शोध आलेख : हिंसा और हत्या के बीच महिलाएँ

माया गोला

”कई कोठरियाँ थीं कतार में
उनमें से किसी में एक औरत ले जाई गई
थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया
उसी रोने से हमें जाननी थी एक पूरी कथा
उसके बचपन से जवानी तक की कथा”-  रघुवीर सहाय

आज स्त्रियों के संदर्भ में शारीरिक, मानसिक व यौनिक हिंसा एक व्यापक और गंभीर समस्या है। उस समस्या का एक और चिंतनीय पक्ष है, जो बहुधा छुपा हुआ रहता है, वह पक्ष है- घरेलू हिंसा का।

अच्छी-भली दिखने वाली महिलाओं के जीवन में यदि गहराई से झाँका जाए तो वहाँ भी कुछ टीसते घाव जरूर मिल जाएंगे। दरअसल, विभिन्न आर्थिक व सामाजिक कारणों, बच्चों के प्रति अपने दायित्वों व सामाजिक निंदा का भय इत्यादि कारणों के चलते स्त्री हर प्रकार की घरेलू हिंसा को सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति बन शांत भाव से सहन करती है और इसे ही अपनी नियति मान बैठती  है। यह एक स्वीकार्य तथ्य है कि अधिकांश महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा होती है और यह उस मानसिकता का परिणाम है जो वर्षों से समाज में पोषित एवं पल्लवित होती रही है। इसी मानसिकता के कारण हमारा समाज स्त्री को मनुष्य के रूप में नहीं अपितु अबला नारी के रूप में देखने का अभ्यस्त है।

हमारा समाज अपने गठन में पितृसत्तात्मक और सोच में सामंतवादी है, जहाँ मानसिक ग्रंथियों को तुष्टि दूसरे पर नियंत्रण में ही मिलती है। जाहिर है ऐसे समाज में सामंतवादी ग्रंथियों को तुष्टि दूसरे पर नियंत्रण में ही मिलती है। जाहिर है ऐसे समाज में सामंतवादी ग्रंथियों की तुष्टि का कारगर साधन स्त्रियां ही हैं। जिनकी जड़ें बड़ी चालाकी से, कतर दी जाती हैं। स्त्री की अस्मिता को तय करने वाला प्रमुख कारक है- उसका पुरुष संदर्भ। पुरुष संदर्भ के कारण ही उसे पत्नी, माँ, बहन, बेटी या रखैल का दर्जा मिलता है। इसके अलावा उसकी अस्मिता को पहचानने का अगर कोई और रूप सामने आता है तो समाज आज भी उस रूप में स्त्री को पहचानने से इंकार कर देता है। उसकी इतनी सीमाएं और मर्यादाएं तय कर दी गयी हैं कि वह इनसे मुक्त नहीं हो पाती है, मानसिक रूप से तो बिल्कुल नहीं। इसी मानसिक अनुकूलन के कारण वह घरेलू हिंसा को चुपचाप सह जाती है।

दिल्ली स्थित एक सामाजिक संस्था द्वारा कराये गये सर्वेक्षण के अनुसार भारत में लगभग पांच करोड़ महिलाओं को अपने घर में ही हिंसा का सामना करना पड़ता है। इनमें से मात्र 0.1 प्रतिशत ही हिंसा के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने आगे आती हैं।

महिलाओं पर घरेलू हिंसा के शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक दुष्प्रभाव पड़ते हैं। इसके कारण महिलाओं के काम तथा निर्णय लेने की क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। बच्चों पर भी इस हिंसा का सीधा दुष्प्रभाव देखा जा सकता है। घरेलू हिंसा के कारण दहेज हत्या, हत्या, आत्महत्या एवं वेश्यावृत्ति की प्रवृत्ति बढ़ी है। आज घरेलू हिंसा एक  गंभीर भूमण्डलीय समस्या बन चुकी है। मानव अधिकारों का यह सर्वाधिक व्यापक उल्लघंन है, जिसके द्वारा महिलाओं तथा लड़कियों को सुरक्षा, सम्मान, समानता आत्म-उत्कर्ष और बुनियादी आजादी के अधिकारों से वंचित रखा जाता है। घरेलू हिंसा एक ऐसा अपराध है, जो न तो सही तौर पर रिकार्ड किया जाता है और न ही इसकी सही तौर पर रिपोर्ट की जाती है।

घरेलू हिंसा का पूरा जीवन-क्रम यों उजागर होता है-

1.  जन्म पूर्व हिंसा- लिंग चुनाव के लिए भू्रण हत्या, लिंग जांच हो जाने पर गर्भावस्था के दौरान महिला पर अत्याचार।

2.  शैशवावस्था में हिंसा- बालिका शिशु के जन्म लेते ही उसकी हत्या, साथ ही उसे जन्म देने वाली महिला पर किये जाने वाले शारीरिक, मानसिक व यौन उत्पीड़न।

3.  बाल्यावस्था में हिंसा- बाल विवाह, खतना, शारीरिक, मानसिक व यौन उत्पीड़न, दुराचारपूर्ण व्यवहार, अश्लील सामग्री हेतु इस्तेमाल।

4.  किशोरावस्था में हिंसा- दुव्र्यवहार, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, बलात् गर्भधारण, सम्मान के नाम पर हत्याएं एवं अश्लील सामग्री हेतु इस्तेमाल।

5. युवावस्था में हिंसा- शारीरिक, मानसिक व यौन उत्पीड़न, दुव्र्यवहार, पति द्वारा प्रताड़ना, हत्याएं, दहेज हत्या एवं आत्महत्या के लिए उकसाना, वेश्यावृत्ति और बलात् गर्भधारण।
(Women in the midst of violence and murder)

वृद्धावस्था में हिंसा-

6. आर्थिक कारणों से की गयी हत्या, संवेदना के स्तर पर मानसिक उत्पीड़न, भावनात्मक उत्पीड़न एवं आत्महत्या करने पर विवश करना।

वस्तुत: हमारा समाज आज भी इस परम्परागत सामंतवादी सोच से परिचालित है कि लड़की बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति व वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रहे। स्त्रियों को लेकर समाज की सम्पूर्ण मानसिकता प्रगतिवादी नहीं है। भारत के कमोवेश सभी राज्यों की यही स्थिति है। ‘देवभूमि के नाम से जाना जाने वाला उत्तराखण्ड भी इसका अपवाद नहीं है।

यूं तो देवभूमि उत्तराखण्ड का उदय महिलाओं के आन्दोलन से हुआ है, लेकिन राज्य में महिला उत्पीड़न के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। राज्य महिला आयोग के ताजे आकड़े भी इस बात को पुख्ता कर रहे हैं। हर साल ऐसी शिकायतों में दस फीसदी की बढ़ोत्तरी हो रही है, जिनमें महिलाओं के शारीरिक उत्पीड़न, दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा के मामले सबसे ज्यादा हैं। हर साल महिला उत्पीड़न की शिकायतों में देश की जीडीपी से भी ज्यादा बढ़ोत्तरी हो रही है। राज्य महिला आयोग की वर्ष 2014-15 की सालाना रिपोर्ट के अनुसार-

वर्ष                  प्राप्त शिकायतें          निस्तारित शिकायतें
2012-13        1068                             663
2013              1132                             764
2014              1252                             917

कहने को तो महिला आयोग का गठन महिलाओं से जुड़ी तमाम शिकायतों के निस्तारण के लिए हुआ है लेकिन दो साल से ज्यादा वक्त बीत जाने पर भी अध्यक्ष की कुर्सी खाली पड़ी है। कहने को तो केन्द्र सरकार से लेकर राज्य सरकार तक महिला उत्पीड़न के मामलों में गम्भीरता से कार्यवाही करने का दावा कर रही है, लेकिन महिलाओं पर अत्याचार बढ़ते ही जा रहे हैं। भीमसिंह पर अपनी पत्नी को जलाकर मार देने के आरोप में सुप्रीम कोर्ट ने बचाव पक्ष की दलील को नामंजूर करके उसकी उम्रकैद की सजा बरकरार रखते हुए कहा कि दहेज विवाह से पहले मांगे या बाद में, है तो दहेज ही। आखिर कौन से सडांध मारते मूल्य हैं जो पुरुष को स्त्री के प्रति इतना कू्रर बना देते हैं।

आखिर ये कहाँ का न्याय है कि स्त्री के जीवन का फैसला पुरुष करे? गलती पुरुष करे और भुगते स्त्री? गंगोलीहाट, पिथौरागढ़ की एक किशोरी के बिन ब्याही माँ बनने पर माता-पिता उसे अस्पताल से घर नहीं ले गए। क्या कसूर है उस नादान बच्ची का? क्या लोक-लाज का डर समाज में केवल लड़कियों के लिए ही है जो कि माता-पिता तक को अपनी बेटी से नाता तोड़ने को मजबूर कर देता है….. इज्जत का प्रश्न स्त्री के साथ ही क्यों जुड़ा है? पुरुष को इससे कोई फर्क क्यों नहीं पड़ता? बलात्कार की शिकार उत्तराखण्ड की रेवती से भी उसके माँ-बाप व भाई-बहन ने सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। रेवती को तो बिना गुनाह के सजा मिल गई लेकिन उसके गुनहगार को न परिवार न सजा दी और न समाज ने।

उत्तराखण्ड के दूरस्थ गाँवों के निर्धन परिवारों में एक और कारण से महिलाओं की दशा दयनीय है और वह है विवाह के नाम पर लड़कियों की खरीद-फरोख्त। सुदूर ग्रामीण अंचलों से लड़कियों को खरीदकर शहरों में लाया जा रहा है।….. गरीब अभिभावकों को यह भी पता नहीं लगता कि उनकी लड़की सुदूर क्षेत्र में किस अवस्था में है।….. इसी तरह की एक घटना बागेश्वर जिले के लोहारखेत क्षेत्र में घटी, जहाँ विवाह के नाम पर लड़की को कुछ व्यक्तियों द्वारा बाहर ले जाया जा रहा था। इस तरह की महिलाओं तथा लड़कियों की स्थिति अत्यन्त दयनीय होती है। नौकरों की तरह इन्हें रखा जाता है या फिर से बेच दिया जाता है। कहीं-कहीं तो उन्हें वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेल दिया जाता है। अभी जून 2015 में एक खबर अखबारों की सुर्खियाँ बनी कि एक युवती पानी पीने के बहाने गाड़ी से उतर कर भाग गई। बाद में पुलिस के समक्ष इस युवती ने बयान दिया कि उसे पहले भी कई बार बेच दिया गया है, इस बार भी बेचे जाने का आभास पाकर वह गाड़ी से किसी तरह उतर कर भाग निकली…..। सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि वे महिलाएँ जो पहाड़ की रीढ़ हैं, उनकी नियति इतनी वीभत्स है…। उत्तराखण्ड राज्य विधि आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में महिलाओं की अस्मिता और लज्जा पर प्रहार तथा उन्हें बहला-फुसला कर अनैतिकता की ओर धकेलने के खतरों के बारे में अगाह किया है। नि:सन्देह यह एक चिन्तनीय पहलू है, क्योंकि पहाड़ की नसों में रक्त संचार यहाँ की महिलाएँ ही करती हैं। कठिन पहाड़ी परिवेश में रहते हुए भी यहाँ की महिलाएँ कर्मठता की मिसाल हैं। स्वतत्रता संग्राम से लेकर पहाड़ के जल, जंगल, जमीन, शराब और उत्तराखण्ड को अलग राज्य बनाने के लिए किए गए आन्दोलन में यहाँ की महिलाओं की बढ़-चढ़ कर भागीदारी रही है। खेती-बाड़ी से लेकर घर-गृहस्थी तक के सारे कामों का निर्वहन इन्हीं के बलबूते चल रहा है। बावजूद इसके यहाँ की महिलाएँ घरेलू हिंसा की शिकार हैं। महिलाओं के विरुद्ध होने वाले कई अपराध जैसे बलात्कार, यौन उत्पीड़न आदि तो सामाजिक प्रतिष्ठा खोने के डर से परिवार में ही दफन कर दिए जाते हैं। समाज में कौन-कौन से अपराध, कितनी संख्या में हो रहे हैं, इसकी बहुत वास्तविक तस्वीर, राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो, नई दिल्ली के प्रकाशन ‘क्राइम इन इण्डिया’में दिए आकड़ों से प्राप्त की जा सकती है। समूचे भारत में महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध 3.3 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रहे हैं।
(Women in the midst of violence and murder)

आखिर कौन जिम्मेदार है इसके लिए? पुरुष या स्वयं स्त्री? या फिर वह व्यवस्था, जिसके तहत एक पुरुष रूपी मनुष्य स्त्री रूपी मनुष्य को मात्र ‘स्त्री के चश्मे से देखने का आदी हो जाता है और उसे उपभोग वस्तु समझने लगता है। उत्तराखण्ड की महिलाओं के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाएँ जहाँ तमाम तरह की हिंसा सहती हैं, वहीं मैदान में रहने वाली महिलाओं को परिवार के ‘सम्मान के नाम पर अपनी जान भी गँवानी पड़ती है। दरअसल पुरुष-संदर्भ में स्त्री की अस्मिता जब भी निर्मित  होगी, स्त्री मातहत होगी। उसकी स्वायत्त छवि उभरकर सामने नहीं आ पाएगी। पुरुष-संदर्भ में स्त्री के कार्यभारों को तय करने के कारण स्त्री को पुरुष वर्ग समूचा हजम कर जाता है पितृसत्ता हजम कर जाती है। यह भी कहा जा सकता है कि पितृसत्ता अपने सम्मान के लिए स्त्रियों की बलि ले लेती है। उत्तराखण्ड के मैदानी क्षेत्रों में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं। 24 मई 2015 को काशीपुर में दो बेटों के साथ मिलकर बेटी की हत्या कर शव को घर में दबाने के मामले में पुलिस ने मृतका की माँ और एक भाई को गिरफ्तार किया। पूछताछ में दोनों ने पे्रम-प्रसंग में साहिबा की हत्या करने की बात कबूली है। ‘ऑनर किलिंग’ का यह मामला लक्ष्मीपुर पट्टी, ढेला बस्ती क्षेत्र के मधुवन नगर (उधमसिंह नगर) का है। यह घटना बताती है कि स्त्रियों को लेकर हमारा समाज किस हद तर्क हिंसक  हो उठता है और ‘ऑनर किलिंग’ के मामले में तो बेहद गंभीर पहलू यह है कि जो लोग स्त्री के संरक्षक होने का दावा करते हैं, वह बड़ी निर्ममता से स्त्री की हत्या कर डालते हैं। सम्मान के नाम पर की गई हत्या का तरीका इतना घिनौना और भयंकर होता है, जैसा कि जानवरों के साथ भी नहीं किया जाता होगा। ‘दोषियों’ को पत्थर मारकर, गला दबाकर, गोली मारकर और जिन्दा जलाकर ये हत्यारे अपने ‘सम्मान’ की रक्षा करते हैं। आमतौर पर स्त्रियों को इतना ज्यादा परेशान किया जाता है कि वे खुदखुशी करने तक को मजबूर हो जाती हैं।

हालांकि ‘ऑनर किलिंग’ के खिलाफ कानून भी बने हैं, जो अन्य कानूनों की तरह फाइलों में धूल चाट रहे हैं, जिन पर कोई अमल नहीं होता। कई देशों में तो ऐसे कानून भी हैं जो ‘सम्मान’  के नाम पर की जाने वाली हत्याओं को जायज ठहराते हैं। इस तरह के दोगले कानून और ‘ऑनर किलिंग’ के खिलाफ बने कानूनों का खौफ न होने के कारण ही हत्यारे अपनी क्रूर एवं जघन्य मानसिकता को अंजाम दे देते हैं। नानक सागर डैम के समीप हत्या की जघन्यतम वारदात को अंजाम देते हुए एक युवक व युवती के सिर काट दिए गए। दोनों की बाँहें व टांगें भी काटकर धड़ से अलग कर दी गईं, जिस क्रूररतापूर्ण ढंग से दोनों की हत्या की गई, वह ‘ऑनर किलिंग’ की ओर ही इशारा करती है।    

ग्राम शिमला पिस्तौर (रुद्रपुर) निवासी 18 वर्षीय युवती की संदिग्ध हालत में मौत हो गई। परिजनों ने पुलिस को बताए बिना शव का अंतिम संस्कार कर दिया। इसके बाद किसी ने पुलिस को चुनौतियाँ देकर युवती की ‘ऑनर किलिंग’ की जानकारी दी। पुलिस ने जाँच के बाद उसके पिता लल्लन और माता दुलेश्वरी के खिलाफ हत्या और साक्ष्य छुपाने का मुकदमा दर्ज किया। इसी तरह की घटना काशीपुर (उधमसिंह नगर) में घटी, जहाँ ‘ऑनर किलिंग’ में मीना नाम की युवती की हत्या कर दी गई। दरअसल हमारा समाज पितृसत्तात्मक ढाँचे में फलता-फूलता है और पितृसत्तात्मक ढाँचा स्त्री को उतनी ही स्वतंत्रता देता है, जितने में उसे सहूलियत होती है, उसके अहम को ठेस नहीं पहुँचाती। पितृसत्ता स्त्री से मिल रही चुनौतियों का सामना करने के बजाय उनका दमन करना उचित समझती है। संयुक्त राष्ट्र के आँकड़े बताते हैं कि इज्जत के नाम पर दुनिया भर में हो रही हत्याओं में, हर पाँचवी हत्या भारत में हो रही है। यही वजह है कि इन दिनों यह मुद्दा अन्तर्राष्ट्रीय चर्चा के केन्द्र में है।

समाज का यह विद्रूप है कि एक तरफ हमारे समाज की महिलाएँ हिंसाओं और हत्याओं में बर्बाद हो रही हैं, तो दूसरी ओर स्वास्थ्य, शिक्षा और र्आिथक स्तर पर गैर-बराबरी का दंश झेल रही हैं। वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम की रिपोर्ट दर्शाती है कि स्त्री-पुरुष के भेद को लेकर भारत विश्व स्तर पर 120वें स्थान पर आ गया है, पिछले वर्ष इस रिपोर्ट में भारत का स्थान 114वां था।

स्पष्ट है कि हमारी महिलाओं की स्थिति को बहुत आशा भरी नजरों से नहीं देखा जा सकता। उत्तराखण्ड की महिलाएँ खासतौर पर पहाड़ की महिलाएँ अथक परिश्रम करती हैं, वे पहाड़ की रीढ़ हैं। बावजूद इसके वे घरेलू हिंसा की शिकार हैं।…. बलात्कार और हत्याओं को झेल रही हैं। यह हमारे सामंतवादी पितृसत्तात्मक ढाँचे की जकड़न हैं जो महिलाओं को एक सामान्य मनुष्य की तरह का जीवन नहीं जीने देती। उनकी भावनाओं पर प्रतिबंध लगाती है और बहुधा उनके जीवन को ही लील जाती है। ऐसे समय में स्त्रियों को खुद अपनी मुक्ति के रास्ते तलाशने होंगे।
(Women in the midst of violence and murder)
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