिता को और न ही ससुराल वालों को कोई सरोकार रहता है। इसके बावजूद वह समाज में ईष्र्या का पात्र बनी रहती है। यह स्थिति है- नगर के निकटवर्ती गाँवों में रहने वाली लड़कियों की।

इसके अतिरिक्त एक वर्ग ऐसा भी है, जो लड़कियों को पढ़ने तभी तक भेजता है, जब तक कि उसके विवाह के लिए कोई प्रस्ताव नहीं आ जाता। लड़की चाहे कितनी भी बुद्धिमती क्यों न हो, यदि कहीं से उसके विवाह का प्रस्ताव आ जाता है तो पढ़ाई को बीच में ही छोड़कर उसे विवाह करना पड़ता है। वहाँ माता-पिता की दृष्टि में पढ़ने-लिखने से अधिक आवश्यक है- लड़की का विवाह। लड़का मजदूर, अनपढ़ या फिर शराबी ही क्यों न हो, किन्तु कमाने वाला होना चाहिए, इसके साथ यदि रहने को मकान, गोशाला में गाय, भैंस, या बकरियाँ, खेतादि हों, अथवा वह फ़ौज में या पुलिस में सिपाही ही क्यों न हो, तो समझिये कि लड़की बहुत ही भाग्यशालिनी है। अत: लड़की की इच्छा-आकांक्षा को जाने बिना ही उसका विवाह कर दिया जाता है।

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि प्रकृति के सान्निध्य में रहने के कारण यहाँ के ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएँ प्राकृतिक चिकित्सा-विज्ञान में पारंगत हैं। इस वनस्पति विज्ञान को उन्होंने अपने पूर्वजों से परम्परागत रूप से प्राप्त किया है। आज आवश्यकता है- उनके इस अनमोल ज्ञान को समझने एवं आधुनिक रूप में उसके उपयोग की, क्योंकि यह विज्ञान हमारे पूर्वजों के आविष्कार एवं अनुभवों का ही परिणाम है। अत: समाज के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है कि स्त्री को देवी मानकर चारदीवारी में स्थापित करने से अधिक उचित यह होगा कि उसे मानवी मानकर उसके मनोभावों तथा आकांक्षाओं को समझा जाए। यदि हम वास्तव में नारी के सशक्त स्वरूप के पक्षधर हैं, तो हमारा दायित्व है कि उसे अपने व्यक्तिगत निर्णय लेने की तथा घर की चौखट से बाहर निकलने की स्वतंत्रता प्रदान की जाए; जिससे कि वह जीवन के यथार्थ को जान सके तथा संघर्षों का सामना करने के लिए अपने आत्मिक एवं शारीरिक बल का उपयोग कर सके। इससे उसका आत्मविश्वास सुदृढ़ होगा, तथा विपरीत परिस्थितियों में उसे पुरुष की मुखापेक्षिणी बनकर नहीं रहना पड़ेगा। यदि समाज उसे कोमलांगी एवं लता सदृश पराश्रिता मानता रहेगा, तो वह कभी भी स्त्री के आत्मिक एवं शारीरिक बल से लाभन्वित नहीं हो सकेगा।
(Women condition in rural areas)

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