गढ़वाली गीतों में पर्वतीय नारी : संस्कृति

अमिता प्रकाश

‘‘प्रीत की कुंगली डोर सि छिन ये,
पहाड़ से कठोर भी छिन ये
हमरा पहाड़ू की नारी…
बेटी-ब्वारी पहाड़ू की बेटी-ब्वारी’’

पहाड़ की नारियों का यथार्थ चित्रण करता यह गढ़वाली गीत उनके बारे में दो ही पंक्तियों में बहुत कुछ बता देता है। यहाँ की नारियाँ आधुनिक चतुराई के रंगों से दूर अपनी स्वभावगत कोमलता व मृदुलता के लिए जानी जाती हैं। पहाड़ का पुरुष जीवन-यापन के लिए हमेशा से ही शहरों की ओर उन्मुख रहा है। पलायन का यह सिलसिला वस्तुत: यहाँ के जनमानस के भाग्य में बँधा है। अधिकांशत: यहाँ का युवक या तो फौज में भर्ती होता रहा है या किसी अन्य छोटी-मोटी नौकरी के लिए पलायन के लिए विवश रहा है। इन हालातों में उसकी ब्याहता उसके पीछे उन सभी कर्तव्यों को बड़े साहस व धैर्य से निबाहती है जो पति के थे। गढ़वाल का प्रसिद्ध लोकगीत ‘‘रामी बौराणी’’ इसी विषय पर केन्द्रित है। विवाह के पश्चात् पति बारह वर्ष तक घर नहीं लौटता और जब लौटता है तो साधु के वेश में पत्नी की परीक्षा लेने-

‘‘बोल बौराणी क्या तेरू नौं च
कौकी बौराण छै कख तेरु गौं च?’’

परिचय तक तो रामी एक व्यवहार कुशल महिला की तरह बातचीत करती है किन्तु जब साधु उससे छाया में अपनी बगल में बैठने को कहता है तो एक दृढ़ चरित्र नारी को यह सुनना असह्य हो जाता है-

‘‘औ रामी घाम छ तैलू
बैठ मी दगड़ डालि का छैलू’’

***

‘‘जांदू छै जोगी तू जै लेदी
आपणू बाटू तू खोजी लेदी’’

लेकिन इस पर भी जब वह उससे आग्रह करना नहीं छोड़ता तो कोमल व पति वियोग में मुरझाई रामी अचानक र्से ंसहनी का रूप ले लेती है-

‘‘हाथ कुटली तू देख मेरु
जादू नी त छिंडदू छौं मुँड तेरु।’’

वह स्पष्ट कहती है कि अगर तुम नहीं जाओगे तो मैं कुदाल से तेरे सिर पर मार दूंगी।

खैर रामी तो फिर भी भाग्यशाली थी कि 12 वर्ष बाद ही सही उसका पति घर लौटा किन्तु पहाड़ों में कई उदाहरण ऐसे देखने को मिल जाते हैं कि पति एक बार गया तो फिर वापस नहीं लौटा, या तो उसने वहीं घर बसा लिया या फिर किसी अन्य कारण से। किन्तु तब भी अपने हृदय पर पत्थर रखकर स्त्री अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं हुई-
(Women in Garhwali Song)

‘‘नारंगी की दाणी हो, क्या न सूखी होलो बौजी
मुखड़ी को पाणी हो?’’
‘‘स्वामी परदेश हो बस्स बीती गैनी द्यूरा बौणी की नि एैनी हो…’’

यह अधिकांशत: हर स्त्री का दर्द है और इस दर्द को लगभग हर गढ़कवि ने अपनी लेखनी से उकेरा है-

‘‘हे दिल्ली वाला द्यूरा हे दिल्ली वाला त्यरा भैजी भी दिखेंदी त्वे कभी आंदा जांदा’’

अधिकांशत: विवाह के समय लड़की के घरवालों से कह दिया जाता है कि लड़का दिल्ली में कार्यरत है। यहाँ का सीधा सादा या कहें कि विवश मानुष कभी यह जानने की कोशिश नहीं करता कि दिल्ली में कहाँ है? कब से है? या कितना कमाता है? वस्तुत: यह स्थिति आँख बंद करने वाले कबूतर जैसी है। जब पिता या किसी अन्य बड़े ने नहीं पूछा तो फिर नई दुल्हन के लिए यह पूछना तो असम्भव ही हो जाता है और शादी के दो-चार दिन बाद पति इस आश्वासन के साथ कि अगली बार वह उसे लेकर जायेगा फिर नहीं लौटता। लेकिन फिर भी त्याग की मूर्ति बन वह न सिर्फ उसके माता-पिता की सेवा करती है बल्कि पहाड़ की दुर्गमताओं से जूझते हुए अपने बच्चों का पालन-पोषण भी करती है।

उसे अपने पति पर किसी तरह का सन्देह भी नहीं है। वह अगर कभी सुनती भी है कि-

‘‘मैं शक सुबह होणू बौजी, फड़कड़ि च आँखि मेरी,
भैजी मेरु रसिक मिजाज, कखि बांद न कोई धैंरी’’
तो वह उल्टे सूचना देने वालों को ही झिड़क देती है-

चुप ठट्टा ना कर भै द्यूरा सिन त नी छिन त्यरा भैजी

***

उसका पति पर यह अडिग विश्वास ही उसके जीवन का सहारा बनता है। ‘‘प्रीत की कुंगली डोर सी’’ यह नारी सिर्फ इसी दुख से नहीं जूझती बल्कि पहाड़ से लड़ते हुए वह उसकी कठोरता को मात देती है।

पहाड़ों में कृषि की प्रधानता है। कृषि का बोझ इन्हीं के कोमल कन्धों पर है। यदि हल जोतना स्त्री के लिए र्विजत घोषित नहीं होता तो बहुत संभव था कि यहाँ का पुरुष उस एक काम से भी विरत हो जाता। एक हल जोतने के अतिरिक्त कृषि का समस्त कार्य स्त्रियों द्वारा ही किया जाता है-

‘‘बिन्सरी बटी धाणियूँ मां लगी न,
सेणी खाणी सब हरची न,
कर्म ही धर्म, काम ही पूजा
यूँ का पसीना न पुंगड़ी-पटली हमारी।’’

यदि कहा जाये तो पलायन के पश्चात् यहाँ रह रहे पुरुषों ने अकर्मण्यता को अपना लिया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। और जैसे यही पर्याप्त नहीं था, शराब के प्रचलन ने स्त्रियों के दुखों कष्टों को दोगुना-चौगुना कर दिया है।

कृषि के साथ पशुपालन स्वाभाविक है। पशुओं के पुत्रवत् या परिवार के सदस्यों की भाँति लालन-पालन की प्रथा पर्वतीय गाँवों की विशेषता है। यही कारण है कि अपने खाने-पीने से पूर्व पशुओं के चारे आदि की चिन्ता की जाती है। इस चिन्ता का भार भी अन्य सभी की तरह स्त्री के हिस्से में आया है। जिसे वह सहर्ष पूरा करती है, लेकिन जब कभी सूखे पर्वत उसकी सहायता करने से मना कर देते हैं तो वह कराह उठती है-
(Women in Garhwali Song)

‘‘कभी शीला पाखों रीटू, कभी तैला घाम
घास नी च पाणि माँजी ये लाला जंगल।’’

अर्थात् हे माँ! मेरे इस ससुराल के जंगल में न कहीं घास है न पानी। मैं कभी ठण्डे पर्वतीय ढालों पर घूमती हूँ तो कभी तेज धूप वाले पहाड़ों पर।

पशुओं के लिए चारे व जलाने के लिए लकड़ी के लिए उसे रोज ही पहाड़ों से टकराना पड़ता है, और कभी-कभी इस टकराहट में उसके हाथ लगती है सिर्फ मौत-

‘‘ना जा, ना जा, ना जा हे ना जा
ना जा तौं भेलू पाखांण, जिदेरी घसेरी बोल्यूं मान, आण नि दैंदी तू सरकारी बोंड़ गोर भैंस्यू मिन क्या खिलाण?’’
गुंदक्यलि खुट्टि तेरी सर रैड़ली भ्यालुंद प्वड़िली पै मोरि जैली
तेरी गोर-भैंस्यू न भुखि म्वरि जाण, जिदेरी घसेरी ब्वल्यूं मान।

लेकिन वह उस चेतावनी को अनदेखा कर टकरा जाती है अपनी मौत से। जिसमें कभी  उसकी जीत होती है तो कभी हार।

पहाड़ों पर जीवन आज भी बहुत कठोर है। अपनी अधिकांश जरूरतों के लिए यहाँ का जनमानस आज भी जंगल और जमीन पर आश्रित है। यही कारण है कि यहाँ की महिलाओं का आधा से अधिक समय खेतों और जंगलों में व्यतीत होता है। जंगल उनके जीवन का अहम हिस्सा है, इतना अहम कि उसके बिना उनके जीवन का निर्वाह नहीं हो सकता-

‘‘सुमा हे खडौण्यां सुमा डांडा न जा
मनस्वाण लग्यूं च सुमा डांडा न जा’’

उसे कवि सचेत करता है कि हे सुमा! तुम जंगल मत जाओ क्योंकि आदमखोर बाघ का आतंक छाया हुआ है। लेकिन वह जंगल न जाये तो कैसे? उस जंगल से उसे उन पशुओं के लिए घास लाना है, जिनके दूध से उसके छोटे-छोटे बच्चे पल रहे हैं या उन खेतों को जुतवाना है, जहाँ से उसके सारे परिवार के लिए वर्ष भर का अनाज उत्पादित हो रहा है। इन्हीं जंगलों से उसे शाम को खाना बनाने के लिए लकड़ी लेने जाना है इसलिए आदमखोर बाघ हो या भालू वह सबसे जूझती है-

‘‘तेरी चद्री ग्वैरूं न पछ्याणि सुमा डांडा न जा।’’ लेकिन सब करने के बाद उसे मिलती है गुमनाम मौत और कभी-कभी तो अन्तिम संस्कार के लिए उसकी लाश की जगह मिलते हैं मात्र उसके कपड़ों के अवशेष। क्योंकि कभी वह किसी बाघ का निवाला बन चुकी होती है तो कभी पेड़ से गिरकर अन्तहीन घाटियों में खो जाती है तो कभी नदी की धाराओं में बहकर बहुत दूर जा पहुँचती है। फिर भी उसे इन जंगलों से प्रेम है क्योंकि वह उसके सुख-दुख का साथी है। कभी पति की चिट्ठी आने पर सास-ससुर से नजर बचाकर इन्हीं जंगलों में उसने न जाने कितनी बार उसे पढ़ा, चूमा और कभी इन्हीं जंगलों में अपनी किसी ‘कुलाईं सखी’ से अपने दर्द को बाँटा। जब उसका विवाह तय हुआ तो इन्हीं पेड़ों से उसने अपनी खुशी को बाँटा। आखिर यही पेड़ तो हैं जो उसके सुख-दुख को धैर्य के साथ चुपचाप सुनते हैं और बिना किसी अन्य से कहे, उसकी खुशी में खुश व दुख में दुखी होते हैं-

‘‘मुल-मुल केकू हैंसणी छै तू
हे कुलैं की डाली
कखि तिन मेरी आँख्यूं का सुपिना
देखी त नी याली’’

(Women in Garhwali Song)

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