महिलाओं के संघर्ष के इतिहास की प्रारम्भिक दो घोषणाएँ
भारती एस. कुमार
महिलाओं के संघर्ष का इतिहास जिसका रिकार्ड मिलता है, 18वीं सदी के उत्तरार्ध से चिन्हित किया जा सकता है। इसी संदर्भ में लोकतांत्रिक हिस्सेदारी में महिलाओं की सहभागिता के दो ऐतिहासिक दस्तावेजों को जानना हमारे लिए आवश्यक है, जिन्होंने महिला प्रश्न और मताधिकार के सम्बन्ध में अपने अधिकारों को सूचीबद्ध किया।
पहला फ्रांस में ‘महिलाओं के अधिकारों’ का वैकल्पिक घोषणापत्र है, जिसे ओलंपी द गाउज ने 1791 में घोषित किया। इसमें घोषित किया गया है- ”महिलाएँ स्वतंत्र रूप से जन्मी हैं और उनके अधिकार पुरुष अधिकारों के समान हैं…. कानून सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति होनी चाहिए, सभी नागरिकों, पुरुष हों या महिला, इसे बनाने में हिस्सेदारी होनी चाहिए… महिलाओं को फाँसी के तख्ते पर जाने का अधिकार है, उसे संसद में भी जाने का अधिकार होना चाहिए।”
यह महिलाओं का पहला अधिकार पत्र था। इसने फ्रांस के दार्शनिकों और समाज के नेताओं की उन मान्यताओं को चुनौती दी जो यह मानते थे कि औरतों के कार्य घरेलू हैं और इन्हें सार्वजनिक जीवन में सहभागिता या राजनीतिक अधिकार नहीं मिलने चाहिए। 1789 ई. की फ्रांस की क्रान्ति के बाद जिसने दुनिया को राष्ट्रीयता, समता और स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाया, अपने ही देश में महिलाओं के साथ बराबरी का बत्र्ताव नहीं हो सका। 1789 में जब क्रान्तिकारियों ने ‘पुरुष और नागरिकों के अधिकारों की घोषणा’ में सभी व्यक्तियों के लिए समानता की बात उठाई, तब महिलाओं को कोई राजनीतिक अधिकार नहीं मिले। तब महिलाओं को पुरुष के साथ निर्भरता के सम्बन्ध के रूप में देखा जाता था। इस नए नागरिक समाज में सभी पुरुष अनुबन्ध के द्वारा अपना अधिकार प्राप्त कर सकते थे, जबकि महिलायें अधीनता में पैदा हुई थीं। उस समय के वर्चस्वशाली विचारों ने महिलाओं के नागरिक कार्य को घर की शान्ति भंग करने वाला कहकर नकार दिया।
1793 में महिलाओं के राजनीतिक क्लबों को दबाया गया, उन्हें नेपोलियन की संहिता के अन्तर्गत पुरुषों के अधीन रखा गया और राजनीतिक हिस्सेदारी से वंचित रखा गया। यह एक दिलचस्प विरोधाभास है कि जो फ्रांस आधुनिक विचारों का केन्द्र था, वहाँ जेण्डर-विभेद इस हद तक रहा कि उन्हें 1870 में विश्वविद्यालय में प्रवेश मिला। डॉक्टरी करने की अनुमति 1875 में और 1900 में कानून का पेशा अपनाने की इजाजत मिली। 1965 ई. तक फ्रांसीसी औरतें बिना पतियों की अनुमति के बैंक में खाता नहीं खोल सकती थीं। यह सीमॉन द बोउआ का देश है, जहाँ महिलाओं को लम्बे संघर्ष के बाद 1944 ई. में वोट देने का अधिकार मिला।
इसी प्रकार संयुक्त राज्य अमरीका में भी 1776 ई. में स्वतंत्रता के युद्ध में सफलता और ‘बिल ऑफ राइट्स’ के कारण जनता को बहुत सारे अधिकार मिले, परन्तु महिलाओं को राजनीतिक नागरिकता से बाहर रखा गया। राजनीतिक अधिकारों के लिए महिलाओं के संघर्ष की शुरूआत 1930 ई. में दास प्रथा की समाप्ति के लिये किये गये आन्दोलन में हिस्सेदारी के साथ शुरू हुई। इस दास प्रथा की समाप्ति (एबालिशनिस्ट मूवमेंट) के आन्दोलन के दौरान महिलाओं ने नाबराबरी का अहसास किया। न तो उन्हें कुछ संगठनों की सदस्यता दी जाती थी और न ही सार्वजनिक सभाओं में बोलने दिया जाता था। सबसे पहले साराह और एंजेलिना ग्रीमके नामक बहनों ने जो कि दास प्रथा विरोधी अमरीकन सोसाइटी की पहली महिला नेता थीं, महिलाओं के बोलने के अधिकार की कड़ी वकालत की। 1836-37 में उनके भाषण पर्चो के रूप में छपे। साराह के निबन्धों को अखबारों में छापा गया। एक पर्चे का शीर्षक था- ‘स्त्री-पुरुषों की समानता और स्त्री की स्थिति पर पत्र’ (लेटर टू द इक्वलिटी ऑफ सेक्सेस एंड द कंडीशन ऑफ विमेन) पितृसत्तात्मक क्षेत्रों में इनकी कई बार आलोचना हुई, ‘फेमिनिस्ट’ शब्द बाद में आया लेकिन उसकी कच्ची सामग्री ग्रीमके बहनों के विचारों में उपस्थित थी।
सेनेका फाल्स कन्वेंशन स्त्री के अधिकारों का दूसरा घोषणा पत्र था, जो 19-20 जुलाई 1848 को सामने आया। इस घोषणापत्र को निर्मित करने में प्रधान भूमिका एलिजाबेथ कैडी स्टैनटन की थी, जिसमें उसे नेतृत्वकारी प्रेरणा मिली ल्यूके्रटिया मोट से जो दासता उन्मूलन के साथ-साथ स्त्री के अधिकारों की हिमायती थी। न्यूयार्क के सेनेका फाल्स नामक जगह के एक छोटे से गिरिजाघर में लगभग तीन सौ स्त्री-पुरुष इकट्ठे हुए और ‘वीमेन्स राइट कन्वेंशन’ का आयोजन किया। यहीं पर डिक्लेरेशन ऑफ सेंटीमेंट्स एंड सेल्व रिजोल्यूशन्स’ को स्वीकृत किया गया।
(Women Struggle)
इसमें महिलाओं और पुरुषों की समानता की बात की गयी। कहा गया कि उनका सृजन समान रूप से हुआ है और सृजनकर्ता ने उन्हें समान अधिकार प्रदान किये हैं। डिक्लेरेशन में यह भी घोषित किया गया कि इतिहास में हमेशा ही महिलाओं को इस समानता से वंचित रखा गया है। ‘मानव समुदाय का इतिहास पुरुषों द्वारा महिलाओं पर बल प्रयोग और कष्ट देने का इतिहास रहा है, जिसका मुख्य उद्देश्य औरतों पर पुरुषों का प्रभुत्व स्थापित करना है।’ इन बारह प्रस्तावों में से कुछ प्रस्ताव महत्वपूर्ण और गौरतलब हैं। इनका भावार्थ इस प्रकार है-
1. कि वैसे कानून जो औरतों को समाज में अच्छी स्थिति प्राप्त करने से रोकते हैं और उसे पुरुषों से निम्न स्थान देते हैं, प्रकृति के स्वभाव के विपरीत हैं, इसलिए इनकी कोई शक्तियाँ सत्ता नहीं हैं।
2. कि औरत पुरुष के बराबर है और ऐसी ही सृष्टिकत्र्ता ने इच्छा भी की है और प्रजाति की भलाई की मांग है कि औरतों को ऐसी ही मान्यता देनी चाहिए।
3. कि इस देश की औरतों को अपने कानूनों का बोध होना चाहिए। ताकि वे यह न कह सकें कि अपनी वत्र्तमान स्थिति से सन्तुष्ट हैं और न ही उनकी अज्ञानता इस दावेदारी से जाहिर हो कि उनके पास सब अधिकार हैं, जो वे चाहती हैं।
4. इस देश की औरतों का यह कर्तव्य है कि निर्वाचित मताधिकार के पवित्र अधिकारों को प्राप्त करें।
5. कि मानव अधिकारों की समता के परिणाम आवश्यक रूप से किसी प्रजाति (रेस) की क्षमता और दायित्व की पहचान के तथ्यों से होते हैं।
6. अन्तिम प्रस्ताव था कि चर्च के आदेश मंच (धर्मोपदेशक का आसन) के एकाधिकार को उखाड़ने और औरतों की मर्दों के साथ विभिन्न गतिविधियों, पेशों, व्यापार में बराबरी की भागीदारी को प्राप्त करने के लिए हमारे इस उद्देश्य की त्वरित सफलता औरतों और मर्दों के उत्साही और अथक प्रयत्नों पर निर्भर है।
इस ‘डिक्लेरेशन ऑफ सेंटीमेंट्स 1848’ ने औरतों-मर्दों के सम्बन्धों में असमानता और दमनकारी पहलुओं को उजागर किया और अमरीकी कानूनों के बहुत से पहलुओं को चुनौतियाँ दी। यह घोषणा सिर्फ शुरूआत थी, संघर्ष जारी रहा और अमरीकी महिलाओं को मताधिकार 1920 में मिला। समान वेतन का संघर्ष जारी रहा और अभी भी अमरीकी महिलाएँ इस जेंडर विभेद को कहीं न कहीं झेल रही हैं।
आधी जमीन, मार्च-अप्रैल 2016 से साभार
(Women Struggle)
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